Sunday, August 17, 2014

ज़ीरो डिफैक्ट यानी मोदी इफैक्ट

नरेंद्र मोदी ने औपचारिक और पिटे-पिमटाए भाषणों की परम्परा तोड़ कर देश की जनता से जो सीधा संवाद किया है उसका केंद्रीय संदेश है कि राष्ट्रीय चरित्र बनाए बगैर देश नहीं बनता। इस लिहाज से 68 साल में यह पहला स्वतंत्रता दिवस संदेश है जो उसे संबोधित है जो देश का निर्माता है। इस भाषण के अंदाजे बयां की नेहरू, इंदिरा या अटल बिहारी के भाषणों से तुलना संभव है, पर अपने कंटेंट या कथ्य में यह एकदम नया और निराला है। देश बनाना है तो जनता बनाए और दुनिया से कहे कि भारत ही नहीं हम दुनिया का निर्माण करेंगे।

क्या कोई ऐसा वक्त आ सकता है, जब दुनिया के हर देश में किसी न किसी के हाथ में भारत में बनी चीज़ हो? असम्भव कुछ भी नहीं है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि सत्रहवीं-अठारहवीं सदी तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था था। नरेंद्र मोदी का नारा कम, मेक इन इंडिया सामयिक है, सम्भव भी है, पर आसान नहीं। इसे सम्भव बनाने के लिए हमें अपनी पूरी समझ को बदलना होगा। पर उसके पहले तय करना होगा कि मोदी सिर्फ फुलझड़ी छोड़ रहे हैं या कि बात में कुछ दम है। वे किसी नए भारत का आविष्कार नहीं उसका पुनर्निर्माण करने जा रहे हैं। इसके लिए जिस संस्थागत संरचना की हमें जरूरत है उसका ज़िक्र भी उन्होंने इस भाषण में किया है। बेशक इसकी बुनियाद में अनेक बातें उनकी सरकार की पूर्ववर्ती सरकार ने दी हैं, पर मनमोहन और मोदी में बुनियादी फर्क आत्मविश्वास का है। मोदी कर्ता के रूप में सामने आए हैं। मनमोहन घबराते हुए अपनी बात कहते थे।

मोदी का कहना है कि हम दुनिया के सबसे युवा आबादी वाले देश हैं। स्वाभाविक रूप से हमें दुनिया का सबसे उत्पादक देश होना चाहिए। पर युवा उत्पादक तब होगा, जब उसके पास हुनर होगा। सोलहवीं लोकसभा की शुरुआत राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के संयुक्त अधिवेशन में अभिभाषण से हुई है। राष्ट्रपति ने कहा कि नई सरकार 3-डी तकनीक से काम करेगी। 3-डी माने डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी और डिमांड। प्रणब मुखर्जी का कहना था कि इन तीनों का खयाल रखते हुए सरकार काम करेगी, तो आज से ठीक 60 महीने बाद हम विश्व में सीना ठोक कर कह सकेंगे कि हमने कर दिखाया है। उन्होंने कहा, भारत सबसे पुरानी सभ्यता है। हमें अपने युवाओं को अच्छी शिक्षा देनी होगी। मेरी सरकार युवाओं के विकास में विशेष कार्य करेगी। ऑन लाइन कोर्सेस के माध्यम से स्क‍िल डेवलपमेंट किया जायेगा, ताकि गांव-गांव तक वोकेशनल कोर्स पहुंच सकें। शि‍क्षण संस्थानों में गुणवत्ता बढ़ाने पर जोर दिया जायेगा। हम प्रत्येक राज्य में आईआईटी, आईआईएम स्थापित करेंगे।

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक अगले कुछ वर्षों में 12 से 15 लाख लोग हर साल जॉब मार्केट में आएंगे। इन्हें काम देने के लिए पर्याप्त संख्या में उद्योग होने चाहिए और उन उद्योगों के माल का बाज़ार भी होना चाहिए। इन नए उद्योगों के लिए जिस भारी पूँजी निवेश की जरूरत है वह कहाँ से आएगा? स्वदेशी और विदेशी पूँजी निवेश के लिए तीन चीजों की जरूरत होगी। एक, बुनियादी ढाँचा, दो, कानून-व्यवस्था और तीन श्रम कानूनों में बदलाव। देश में विनिर्माण क्षेत्र पर निवेश में एक बड़ी बाधा हमारे श्रम कानून हैं। निवेशक ऐसे उद्योग में पैसा लगाने को तैयार हैं, जिसमें कम श्रमिकों और ज्यादा से ज्यादा मशीनरी की जरूरत होती है। या ऐसे श्रमिक हों जो स्किल्ड हों और श्रमिक आंदोलन से दूर हों। आईटी सेक्टर में हमें सफलता मिली है। देश में आईटी, ऑटोमोबाइल्स और फार्मास्युटिकल्स में निवेश को बढ़ावा दिया गया। परिणाम सामने है।

दुनिया का सबसे बड़ा सॉफ्टवेयर उद्योग भारत में है, सबसे ज्यादा जेनेरिक दवाएं भारत में बनती हैं। भारत तकरीबन साढ़े पाँच लाख कारों और पन्द्रह लाख से ज्यादा मोटर साइकिलों का निर्यात हर साल करता है। पर हमें अभी ऐसे उद्योगों की जरूरत है, जो विनिर्माण से जुड़े हों। जिनमें बड़ी संख्या में अन-स्किल्ड श्रमिकों को भी रोज़गार मिले। हमें अपने टेक्सटाइल उद्योग के पुनर्जीवित करना चाहिए। इसके अलावा इलेक्ट्रिकल्स, इलेक्ट्रॉनिक्स, केमिकल्स, उपभोक्ता सामग्री, मशीनरी तमाम तरह के उद्योगों पर जाना होगा। पर्यटन, हैल्थकेयर और शिक्षा जैसे नए क्षेत्रों में गतिविधियों की अपार सम्भावनाएं हैं। हाल में सरकार ने रक्षा और रेलवे में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का फैसला किया है। हम रक्षा सामग्री के सबसे बड़े आयातक हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए।

पर स्थिति अपने आप नहीं बदलती। हम विदेशी निवेशक से कहेंगे कि हमारे देश में निर्माण करो और दुनिया में बेचो, तो उसके लिए भी कोई आकर्षण होना चाहिए। उसका सबसे बड़ा आकर्षण सस्ता श्रम, टैक्स में सुविधाएं और उचित माहौल होगा। क्या हम यह सब देने की स्थिति में हैं। जैसे ही विदेशी निवेश की बात होती है न जाने क्यों लोगों को ईस्ट इंडिया कम्पनी याद आती है। हमारे ऊपर गुलामी का भारी बोझ है। हमें हर वक्त गुलाम होने का डर बना रहता है। हमने नब्बे के दशक में अपनी अर्थ-व्यवस्था को खोलना शुरू किया। उसके दो दशक पहले चीन ने अपनी अर्थ-व्यवस्था को खोला था और आज वह काफी आगे जा चुका है। उसके पहले दक्षिण कोरिया ने यही काम किया था। जापान ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में अपनी अर्थ-व्यवस्था को पश्चिम से जोड़ा था। वहाँ शत-प्रतिशत साक्षरता कम से कम डेढ़ सौ साल पहले हासिल कर ली गई थी।

मोदी ने जो बातें कहीं हैं उनमें सामाजिक बदलाव की बातें भी हैं। स्त्रियों को मुख्यधारा में लाने, उनका सम्मान करने, सरकारी सेवकों को अपनी जिम्मेदारी समझने, साम्प्रदायिकता और जातिवाद से जुड़े मसलों को कम से कम एक दशक तक भूल जाने और केवल देश निर्माण पर ध्यान केंद्रित करने का सुझाव दिया है। संरचना के स्तर पर उन्होंने योजना आयोग को खत्म करने की घोषणा करके एक नए दौर की शुरुआत की है। संयोग से इसकी शुरुआत मनमोहन सरकार ने ही कर दी थी। इस मामले में एनडीए और यूपीए की आपसी सहमति है। सहमति के बिन्दुओं का विस्तार होना चाहिए। आम सहमतियों को नई राजनीति का आधार बनाने में ही समझदारी है। हमारी समझ बने ज़ीरो इफैक्ट, ज़ीरो डिफैक्ट। केवल उत्पादों में ही नहीं जीवन, समाज और संस्कृति में भी।

 हरिभूमि में प्रकाशित

हिंदू में केशव का कार्टून

आज के हिंदू में में पढ़ें दिव्य श्रीकांत का लेख 
Made in India 

इनका कहना है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली और समाज प्रणाली में कोई खराबी है, जिसे समझना चाहिए। इनके लेख का एक अंशः-

India-born scholars winning top prizes in mathematics is indeed great news. However, even this re-emphasises the point. Although their educational foundation might have been laid in India, they are, in essence, Western-backed scholars who were exceptional but whose talent was nurtured to the fullest in the West and not in their home country. They might be ‘India-born’, but are not or ‘India-nurtured’ success stories.
The Indian educational system, from kindergarten to university, focusses on rote learning. Although the Central Board of Secondary Education has come up with a number of measures to alleviate the anxiety of students, this is surely not the case with the different Board systems followed by the different States. For example, in Tamil Nadu, there are virtually no application-oriented questions in the State Board examination, a life-altering event for many students that determines which college they would get into. All questions, barring the multiple-choice questions for just 25 marks out of 200, in the Mathematics paper are from the prescribed text book: with no numbers changed, no names altered. It is actually possible to gain grace marks if a math problem is asked outside of the textbook or if the numbers are changed in the problem: it is conveniently considered as ‘out of syllabus’!

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