Monday, January 21, 2013

राहुल के पदारोहण से आगे नहीं गया जयपुर चिंतन


राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनने मात्र से कांग्रेस का पुनरोदय नहीं हो जाएगा, पर इतना ज़रूर नज़र आता है कि कांग्रेस अपनी खोई ज़मीन को फिर से हासिल करने की कोशिश कर रही है। राहुल चाहेंगे तो वे उन सवालों को सम्बोधित करेंगे जो आज प्रासंगिक हैं। राजनीति में इस बात का महत्व होता है कि कौन जनता के सामने अपनी इच्छा व्यक्त करता है। फिलहाल कांग्रेस के अलावा दूसरी कोई पार्टी दिल्ली में सरकार बनाने की इच्छा व्यक्त नहीं कर रहीं है। सम्भव है कल यह स्थिति न रहे, पर आज बीजेपी यह काम करती नज़र नहीं आती। बीजेपी ने राहुल गांधी के उपाध्यक्ष बनाए जाने पर वंशानुगत नेतृत्व का नाम लेकर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वह नकारात्मक है। कांग्रेस यदि वंशानुगत नेतृत्व चाहती है तो यह उसका मामला है। आप स्वयं को उससे बेहतर साबित करें। अलबत्ता कांग्रेस पार्टी ने जयपुर में वह सब नहीं किया, जिसका इरादा ज़ाहिर किया गया था। अभी तक ऐसा नहीं लगता कि यह पार्टी बदलते समय को समझने की कोशिश कर रही है। लगता है कि जयपुर शिविर केवल राहुल गांधी को स्थापित करने के वास्ते लगाया गया था। कांग्रेस को गठबंधन की राजनीति और देश के लिए उपयुक्त आर्थिक और प्रशासनिक नीतियों की ज़रूरत है। साथ ही उन नीतियों को जनता तक ठीक से पहुँचाने की ज़रूरत भी है। फिलहाल लगता है कि कांग्रेस विचार-विमर्श से भाग रही है। उसके मंत्री फेसबुक और सोशल मीडिया को नकारात्मक रूप में देख रहे हैं, जबकि सोशल मीडिया उन्हें मौका दे रहा है कि अपनी बातों को जनता के बीच ले जाएं। पर इतना ज़रूर ध्यान रखें कि देश के नागरिक और उनके कार्यकर्ता में फर्क है। नागरिक जैकारा नहीं लगाता। वह सवाल करता है। सवालों के जवाब जो ठीक से देगा, वह सफल होगा। 
भारतीय राजनीति के लिए हाल के दो-तीन साल युगांतरकारी साबित हुए हैं। सन 2011 में अन्ना हजारे आंदोलन और हाल में दिल्ली गैंग रेप के बाद मध्य वर्ग की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित थी। पिछले दो दशक में राष्ट्रीय राजनीति पर किसी एक पार्टी का निर्णायक दबदबा नहीं है, जैसा 1971 तक था। बेशक 1977 में जनता पार्टी ने और फिर 1980 और 1984 में कांग्रेस ने निर्णायक जीत हासिल की, पर राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति देश-काल के अनुरूप स्वयं को परिभाषित नहीं कर पाई थी। और शायद आज भी ठीक से परिभाषित नहीं है। एक ओर देश तेज आर्थिक विकास के दरवाज़े पर खड़ा है, वहीं सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक संस्थाएं उस तेजी को सम्हालने के लिए तैयार नज़र नहीं आती हैं। 1980 के दशक में नेशनल फ्रंट की सरकार आने के बाद मंडल और कमंडल की राजनीति का उदय हुआ, जिसकी छाया आज भी बनी हुई है। कम से कम प्रादेशिक राजनीति पर उसका वर्चस्व है। पिछले दो दशक में ही कांग्रेस के बरक्स राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ है, जिसका सामाजिक आधार कांग्रेस के आधार से कुछ संकीर्ण और अपेक्षाकृत छोटे इलाके में है, पर वह दूसरे नम्बर की राष्ट्रीय पार्टी है। तीसरे नम्बर की न तो कोई पार्टी है और न कोई गठबंधन है। दूसरी ओर आधा दर्जन से कुछ ज्यादा क्षेत्रीय पार्टियों की उपस्थिति ने राष्ट्रीय राजनीति में असमंजस पैदा कर दिया है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही इस असमंजस को दूर करने के रास्ते खोज कर रहे हैं। गुजरात में सफलता के बाद बीजेपी में उत्साह का माहौल है, पर संगठनात्मक और वैचारिक स्तर पर वहाँ कोई बड़ा विचार-मंथन नज़र नहीं आ रहा है। अलबत्ता पिछले छह महीने में कांग्रेस ने स्वयं को संगठित करने की कोशिश की है। जयपुर चिंतन शिविर इसका उदाहरण है।

कांग्रेस का यह शिविर किसी नए विचार को पेश कर पाया या नहीं, इसे समझने में कुछ समय लगेगा। अलबत्ता पार्टी नेतृत्व का रूपांतरण हो रहा है। राहुल गांधी की सदारत में पार्टी पुराने संगठन, पुराने नारों और पुराने तौर-तरीकों को नए अंदाज़ में आजमाने की कोशिश करती नज़र आती है। 4 नवम्बर को दिल्ली के रामलीला मैदान में अपनी संगठनात्मक शक्ति का प्रदर्शन करने और 9 नवंबर को सूरजकुंड में पार्टी की संवाद बैठक के बाद सोनिया गांधी ने 2014 के चुनाव के लिए समन्वय समिति बनाने का संकेत किया और फिर राहुल गांधी को समन्वय समिति का प्रमुख बनाकर एक औपचारिकता को पूरा कर दिया। जयपुर शिविर इसी दिशा में अगला कदम है। प्रश्न है कि क्या पार्टी किसी गहरे विचार-मंथन की प्रक्रिया में है या यह नेतृत्व का बेटन बदलने की औपचारिकता मात्र है? इसके जवाब आने वाला समय देगा। पिछले पाँच दशकों में कांग्रेस का यह चौथा चिंतन शिविर है। इसके पहले के सभी शिविर किसी न किसी संकट के कारण आयोजित हुए थे। 1974 में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को समझने की कोशिश थी। सन 2003 के शिमला शिविर का फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में देखा जा सकता है। अलबत्ता यह कहना मुश्किल है कि उस शिविर से कांग्रेस ने किसी सुविचारित रणनीति को तैयार किया। कांग्रेस ने पचमढ़ी में तय किया था कि उसे गठबंधन के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए। शिमला में कांग्रेस को गठबंधन का महत्व समझ में आया।

गठबंधन की राजनीति आज भी कांग्रेस के लिए पहेली है। यूपीए के दोनों अनुभव इस ओर इशारा कर रहे हैं।लगता नहीं कि कांग्रेस चुनाव के पहले गठबंधन की योजना बनाकर चलेगी। कांग्रेस की सबसे करीबी पार्टी इस वक्त एनसीपी है, जो कांग्रेस से टूट कर बनी है। तृणमूल कांग्रेस दूसरी सी पार्टी है। पिछले साल कांग्रेस ने लम्बे अरसे तक ममता बनर्जी के दबाव में रहकर गठबंधन चलाया। पर कांग्रेस जिन आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाना चाहती थी, उन्हें लेकर तृणमूल के साथ चल पाना सम्भव नहीं था। पार्टी के पारम्परिक वोट बैंक में दलित और मुसलमान शामिल रहे हैं और सवर्ण हिन्दू भी। इस राजनीति को नया मुहावरा किस तरह दिया जाए? जयपुर में सोनिया गांधी ने अपने पारम्परिक वोट बैंक में सेंध लगने की बात को स्वीकार करते हुए कहा, कांग्रेस इकलौती पार्टी है जो सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास को एक सिक्के के दो पहलू मानती है। देश की सबसे अहम पार्टी होने के बावजूद हमें समझना होगा कि चुनौती बढ़ रही है और हमारे वोट बैंक में सेंध लगी है। कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती है मिडिल क्लास की नाराज़गी। इसपर सोनिया गांधी कहती हैं, जनता सार्वजनिक जीवन में ऊँचे स्तर पर जो भ्रष्टाचार देखती है और उसे रोज़ाना जिस भ्रष्टाचार से जूझना पड़ता है उससे तंग आ चुकी है। हम तेज़ी से बढ़ रहे पढ़े-लिखे मिडिल क्लास का राजनीति से मोह भंग नहीं होने देंगे। वस्तुतः इस वर्ग ने राजनीति में पहले से ज्यादा दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया है, क्योंकि जैसे गरीबों को राजनीति की सहरा है वैसे ही मध्य वर्ग को भी नज़र आता है कि राजनीति ही उन रास्तों को तैयार करेगी, जो हमें तेज आर्थिक गतिविधियों की ओर ले जाएंगे।

पिछले छह महीनों में कांग्रेस ने तेजी से करवट ली है। राष्ट्रपति चुनाव के पहले लगता था कि पार्टी अपने प्रत्याशी को जिता ही नहीं पाएगी। जिताना तो दूर की बात है अपना प्रत्याशी घोषित ही नहीं कर पाएगी। ऐन मौके पर ममता बनर्जी ने ऐसे हालात पैदा किए कि कांग्रेस ने आनन-फानन प्रणव मुखर्जी का नाम घोषित कर दिया। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके खुद को अलोकप्रिय बनाया। कांग्रेस ने दो तीर एक साथ चलाए। एक तो ममता को किनारे किया, दूसरे एकताबद्ध होकर भविष्य की रणनीति तैयार की। आर्थिक सुधार के एजेंडा पर वापस आने का लाभ यह मिला कि आर्थिक संकेतकों में सुधार हुआ है। डीज़ल के दाम, गैस सिलेंडरों की कैपिंग और रेल भाड़े में अभी से बढ़त्तरी करके सरकार ने अपने बजट की पेशबंदी कर ली है। सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती राजकोषीय घाटे की है, जिसे लक्ष्य के नीचे रख पाना सम्भव नहीं होगा। दूसरी ओर मुद्रास्फीति की दर में गिरावट आने लगी है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें गिरीं तो उसका लाभ भी मिलेगा।

राजनीति में केवल एजेंडा ही काम नहीं करता, बल्कि काम करने का अंदाज़ और मिजाज भी माने रखता है। कांग्रेस जब बैकफुट पर गई तब उसे दबाने वालों ने दबाना शुरू किया। अब वह फ्रंटफुट पर है। आभासी दुनिया में स्वयं को चुस्त-दुरुस्त दिखाना पड़ता है। इसलिए राजनीति में रियलिटी के साथ पर्सेप्शन भी चाहिए। जयपुर शिविर विचार-मंथन के साथ-साथ कार्यकर्ता का मनोबल बढ़ाने का काम भी करेगा। राहुल गांधी के पास अपने कार्यकर्ताओं को तैयार करने के लिए डेढ़ साल हैं। डेढ़ साल तब, जब सरकार बजट-सत्र को आसानी से पार करे। क्या यह आसान काम है? सरकार की कैश ट्रांसफर की योजना शुरू हो गई है, पर अपेक्षाकृत छोटे इलाके में। पार्टी की नज़र इस साल के विधान सभा चुनावों पर भी है। खासतौर से मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली के चुनाव। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस के लिए चुनौती है। राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है, पर उसकी लोकप्रियता में कमी आई है। इस साल की चुनाव सूची में चौथा महत्वपूर्ण राज्य कर्नाटक है। वहाँ येदुरप्पा फैक्टर बीजेपी के लिए भारी पड़ेगा, पर क्या वहाँ कांग्रेस अपने लिए ज़मीन तैयार कर पाएगी? ऐसे तमाम सवाल उठेंगे। बीजेपी के खेमे का संकट कांग्रेस के लिए अच्छा है, पर क्षेत्रीय छत्रपों का उदय अच्छा नहीं है। विडम्बना है कि पार्टी फिलहाल इन्हीं कुछ छत्रपों के सहारे है।

सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

हिन्दू में केशव का कार्टून

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून


सतीश आचार्य का कार्टून



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