Saturday, January 26, 2013

राजनीति का चिंताहरण दौर


भारतीय राजनीति की डोर तमाम क्षेत्रीय, जातीय. सामुदायिक, साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत सामंती पहचानों के हाथ में है। और देश के दो बड़े राष्ट्रीय दलों की डोर दो परिवारों के हाथों में है। एक है नेहरू-गांधी परिवार और दूसरा संघ परिवार। ये दोनों परिवार इन्हें जोड़कर रखते हैं और राजनेता इनसे जुड़कर रहने में ही समझदारी समझते हैं। मौका लगने पर दोनों ही एक-दूसरे को उसके परिवार की नसीहतें देते हैं। जैसे राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने पर भाजपा ने वंशवाद को निशाना बनाया और जवाब में कांग्रेस ने संघ की लानत-मलामत कर दी। जयपुर चिंतन शिविर में उपाध्यक्ष का औपचारिक पद हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने भावुक हृदय से मर्मस्पर्शी भाषण दिया। इसके पहले सोनिया गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को सलाह दी थी कि समय की ज़रूरतों को देखते हुए वे आत्ममंथन करें। नगाड़ों और पटाखों के साथ राहुल का स्वागत हो रहा था। पर उसके पहले गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के एक वक्तव्य ने विमर्श की दिशा बदल दी। इस हफ्ते बीजेपी के अध्यक्ष का चुनाव भी तय था। चुनाव के ठीक पहले गडकरी जी से जुड़ी कम्पनियों में आयकर की तफतीश शुरू हो गई। इसकी पटकथा भी किसी ने कहीं लिखी थी। इन दोनों घटनाओं का असर एक साथ पड़ा। गडकरी जी की अध्यक्षता चली गई। राजनाथ सिंह पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में उभर कर आए हैं। पर न तो राहुल के पदारोहण का जश्न मुकम्मल हुआ और न गडकरी के पराभव से भाजपा को कोई बड़ा धक्का लगा।

ऐसा लगता है कि पिछले छह-सात महीने में कांग्रेस की स्थिति सुधरी है। पिछले जून-जुलाई में लगता था कि राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस पार्टी अपने प्रत्याशी को जिता नहीं पाएगी। जिताना तो दूर अपना प्रत्याशी घोषित नहीं कर पाएगी। ममता बनर्जी और मुलायम सिंह के अचानक हस्तक्षेप से कांग्रेस बैकफुट पर जाना पड़ा। इसी बिन्दु पर कांग्रेस का रुख बदला। तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन टूटने की भूमिका बन गई। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। कांग्रेस ने केवल ममता का साथ नहीं छोड़ा, अपने आर्थिक एजेंडा को पूरा करने का काम भी शुरू कर दिया। संसद के शीत सत्र में सरकार ने एफडीआई पर वोट हासिल करने के बाद बैंकिंग कानून संशोधन विधेयक को भी पास करा लिया। अभी पेंशन और इंश्योरेंस कानून संशोधन विधेयक पड़े हैं। इंश्योरेंस कानून अब बजट सत्र में ही पास कराने की कोशिश होगी। भूमि-अधिग्रहण कानून भी उसी सत्र में आएगा। अजा, जजा कर्मचारियों को प्रोन्नति में आरक्षण का विधेयक राजनीतिक कारणों से अटका है। पर कांग्रेस इसे ज्यादा समय तक टाल नहीं पाएगी।
नवम्बर में रामलीला मैदान में रैली के साथ कांग्रेस ने आक्रामक राजनीति की शुरूआत की। जयपुर चिंतन शिविर लगने के पहले ही पार्टी ने राहुल गांधी को लोकसभा चुनाव की समन्वय समिति का प्रमुख बना दिया था। औपचारिक रूप से वे पार्टी में दूसरे नम्बर के नेता हैं, पर अब उन्हें कुछ परीक्षाओं में पास होना है। लोकसभा चुनाव 2014 में होंगे तो उससे पहले कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, दिल्ली, राजस्थान और त्रिपुरा विधानसभाओं के चुनाव हो चुके होंगे। छत्तीसगढ़ विधान सभा का कार्यकाल जनवरी 2014 तक, सिक्किम का मई और आंध्र प्रदेश तथा ओडिशा की विधान सभाओं का कार्यकाल जून 2014 तक है। सम्भव है लोकसभा के साथ विधान सभा चुनाव भी वहाँ हों। यानी कि पूरे देश के राजनीतिक समुद्र-मंथन का दौर है। तमाम जातीय-धार्मिक और सामाजिक समीकरण बनने-बिगड़ने का समय। राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस के लिए परेशानियाँ हैं तो कर्नाटक में भाजपा के लिए संकट है। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस दो सेल्फ गोल कर चुकी है। तेलंगाना मामले को पहले उठाकर और फिर छोड़कर उसने अपने लिए मुसीबत मोल ले ली है। वाईएसआर रेड्डी के निधन के बाद उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस का उदय, जो कांग्रेस के गले की हड्डी बन गया है।
अगले लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन बनेंगे या नहीं यह देखना-समझना रोचक होगा। इस बार महत्वपूर्ण चुनाव बाद के गठबंधन होंगे। यानी मैदान खुला रहेगा। क्षेत्रीय छत्रपों का अनुमान है कि अगली बार प्रधानमंत्री का पद ओपन है। पर अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं जिससे लगे कि कांग्रेस या भाजपा की मदद के बगैर दिल्ली की गद्दी पर कोई सरकार बनेगी। उधर कांग्रेस पिछले आठ साल से गठबंधन सरकार चला रही है, पर वह एकदलीय शासन के व्यामोह से बाहर नहीं है। यूपीए का उसका मिकेनिज़्म कमज़ोर है। यूपीए के दोनों गठबंधनों में सहयोगी दलों को शिकायत रही। यही शिकायत प्रधानमंत्री को रही कि हम गठबंधन के दबाव में गलतियाँ करते रहे। कांग्रेस अभी तक गठबंधन की मनोदशा में नहीं है। सन 1991 से 1996 के बीच पीवी नरसिंह राव ने कांग्रेस को नेहरू-गांधी परिवार की छाया से बाहर निकाल लिया था। पर उनके पास भी भविष्य की योजना नहीं थी। अस्तित्व के उस द्वंद्व का निष्कर्ष था नेहरू-गांधी परिवार की वापसी। पर पार्टी ने उस दौर के भित्ति-लेख को नहीं पढ़ा। उसे गठबंधन की राजनीति समझ में नहीं आती थी। एचडी देवेगौडा और इन्द्रजीत गुजराल की सरकारों को बाहर से समर्थन देने के बावजूद दो साल के भीतर कांग्रेस ने उन्हें ज़मीन सुँघा दी थी। इसके बाद 1998 और 1999 के चुनावों में मिली पराजय ने उसके आत्मविश्वास को ज़मीन पर पहुँचा दिया। कांग्रेस के उस पराजय-बोध ने भाजपा के भीतर दंभ पैदा कर दिया। तब अरुण जेटली ने कहा था, अब कांग्रेस खत्म हो रही है, हम पूरी तरह उसकी जगह ले लेंगे। बीजेपी 2004 का चुनाव जीत जाती तो शायद ऐसा होता। कांग्रेस पार्टी 2004 का चुनाव जीतने के हौसलों से नहीं उतरी थी। वस्तुतः वह जीती भी नहीं थी। भाजपा के अतिशय आत्मविश्वास और तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में गठबंधन सहयोगी को चुनने की गलती के कारण एनडीए सत्ता से बाहर हो गया। कांग्रेस की स्थिति 2009 में बेहतर हुई, जब उसे 206 सीटों पर विजय मिली। पर वह इस मौके का लाभ नहीं उठा पाई। सोनिया गांधी ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की मदद से आर्थिक विकास के लाभ को सामाजिक कल्याण में लगाने का राजनीतिक कार्यक्रम शुरू भी किया। पर यह समय पहले अमेरिका के और फिर यूरो ज़ोन के आर्थिक संकट की भेंट चढ़ गया।
फिलहाल कुछ राजनीतिक प्रश्न सामने हैं। क्या इस साल लोकसभा चुनाव होंगे?  पिछले साल मुलायम सिंह और ममता बनर्जी का कयास था कि चुनाव समय से पहले होंगे। दूसरा सवाल है कि क्या नरेन्द्र मोदी बीजेपी की ओर से राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करेंगे? सवाल यह भी है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर वापस आएगी? पिछले साल के मध्य में हालात जिस कदर बिगड़े थे, उतने खराब आज नहीं हैं। रुपए की कीमत सुधरी है, विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ा है, और विकास दर में सुधार के संकेत हैं। चौथा सवाल कि क्या कांग्रेस की कैश ट्रांसफर योजना गेम चेंजर साबित होगी। राहुल गांधी का कहना है कि कैश ट्रांसफर की हमारी योजना ठीक तरीके से लागू हो जाए तो अगले दो चुनाव हम जीतेंगे। यह बात उन्होंने उन 51 जिलों के कांग्रेस अध्यक्षों से कही थी, जहाँ कैश ट्रांसफर कार्यक्रम एक जनवरी से शुरू करने की योजना थी। पर योजना अभी उन सभी जिलों में शुरू नहीं हो पाई है, जहाँ शुरू होनी थी। इसमें तनिक सी गड़बड़ी उल्टे गले पड़ सकती है। अन्ना हजारे आंदोलन और दिल्ली के गैंगरेप का जनता के मन पर गहरा असर है। अभी तक न तो लोकपाल कानून पास हुआ है, न ह्विसिल ब्लोवर कानून और समय से सेवाएं देने और शिकायतों के निस्तारण का कानून बना है। राष्ट्रीय राजनीति का पैराडाइम बदल रहा है और डोर थामने एक नया वर्ग उभर कर आया है। यह है शहरी मध्य वर्ग। यह बात अगले लोकसभा चुनाव में साबित होगी।

1 comment:

  1. अंततः यह निष्कर्ष निकलता है कि आने वाले दिनों में शहर की राजनीति गाँव की राजनीति से अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगी।
    यदि हम यह याद रखें कि देश में बड़े स्तर का शहरीकरण हुआ है, तो यह बात कुछ अजीब नहीं लगती कि नेताओं को शहरों पर
    अधिक ध्यान देना चाहिए। अचम्भा इस बात पर लगता है, कि इतना जानते हुए भी कांग्रेस आपके और हमारे पैसों को गावों में
    एटीएम के द्वारा बांटने की व्यवस्था कर रही है । और क्या कहूं?! जय हो !

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