Sunday, April 24, 2022

‘ग्रासरूट-लोकतंत्र’ के ध्वजवाहक पंचायती-राज की ताकत को पहचानिए


आज 13वाँ राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जम्मू-कश्मीर जा रहे हैं, जहाँ वे कई परियोजनाओं का उद्घाटन करेंगे। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद से लोकतांत्रिक-दृष्टि से पहला बड़ा फैसला था, राज्य में पंचायत-राज की स्थापना। इसके पहले वहाँ तीन-स्तरीय पंचायती-राज व्यवस्था लागू नहीं थी। अक्तूबर 2020 में यहाँ पंचायती-व्यवस्था लागू की गई और दिसम्बर तक चुनाव भी हो गए। जम्मू-कश्मीर में इस व्यवस्था में एक जिला विकास परिषद (डीडीसी) के नाम से लोकतांत्रिक-व्यवस्था की एक नई परत जोड़ी गई है। हालांकि राज्य में विधानसभा चुनाव अभी तक नहीं हुए हैं, पर उम्मीद है कि परिसीमन का काम पूरा होने के बाद वहाँ जन-प्रतिनिधि प्रशासन की स्थापना भी हो जाएगी। पंचायत चुनावों के कारण वहाँ जन-प्रतिनिधियों की एक नई पीढ़ी तैयार हो गई है। देश के लोगों से जुड़ना है, तो पंचायती-राज के माध्यम से जुड़ना होगा।

क्रांतिकारी बदलाव

सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में क्रांतिकारी बदलावों की सम्भावनाएं पंचायती-राज के साथ जुड़ी हैं। आज 73वां संविधान संशोधन अधिनियम लागू होने का 30वां साल भी शुरू हो रहा है। यह अधिनियम 1992 में पास हुआ था और 24 अप्रैल,1993 को लागू हुआ था। इस दिन को ‘राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत 2010 से हुई थी। जनवरी 2019 तक की जानकारी के अनुसार देश में 630 जिला पंचायतें, 6614 ब्लॉक पंचायतें और 2,53,163 ग्राम पंचायतें हैं। इनमें 30 लाख से अधिक पंचायत प्रतिनिधि हैं। सबसे निचले स्तर पर पंचायत-व्यवस्था में लगभग प्रत्यक्ष-लोकतंत्र है। यानी कि अपनी समस्याओं के समाधान में जनता की सीधी भागीदारी। यह व्यवस्था जितनी पुष्ट होती जाएगी, उतना ही ताकतवर हमारा लोकतंत्र बनेगा।

आत्मनिर्भर गाँव

महात्मा गांधी की परिकल्पना थी कि गाँव आत्मनिर्भर इकाई के रूप में विकसित हों, जो देश की परम्परागत-पंचायत व्यवस्था थी। पंचायतों की आवाज देश के नागरिकों की पहली आवाज है। अंग्रेजी शासनकाल में लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन सम्बंधी प्रस्ताव दिया।1884 में मद्रास लोकल बोर्ड्स एक्ट पास किया गया। 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रान्तों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषयों की सूची में रखा गया। कस्बों और शहरों में जन-प्रतिनिधित्व की शुरुआत हुई। 1920 में ग्राम पंचायत कानून बने।

स्वतंत्र भारत

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पंचायती-राज की परिकल्पना की गई, पर बरसों तक स्थानीय-निकाय चुनाव के बगैर केवल सरकारी अफसरों की देखरेख में चलते रहते थे। स्वतंत्रता के बाद 1957 में योजना आयोग ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम (वर्ष 1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम (वर्ष 1953) के अध्ययन के लिए ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया। नवंबर 1957 में समिति ने अपनी रिपोर्ट में तीन-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू करने का सुझाव दिया। 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार की और 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहली तीन-स्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया। हालांकि स्वतंत्रता के बाद सबसे पहले पंचायती-राज लागू करने वाला राज्य बिहार था, जिसने 1947 में इसे लागू कर दिया था। पर तीन-स्तरीय व्यवस्था राजस्थान से शुरू हुई।

संविधान-संशोधन

1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से भारत में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम पंचायत (ग्राम स्तर पर), पंचायत समिति (मध्यवर्ती स्तर पर) और ज़िला परिषद (ज़िला स्तर पर) शामिल हैं। इस तीन-स्तरीय पंचायती-गवर्नेंस में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण है और खासतौर से स्त्रियों के लिए स्थान सुरक्षित हैं। आर्थिक-फैसलों में उनकी भागीदारी है। हरेक पाँच साल में चुनाव की व्यवस्था है। राज्य चुनाव-आयोगों का गठन हुआ। पंचायतों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए उपाय सुझाने हेतु राज्य वित्त आयोगों का गठन  किया गया। पंचायतों को नियम बनाने के अधिकार मिला। ग्राम-सभाओं की नियमित बैठकों के नियम बने। पंचायतों को संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज 29 विषयों के संबंध में आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएँ तैयार करने और उनके निष्पादन की जिम्मेदारी दी गई। उन्हें टोल, टैक्स, शुल्क आदि लगाने और उसे वसूल करने का अधिकार मिला। साथ ही राज्यों द्वारा एकत्र करों की पंचायतों को हस्तांतरण की व्यवस्था लागू की गई।

बुनियादी सवाल

पिछले तीस वर्षों में हुए इन बदलावों को गाँवों में जाकर देखा जा सकता है। हालांकि अभी अनेक संशय हैं। राजमार्गों के विकास, पुलों, बाँधों और अन्य निर्माणों से जुड़े फैसलों में पंचायतों की भूमिका अस्पष्ट है, जो क्रमशः बढ़ेगी। गाँवों से जुड़े बुनियादी सवालों पर पंचायतों की भूमिका भी है। मनरेगा, प्रधानमंत्री सड़क, आवास योजना, अन्न वितरण, उज्ज्वला, मुद्रा, नल से जल, आयुष्मान भारत, किसान सम्मान वगैरह-वगैरह की सफलता में पंचायतों की भूमिका है। ग्रामीण-महिलाओं को आर्थिक सहायता और समर्थन की जरूरत है, वहीं शिक्षण-प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता भी चाहिए। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जिसके तहत कई तरह की योजनाएं हैं। फरवरी के महीने में ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्रालय से जुड़ी संसदीय स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि मनरेगा के तहत ज्यादा मजदूरी और वर्तमान 100 से 150 दिन का काम करने की जरूरत है।

आर्थिक चुनौतियाँ

विशेषज्ञ मानते हैं कि अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिए ग्रामीण-क्षेत्रों की माँग को बढ़ाना होगा। यह माँग तभी बढ़ेगी, जब वहाँ के लोगों के पास खर्च करने लायक पैसा होगा। कोरोना काल में हमने देखा कि भारी संख्या में प्रवासी कामगारों की वापसी के बावजूद ग्रामीण-क्षेत्रों ने संकट का सामना कर लिया। उनके मुकाबले शहरी गरीबों की परेशानी ज्यादा रही। यह सफलता पंचायती-व्यवस्था की देन थी। कोरोना-काल के अनुभवों ने यह भी बताया है कि ग्राम-पंचायतों की कनेक्टिविटी को बेहतर बनाना होगा। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल का आम बजट पेश करते हुए डिजिटल कनेक्टिविटी को लेकर कुछ बड़ी घोषणाएं की हैं। उन्होंने कहा कि ग्रामीण भारत को डिजिटली सशक्त बनाने के लिए 2025 तक हर गाँव तक ऑप्टिकल फाइबर केबल बिछाने का काम पूरा करने का लक्ष्य है। यानी कि अगले तीन साल में हर गाँव तक हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्टिविटी मिलने लगेगी।

ब्रॉडबैंड नेटवर्क

इस सिलसिले में भारतनेट ब्रॉडबैंड 2025 तक तैयार हो जाएगा। देश के करीब सवा छह लाख गाँवों में पूरी तरह लागू हो जाने के बाद यह दुनिया का सबसे बड़ा ग्रामीण ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी नेटवर्क होगा। देश को जोड़ने का काम राष्ट्रीय राजमार्गों के नेटवर्क और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के मार्फत भी किया जा रहा है। पर यह केवल जोड़ने या सम्पर्क के रास्ते बनाने का विचार ही नहीं है। सरकार एक कदम आगे बढ़कर स्मार्ट पंचायत शुरू करने जा रही है। गाँव की हर पंचायत को ऑप्टिकल फाइबर से जोड़ा जा रहा है। जिससे बुनियादी सुविधाएं जैसे जाति प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र, राशन कार्ड समेत कई सुविधाओं को गाँव में ही प्राप्त हो सकेंगी। सीमावर्ती गाँवों के विकास के लिए इस साल से वाइब्रेंट विलेजनाम से विशेष योजना शुरू की जा रही है। इससे सीमा-क्षेत्र की सुरक्षा पंक्ति ही मजबूत नहीं होगी, बल्कि पलायन रुकेगा। रोजगार, शिक्षा और इलाज न मिल पाने के कारण लोग अपना घर छोड़ते हैं। अब इन गाँवों के विकास की जिम्मेदारी सरकार ने ली है।

ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर

फरवरी के अंतिम सप्ताह में आयोजित एक वेबिनार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘गाँवों की डिजिटल कनेक्टिविटी एक मनोकामना या आकांक्षा भर नहीं है, बल्कि आज की जरूरत है। ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी से गाँवों में सुविधाएं ही नहीं मिलेंगी, बल्कि ये गाँवों में स्किल्ड युवाओं का एक बड़ा पूल तैयार करने में भी मदद करेगा।’ वित्तमंत्री ने डिजिटल नेटवर्क की जिस योजना का विवरण दिया है, वह इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी है। इंफ्रास्ट्रक्चर होगा, तभी हम इन कार्यक्रमों की गाड़ी को आगे ले जा सकेंगे। पर यह काम एक बड़ी सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति से जुड़ा हुआ है। इसके साथ शिक्षा से जुड़े कार्यक्रमों पर भी नजर डालनी होगी। सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से जुड़ी अनेक छोटी-छोटी क्रांतियाँ इसके साथ होंगी।

महिलाओं की स्थिति

पंचायती राज अधिनियम लागू होने से गाँव की महिलाओं की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। महिला आरक्षण को कई राज्यों ने 33 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत तक दिया है। इससे महिलाओं की भूमिका और भागीदारी बढ़ी है। यह भी सच है कि आरक्षण के कारण बहुत सी जगहों पर पुरुषों ने अपने परिवार की स्त्रियों के नाम पर पद हथिया लिए हैं। पर ऐसी महिला-ग्राम प्रधानों की लम्बी सूची है, जिन्होंने अपनी कुशलता से क्रांति ला दी है। इस पीढ़ी में महिलाओं को जगह मिली है, अगली पीढ़ी की महिलाएं उस जगह को मजबूत करेंगी। ग्रामीण स्त्रियों को अपने पैरों पर खड़ा करने में सरकार की भूमिका कई स्तरों पर है। इन अनेक अर्थों में पंचायती-राज केवल गवर्नेंस की व्यवस्था के रूप में ही सामने नहीं आ रहा है, बल्कि सामाजिक क्रांति का वाहक बनकर सामने आ रहा है। 

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

 

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