Sunday, March 21, 2021

बीजेपी का अश्वमेध यज्ञ

अगले शनिवार को असम और बंगाल में विधानसभा चुनावों के पहले दौर के साथ देश की राजनीति का रोचक पिटारा खुलेगा। इन दो के अलावा 6 अप्रेल को पुदुच्चेरी, तमिलनाडु और केरल में चुनाव होंगे, जहाँ की एक-एक सीट का राजनीतिक महत्व है। इन पाँचों से कुल 116 सदस्य लोकसभा में जाते हैं, जो कुल संख्या का मोटे तौर पर पाँचवां हिस्सा हैं। यहाँ की विधानसभाएं राज्यसभा में 51 सदस्यों (21%) को भी भेजती हैं।

इस चुनाव को भारतीय जनता पार्टी के अश्वमेध यज्ञ की संज्ञा दी जा सकती है। सन 2019 के चुनाव में हालांकि भारतीय जनता पार्टी को जबर्दस्त सफलता मिली, पर उसे मूलतः हिंदी-पट्टी की पार्टी माना जाता है। पुदुच्चेरी में उसका गठबंधन सत्ता पाने की उम्मीद कर रहा है, जो तमिलनाडु का प्रवेश-द्वार है। पूर्वांचल में उसने असम और त्रिपुरा जैसे राज्यों में पैठ बना ली है, पर उसका सबसे महत्वपूर्ण मुकाबला पश्चिम बंगाल में हैं, जहाँ विधानसभा की कुल 294 सीटें हैं। 2016 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने यहां 211 सीटें जीती थीं। लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन को 70 और बीजेपी को सिर्फ तीन। फिर भी वह मुकाबले में है, तो उसके पीछे कुछ कारण हैं।  

लोकसभा 2019 के चुनाव में भाजपा ने बंगाल में भी झंडे गाड़े। राज्य के तकरीबन 40 फ़ीसदी वोटों की मदद से 18 लोकसभा सीटें उसे हासिल हुईं। तृणमूल ने 43 फ़ीसदी वोट पाकर 22 सीटें जीतीं। दो सीटें कांग्रेस को मिलीं और 34 साल तक बंगाल पर राज करने वाली सीपीएम का खाता भी नहीं खुला। पिछले कई वर्षों से बीजेपी इस राज्य में शिद्दत से जुटी है। अब पहली बार उसकी उम्मीदें आसमान पर हैं। अमित शाह का दावा है, अबकी बार 200 पार। क्या यह सच होगा?

बंगाल का महत्व

बंगाल का महत्व कितना है, इसे समझने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों पर ध्यान दें। गत 18 मार्च को उन्होंने पुरुलिया को संबोधित किया। यह रैली शनिवार 20 मार्च को होनी थी लेकिन इसे दो दिन पहले ही आयोजित कराया गया। 20 मार्च को खड़गपुर में रैली हुई। आज बांकुड़ा में और 24 को कांटी मिदनापुर में रैलियाँ होंगी। पार्टी पहले चरण से ही माहौल बनाने की कोशिश में है। इससे पहले मोदी 7 मार्च को बंगाल आए थे। तब उन्होंने कोलकाता के बिग्रेड मैदान में जनसभा को संबोधित कर ममता पर निशाना साधा था।

सन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से टीएमसी के 17 विधायक, एक सांसद कांग्रेस, सीपीएम और सीपीआई के एक-एक विधायक अपनी पार्टी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। यह संख्या लगातार बदल रही है। हाल में मालदा के हबीबपुर से तृणमूल कांग्रेस की प्रत्याशी सरला मुर्मू ने टिकट मिलने के बावजूद तृणमूल छोड़ दी और सोमवार 8 मार्च को भाजपा में शामिल हो गईं। बात केवल बड़े नेताओं की नहीं, छोटे कार्यकर्ताओं की है। केवल तृणमूल के कार्यकर्ता ही नहीं सीपीएम के कार्यकर्ता भी अपनी पार्टी को छोड़कर भागे हैं।

चुनाव के मुद्दे

एक दुर्घटना में घायल होने के बाद से ममता बनर्जी ह्वीलचेयर पर बैठकर प्रचार कर रही हैं। उनके घोषणा पत्र में किसानों को हर साल छह की जगह 10 हजार रुपये, 10 लाख नए एमएसएमई बनाने, 25 लाख आवास बनाने, हरेक घर में पीने के पानी और बेहतर जल निकासी, अजा-जजा वर्ग को सालाना 12 हजार रुपये और निम्न वर्ग के लोगों को 6 हजार रुपये देने, 1.6 करोड़ परिवारों की महिला मुखिया को 500 रुपये मासिक दिए जाने समेत तमाम लोकलुभावन वादे किए हैं।

संभवतः आज बीजेपी का जवाबी घोषणापत्र भी जारी हो जाएगा। उज्ज्वला, प्रधानमंत्री आवास योजना, जन धन वगैरह के ज़रिए केंद्र सरकार ने हर राज्य के महिला वोटरों में अपनी पैठ बनाई है। बीजेपी को बिहार में भी महिला वोटरों का समर्थन इन्हीं योजनाओं की वजह से मिला था। उनकी नज़रें बंगाल में भी इस वर्ग पर है।

सन 2011 में ममता बनर्जी ने 'पोरिबोर्तोन' को अपना नारा बनाया था। अब बीजेपी का भी यही नारा है। इसी नाम से पाँच रैलियाँ बीजेपी निकाल चुकी है। ममता बनर्जी मूलतः विपक्ष की राजनेता हैं। संघर्ष उनके स्वभाव में है। बंगाल से वाममोर्चा को उखाड़ फेंकने का श्रेय उन्हें जाता है। सन 2004 से 2009 के बीच उन्होंने अपने संघर्ष को निर्णायक रूप दिया।

वाममोर्चा सरकार के सामने नीतिगत संकट था। सीपीएम पर उद्योग विरोधी होने का लम्बा ठप्पा लगा था। बुद्धदेव दासगुप्त की सरकार के सामने तेज औद्योगीकरण की चुनौती थी। नंदीग्राम में दस हजार एकड़ जमीन पर इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप के माध्यम से स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन बनाने के खिलाफ संघर्ष शुरू हुआ। दूसरी ओर सिंगुर में टाटा के कार प्लांट के लिए सरकार ने ज़मीन का अधिग्रहण किया।

मुस्लिम वोट

इन दोनों आंदोलनों के मार्फत ममता बनर्जी ने ग्रामीण इलाकों में अपनी जगह बनाई। भयानक खून-खराबे के बीच उनका माओवादी संगठनों से भी सम्पर्क रहा। उन्हीं दिनों वे कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों के संपर्क में भी आईं। उनकी सफलता के पीछे मुस्लिम वोट बैंक भी है। पर ममता की इस राजनीति के अंतर्विरोध हैं। वैसे ही हैं जैसे वामपंथियों के थे। 1967 के पहले वामपंथी जिन किसानों के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, वही आंदोलन नक्सलपंथी आंदोलन के रूप में उनके सामने चुनौती बनकर खड़ा हुआ, जब सीपीएम सत्ता में आई।  अब नंदीग्राम के पुराने साथी ममता के खिलाफ हैं।

ममता पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप भी है। राज्य में करीब 30 फीसद मुस्लिम आबादी है। मुसलमानों का सौ से सवा सौ सीटों पर सीधा असर है। इनमें से करीब 90 सीटों पर पिछले विधानसभा चुनाव में तृणमूल को जीत मिली थी, लेकिन इसबार भाजपा व तृणमूल के साथ मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने और मुस्लिम वोटरों को अपने साथ लाने के लिए वाममोर्चा और कांग्रेस ने फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा और प्रमुख मुस्लिम धार्मिक नेता अब्बास सिद्दीकी की पार्टी इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) के साथ गठजोड़ किया है। इससे समीकरण बदले हैं। एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवेसी ने भी 10 से 20 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं। बीजेपी ने भी बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी उतारे हैं। इनकी संख्या 8 से 17 के बीच बताई जा रही है।

हिंदुत्व की छतरी

बीजेपी ने अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदिवासी, मतुआ और राजवंशी समाजों को अपने साथ जोड़ा है। भाजपा ने हिंदुत्व की छतरी के नीचे कई तबकों को लाने में कामयाबी हासिल की है। उत्तर बंगाल में राजवंशी समाज और आदिवासी समाज के मतदाताओं की संख्या लगभग 50 लाख के आसपास है। इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 26 मार्च का दो दिन का बांग्लादेश दौरा भी इस चुनाव को प्रभावित करेगा।

नरेंद्र मोदी 27 मार्च को ओराकंडी में मतुआ मंदिर जाएंगे। यह पहली बार है जब कोई भारतीय प्रधानमंत्री इस मंदिर का दौरा करेगा। मतुआ वोटरों की इस चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका है। उत्तर बंगाल की 51 और नदिया, उत्तर और दक्षिण 24 परगना की 70 से ज्यादा सीटों पर करीब पौने चार करोड़ लोग मतुआ समुदाय से जुड़े हैं। ये लोग पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से भागकर यहाँ आए हैं। विभाजन के बाद से मतुआ समुदाय को नागरिकता की समस्या से जूझना पड़ रहा है। पहले ये लोग सीपीएम को समर्थन देते थे, फिर इन्होंने ममता का साथ दिया।

ओराकंडी मतुआ समुदाय के गुरु हरिचंद ठाकुर और गुरुचंद ठाकुर का जन्मस्थल है। नागरिकता कानून के कारण बीजेपी को इस समुदाय का समर्थन हासिल हुआ है। इसे नेतृत्व देने वाले परिवार के भीतर भी दो गुट हैं। बीजेपी ने इसके बड़े तबके को अपने पक्ष में कर रखा है। राज्य में बीजेपी की ताकत बढ़ी है। इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का बढ़ता संगठन है। सन 2011 में यहाँ 580 शाखाएं लगती थीं, जिनकी संख्या 2017 में 1500 से ऊपर हो गई थी। बहरहाल बीजेपी ने इस दौरान दलितों और ओबीसी के बीच भी जगह बनाई है।

हरिभूमि में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment