Sunday, July 19, 2020

कांग्रेसी कश्ती में फिर दरार

कांग्रेस के छात्र संगठन एनएसयूआई की एक बैठक में दिए गए राहुल गांधी के बयान को दो तरह से पढ़ा गया है। एक यह कि जो जाना चाहता है, वह जा सकता है। दूसरा यह कि जिसे पार्टी छोड़कर जाना है वह जाएगा ही, आप लोगों को घबराना नहीं है। जब कोई बड़ा नेता पार्टी छोड़कर जाता है तो आप जैसे लोगों के लिए रास्ते खुलते हैं। बाद में कांग्रेस पार्टी की ओर से कहा गया कि बैठक में ऐसी कोई बात नहीं हुई थी, पर खबर तो पार्टी के भीतर से ही आई थी। राहुल गांधी की बात में विसंगति है। युवाओं के लिए रास्ते तभी खुलते हैं, जब बुजुर्ग लोग उनके लिए रास्ते खोलते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट का प्रसंग बता रहा है कि पार्टी के युवा नेता नाराज हैं। यह पार्टी इतनी दुविधा और संशय में इसके पहले कभी नहीं रही। दूसरी तरफ उसके विरोधी खंडहर की ईंटें हिलाने का मौका छोड़ नहीं रहे हैं।
पायलट मार्च में ही बगावत का झंडा बुलंद करना चाहते थे, पर तब उन्होंने खुद को रोक लिया था। अब सोनिया, राहुल और प्रियंका तीनों की तरफ से संकेत दिए गए हैं कि वे चाहते हैं कि सचिन पायलट पार्टी छोड़कर न जाएं, पर वे कोई बड़ा फैसला करने की स्थिति में भी नहीं हैं। यह स्थिति नेतृत्व की हताशा और पार्टी के अंतर्विरोधों को व्यक्त करती है। नेतृत्व का रसूख तभी तक होता है, जब वह लड़ने वाले दोनों पक्षों को या तो डपटकर या समझा कर शांत कर सके। फिलहाल वह असहाय नजर आता है।

राजस्थान में ऊँट जिस करवट भी बैठे, एक बात साफ है कि कांग्रेस के भीतर सब कुछ सामान्य नहीं है। पिछले छह साल में पार्टी में लगातार बिखराव है और खासतौर से 2019 के चुनाव परिणाम आने के बाद से यह बिखराव बढ़ गया है। पार्टी अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद से नैया डांवांडोल है। सोनिया गांधी को पार्टी ने अस्थायी तौर पर अध्यक्ष बना जरूर दिया है, पर कोई विकल्प दिखाई नहीं पड़ रहा है। एक तबका चाहता है कि राहुल की वापसी हो, पर कैसे? बगावत भी राहुल के करीबी युवा नेताओं की तरफ से हुई है।

कांग्रेस के सामने दो चुनौतियाँ हैं। पहली प्रभावशाली और रचनात्मक नेतृत्व की और दूसरे ऐसे वैचारिक दृष्टिकोण की, जो मतदाता को समझ में आए। पार्टी की दृढ़ धारणा है कि नेहरू-गांधी परिवार ही इसकी धुरी है। इस बात को इतने जोर-शोर से कहा जाता है कि वैकल्पिक अवधारणा पर कभी विचार ही नहीं होता। इस लिहाज से देखें, तो अब प्रियंका गांधी को अध्यक्ष बनाने का ही विकल्प बचा है। 2014 की पराजय के बाद कांग्रेस ने कर्नाटक में जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, तब अचानक उम्मीदें बँधीं थीं। वह गठबंधन 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए महागठबंधन का संदेश लेकर आया था। पार्टी के आंतरिक अंतर्विरोधों और दूसरे विरोधी दलों की महत्वाकांक्षाओं ने स्वप्न-कर्नाटक चकनाचूर कर दिया।

इसके बाद 2018 के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को चुनावी बढ़त मिली, लेकिन पार्टी ने अपने युवा नेतृत्व को परखने के बजाय मध्य प्रदेश और राजस्थान में पुराने नेताओं को कमान दी। वह एक महत्वपूर्ण मौका था, जब पार्टी जोखिम उठा सकती थी। जोखिम उठाया, तो महाराष्ट्र में जहाँ उसने बेमेल तिगड्डे गठबंधन में शामिल होना मंजूर किया। लगता नहीं कि पार्टी को इसका कोई लाभ मिलेगा। हरियाणा में पार्टी को आंतरिक टकराव का सामना करना पड़ा। भले ही वहाँ पार्टी को आंशिक सफलता मिली, पर वह केंद्रीय नेतृत्व की सफलता नहीं थी।

लम्बे अरसे तक सफलताओं से दूर रहना पार्टी की सेहत के लिए हानिकारक है। यह बात मध्य प्रदेश और राजस्थान दोनों जगह नजर आ रही है। संभव है कि राजस्थान का कोई समाधान पार्टी खोज ले, पर केंद्रीय स्तर पर समाधान नहीं हुआ, तो कुछ महीने बाद फिर कोई बगावत हो, तो आश्चर्य नहीं होगा। बेशक राजस्थान में अशोक गहलोत ज्यादा अनुभवी और मँजे हुए नेता हैं, पर क्या राहुल गांधी के लिए यही बात कही जा सकती है? प्रगति और प्रोन्नति का कोई एक पैमाना होना चाहिए। पिछले पंद्रह साल में कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी पार्टी का नेता बनाने का प्रयास करती रही है। उनके आसपास किसी दूसरे युवा नेता को उभरने का मौका दिया भी नहीं गया। क्या अशोक गहलोत राजस्थान तक ही सीमित रहने चाहिए?

सचिन पायलट को अपने करीब लाने का मौका भी राहुल गांधी ने ही दिया, पर सचिन ने भी अपनी मेहनत और रचनाशीलता का परिचय दिया। पार्टी की सफलता या विफलता इसके सामंती व्यवहार में है। जो सचिन पायलट से नाराज हैं, उनका कहना है कि पार्टी ने उन्हें बहुत कुछ दिया। सवाल है, क्यों दिया? और किसने दिया? बॉलीवुड की तरह वंश परंपरा देश के सभी राजनीतिक दलों में देखी जा सकती है, पर कांग्रेस पार्टी स्थापित खानदानों के बेटे-बेटियों का पार्टी भी है। राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने असम, अरुणाचल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में पार्टी के ईमानदार कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की, जिसके परिणाम देखने को मिले।

हम एक लोकतांत्रिक पार्टी की कल्पना ही नहीं कर रहे हैं। एक तरफ कहा जा रहा है कि कांग्रेस प्रगतिशील मूल्यों और विचारों की पार्टी है, वहीं उसकी सामंती संरचना कुछ और सोचने को मजबूर करती है। यहाँ से पार्टी के वैचारिक दृष्टिकोण का सवाल पैदा होता है। जिस पार्टी की संरचना में दोष हो, क्या उसका दृष्टिकोण स्वस्थ हो सकता है? विचारधारा केवल घोषणापत्रों में लिख देने भर से लागू नहीं होती। वह अपने ऊपर भी लागू करनी होती है। कांग्रेस पार्टी से निकलने वाले बड़े नेताओं के साथ-साथ प्रियंका चतुर्वेदी, टॉम वडक्कन और हाल में संजय झा जैसे प्रवक्ताओं का हटना भी कोई संकेत दे रहा है।

ये जनाधार वाले लोग नहीं हैं, पर जनता की समझ जरूर बनाते हैं। इन सबने किसी न किसी रूप में पार्टी के तौर-तरीकों को लेकर असंतोष व्यक्त किया था। हाल में हार्दिक पटेल को जिस तरह से गुजरात में कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया है, उससे भी विस्मय होता है। बहरहाल जब भी संकट आता है पार्टी के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि बड़ी सर्जरी की जरूरत है। इस सर्जरी का मतलब क्या है, कोई नहीं बताता।

हरिभूमि में साभार


1 comment:

  1. वैसे भी जब सारी जमीन पर जब समुन्दर हो गये हैं आक्टोपस के तो नदियाँ रहेंं ना रहें क्या फर्क पड़ना?

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