Wednesday, May 9, 2018

संशय में कर्नाटक का मुस्लिम वोट


कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में लिंगायत और वोक्कालिगा वोट के अलावा जिस बड़े वोट आधार पर विश्लेषकों की निगाहें हैं, वह है मुसलमान। मुसलमान किसके साथ जाएगा? अलीगढ़ में जब मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर घमासान मचा है, उसी वक्त कर्नाटक में कांग्रेस यह साबित करने की कोशिश में है कि वह मुसलमानों की सच्चे हितैषी है। पर कांग्रेस इस वोट को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। उसे डर है कि मुसलमानों का वोट कहीं बँट न जाए। इस वोट को लेकर उसका मुकाबला एचडी देवेगौडा की जेडीएस से है। कर्नाटक की सभाओं में राहुल गांधी मुसलमानों से कह रहे हैं कि जेडीएस बीजेपी की बी टीम है, उससे बचकर रहना।
कर्नाटक में दलित और मुस्लिम वोट कुल मिलाकर 30 फीसदी के आसपास है। इसमें 13-14 फीसदी वोट मुसलमानों का है। जेडीएस ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी और असदुद्दीन ओवेसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन किया है। सवाल है कि क्या जेडीएस इस वोट बैंक का लाभ उठा पाएगी?

कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने अपनी सोशल-इंजीनियरी कई साल पहले शुरू कर दी थी। मुसलमानों को रिझाने के लिए सरकार ने टीपू सुलतान की जयंती मनाने जोर-शोर से मनाने की घोषणा 2015 में ही कर दी थी। सन 2013 में शादी भाग्य स्कीम शुरु की, जिसमें गरीब अल्पसंख्यक परिवारों की लड़कियों की शादी के लिए सरकार की ओर से 50,000 रुपये की सहायता दी जाती है। कहने को यह योजना अल्पसंख्यकों के लिए है, पर इसका लक्ष्य मुसलमान परिवार ही हैं, क्योंकि दूसरे अल्पसंख्यक बहुत कम हैं। जनवरी, 2018 में एक सर्कुलर के जरिए अल्पसंख्यकों के खिलाफ पिछले 5 पाँच साल दर्ज साम्प्रदायिक हिंसा के केस वापस लेने की घोषणा की गई।
राज्य में मुसलमानों के सामने तीन राजनीतिक विकल्प हैं। कांग्रेस, जेडीएस और एसडीपीआई जैसे स्थानीय राजनीतिक समूह। इसी वजह से मुस्लिम वोट बँटने का अंदेशा है, जिसे लेकर कांग्रेस परेशान है। अपने प्रचार में कांग्रेस केवल बीजेपी को ही निशाना नहीं बना रही है, जेडीएस पर भी हमले कर रही है। जेडीएस के दो बड़े मुस्लिम नेताओं ज़मीर अहमद खान और इकबाल अंसारी को पार्टी ने पहले ही अपने पक्ष में तोड़ लिया है। उधर जेडीएस ने घोषणा की है कि पार्टी सत्ता में आई तो उप मुख्यमंत्री पद किसी मुस्लिम राजनेता को दिया जाएगा।
सन 2006 में जेडीएस और बीजेपी के बीच रिश्ते कायम होने के बाद से इस पार्टी का मुसलमानों के बीच आधार कमजोर हुआ है। पर कांग्रेस भी संशय में है। उसे मुसलमानों के अलावा हिन्दू वोटरों की चिंता भी है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण भी उसके लिए नुकसानदेह है। वह खुद को मुसलमानों की पार्टी साबित नहीं होने देगी। इससे उसका हिन्दू वोट टूटने का खतरा है। इसीलिए कर्नाटक की सभाओं में गुलाम नबी आजाद ने मुसलमान वोटरों के बीच जाकर कहा कि हिन्दुओं का विरोध न करें, केवल कांग्रेस को वोट दें।
राज्य में 35 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमानों की आबादी बीस प्रतिशत या उससे ज़्यादा है। इसके अलावा 90 सीटों पर मुसलमान वोटर चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। इन सीटों पर कांग्रेस के अलावा जेडीएस की निगाहें भी हैं। सात-आठ विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमानों का प्रतिशत काफी ज्यादा है। मसलन मंगलोर (50.7 प्रश), बेंगलुरु की पुलकेशीनगर सीट (49.3), गुलबर्गा (49.7), बीजापुर शहर (47.3), मैसूर की नरसिंहराजा सीट (44 फीसदी), बेंगलुरु के सर्वज्ञ नगर (40) और चामरेजपेट (43) क्षेत्र में मुस्लिम वोट निर्णायक होंगे।
विडंबना है कि राज्य में वोटर की बड़ी ताकत होने के बावजूद पिछले तीन दशक में मुसलमान विधायकों की संख्या 6 से 12 के बीच ही रही है। मुस्लिम राजनीति पर नजर रखने वालों का कहना है कि जिन इलाकों में मुसलमान बड़ी संख्या में होते हैं, वहाँ ज्यादातर पार्टियाँ मुसलमान प्रत्याशी खड़े करती हैं। इससे मुसलमानों का वोट बँट जाता है।
दक्षिण कर्नाटक के जिलों में खाड़ी देशों में काम करने वाले मुसलमानों के परिवार रहते हैं। इनके बीच 'पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इण्डिया' यानी पीएफआई भी सक्रिय है, जिसपर लव जेहाद के मार्फत धर्मांतरण को बढ़ावा देने का आरोप है। पीएफआई की राजनीतिक शाखा सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) इस बार सात सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार रही है। इस पार्टी के नेताओं का कहना है कि कांग्रेस ने मान लिया है कि मुसलमान उसका साथ देंगे ही देंगे। उसकी दिलचस्पी अपनी राजनीति में है, मुसलमानों को हित में नहीं। इसलिए मुसलमानों को अपनी वैकल्पिक राजनीति विकसित करनी चाहिए।
राज्य में मुसलमान महिलाओं का एक समूह भी राजनीति में उतरा है। आंध्र प्रदेश की नौहेरा शेख ने ऑल इंडिया महिला एम्पावरमेंट पार्टी बनाई है, जिसने 221 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं। नौहेरा शेख बड़ी कारोबारी हैं। उनके साथ फिल्मी कलाकार हैं। उनके कार्यक्रमों में सानिया मिर्जा और फराह खान भी नजर आती रहीं हैं। एमईपी के नाम से प्रसिद्ध हो रही इस पार्टी ने राष्ट्रीय मीडिया में अपने प्रचार पर बड़ी रकम खर्च की है। पिछले कुछ समय में मुसलमान महिलाएं भी राजनीति में सक्रिय हुईं हैं। यह पार्टी फैंसी तो है, पर इसका जनाधार नजर नहीं आता।
हाल के वर्षों में असम में बद्रुद्दीन अजमल की एआईडीयूएफ तेजी से उभरकर आई है। क्या दक्षिण भारत में एसडीपीआई ऐसा कर पाएगी? असदुद्दीन ओवेसी की पार्टी एआईएमआईएम हैदराबाद के आसपास तक ही सीमित है। ओवेसी और दूसरे कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि मुसलमान वोटों के बँटने का खौफ कांग्रेस फैलाती है। उसकी दिलचस्पी मुसलमानों को अपने अधीन बनाए रखने में है।
गैर-राजनीतिक मुस्लिम संगठनों के मंच कर्नाटक मुस्लिम मुत्तहिदा महाज़ की चिंता है कि मुसलमान वोट को बँटने से कैसे रोका जाए। पर यह कोई राजनीतिक दिशा नहीं है। वस्तुतः कोई एकांगी-एकरूपी और सुविचारित मुस्लिम राजनीति देश में नहीं है। नब्बे के दशक के बाद से बीजेपी को हराना मुस्लिम राजनीति का लक्ष्य है। राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम राजनीति तब से संशय में है और यह संशय कर्नाटक में भी नजर आ रहा है। 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (11-05-2018) को "वर्णों की यायावरी" (चर्चा अंक-2967) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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