Monday, January 28, 2013

हेडली से ज्यादा हमें उसके सरपरस्तों की ज़रूरत है


अक्सर कुछ रहस्य कभी नहीं खुलते। कुछ में संकेत मिल जाता है कि वास्तव में हुआ क्या था। और कुछ में पूरी कहानी सामने होती, पर उसे साबित किया नहीं जा सकता। 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों के साथ ऐसा ही हुआ। पाकिस्तान के लश्करे तैयबा का इस मामले में हाथ होने और उसके कर्ता-धर्ताओं के नाम सामने हैं। भारत में अजमल कसाब को स्पष्ट प्रमाणों के आधार पर फाँसी दी जा चुकी है। और अब अमेरिकी अदालत ने पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक डेविड हेडली को 35 साल की सजा सुनाकर उन आरोपों की पुष्टि कर दी है। बावज़ूद इसके हम पाकिस्तान सरकार के सामने साबित नहीं कर सकते हैं कि हमलों के सूत्रधार आपके देश में बाइज़्ज़त खुलेआम घूम रहे हैं। अमेरिकी अदालत में डेविड हेडली को सजा सुनाने वाले डिस्ट्रिक्ट जज ने अभियोजन पक्ष द्वारा हेडली के लिए हल्की सजा की माँग किए जाने पर अपनी नाखुशी जाहिर की थी। सजा में पैरोल का कोई प्रावधान नहीं है और दोषी को कम से कम 85 फीसदी सजा पूरी करनी होगी। 52 वर्षीय हेडली जब जेल से बाहर आएगा तब उसकी उम्र 80 से 87 साल के बीच होगी। अमेरिकी अभियोजक उसके लिए मौत या उम्र कैद की सजा भी माँग सकते थे, पर हेडली के साथ एक समझौते के तहत उन्होंने यह सजा नहीं माँगी।
जज ने सजा सुनाते हुए कहा हेडली आतंकवादी हैं। उसने अपराध को अंजाम दिया, अपराध में सहयोग किया और इस सहयोग के लिए इनाम भी पाया। जज ने कहा, इस सजा से आतंकवादी रुकेंगे नहीं। वे इन सब बातों की परवाह नहीं करते। मुझे हेडली की इस बात में कोई विश्वास नहीं होता जब वह यह कहता है कि वह अब बदल गया। पर 35 साल की सजा सही सजा नहीं है। इसके पहले शिकागो की अदालत ने इसी महीने की 18 तारीख को मुंबई हमले में शामिल हेडली के सहयोगी पाकिस्तानी मूल के कनाडाई नागरिक 52 वर्षीय तहव्वुर राना को लश्कर-ए-तैयबा को साजो-सामान मुहैया कराने और डेनमार्क के अखबार पर हमले के लिए षड्यंत्र में शामिल होने के लिए 14 साल की सजा सुनाई गई थी। पर राना को मुम्बई मामले में शामिल होने के लिए सजा नहीं दी गई। इन दोनों मामलों का दुखद पहलू यह है कि हमारे देश में हुए अपराध के लिए हम इन अपराधियों पर मुकदमा नहीं चला सकते। हालांकि सरकार कह रही है कि हम हेडली और राना के प्रत्यर्पण की कोशिश करेंगे, पर लगता नहीं कि प्रत्यर्पण होगा। अमेरिकी सरकार के अभियोजन विभाग ने हैडली से सौदा किया था कि यदि वह महत्वपूर्ण जानकारियां देगा तो उसे भारत के हवाले नहीं किया जाएगा। राना के मामले में अभियोजन पक्ष ने 30 साल की सजा माँगी थी, पर अदालत ने कहा, सुनवाई के दौरान मिली जानकारियों और उपलब्ध कराई गई सामग्री को पढ़ने पर पता लगता है कि राना एक बुद्धिमान व्यक्ति है, जो लोगों का मददगार भी है। यह समझना मुश्किल है कि इस तरह का व्यक्ति कैसे इतनी गहरी साजिश में शामिल हो गया। दोनों मामलों में सजा देने वाले जज एक हैं शिकागो के डिस्ट्रिक्ट जज हैरी डी लेनिनवेबर। हेडली और तहव्वुर राना के भारत प्रत्यर्पण में 1997 में अमरीका से की गई संधि भी एक अड़चन है। यह संधि उस व्यक्ति की सुपुर्दगी की इजाजत नहीं देती जो पहले ही उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा चुका हो अथवा बरी  हो चुका हो। प्रत्यर्पण संधि के तहत राना को इसलिए सौंपा नहीं जा सकता, क्योंकि मुम्बई हमलों के लिए उसे  दोषी नहीं ठहराया गया है। हेडली इस दलील के साथ अपना बचाव करेगा कि उसे दोषी ठहराया जा चुका है और वह सजा पा रहा है।
भारत, अमेरिका और पाकिस्तान की सरकारों के पास इस प्रकरण की कुछ ऐसी जानकारियाँ ज़रूर होंगी, जो शायद कभी बाहर नहीं आएंगी। इस मामले की जाँच भारत की राष्ट्रीय जाँच एजेंसी एनआईए को मिली होती और यह मुकदमा भारत में चला होता तो सजाएं यही नहीं होतीं, इसमें दो राय नहीं। सजाओं से ज्यादा महत्वपूर्ण वे तथ्य हैं जिनसे पता लगता कि मुम्बई में मारे गए निर्दोष लोगों की हत्या क्यों की गई। जो बातें बार-बार सामने आ रहीं हैं, उनका इशारा है कि मान लिया गया कि डेनमार्क के कार्टूनिस्ट के लिए पूरे डेनमार्क के नागरिक ज़िम्मेदार हैं या कश्मीर में सैनिक कार्रवाई के लिए पूरे भारत की जनता ज़िम्मेदार है। इसलिए उसकी हत्या करो। अमेरिकी सरकार ने एनआईए को एक हफ्ते के लिए एनआईए को अमेरिका बुलाकर और डेविड हेडली से पूछताछ का मौका देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। पर इंसाफ का एक सवाल अनुत्तरित रह गया। अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में खून की होली की साज़िश करने वाले किसी भारतीय व्यक्ति पर भारत में ही मुकदमा चलाकर हल्की सजा देकर काम चला लिया जाता तो क्या अमेरिकी सरकार उसे मंज़ूर कर लेती? बहरहाल भारत और अमेरिका में अंतर है। यह अंतर आर्थिक और राजनीतिक है। समय आने पर भारत भी बड़ी ताकत होगा, पर आज की वास्तविकता को हमें स्वीकार करना चाहिए।
हेडली-प्रकरण का एक दूसरा पहलू भी महत्वपूर्ण है। जैसा कि अमेरिकी अटॉर्नी गैरी ए शपीरो ने कहा है कि तफतीश कितनी भी मुक्कमल हो और तथ्य कितने भी सामने हों, किसी भी मामले में जब तक गवाह नहीं होते आगे बढ़ना मुश्किल होता है। डेविड हेडली को ज्यादा बड़ी सजा दिलाने के बारे में सोचा जाता तो वह तमाम उन बातों को अपनी तरफ से नहीं बताता जो उसने बताईं। दरअसल वह डबलक्रॉस था। यानी उसने पाकिस्तानी आतंकी ग्रुपों के लिए काम किया और अमेरिकी खुफिया एजेंसियों के लिए भी। इस प्रकार के सूत्र पूरी तस्वीर को सामने लाने में मददगार होते हैं। उसने जो सूचनाएं दीं, शायद वे उन तमाम आतंकी हमलों को रोकने में मददगार साबित हुईं हों, जो सम्भव थे। तमाम लोगों को पकड़ने, अनेक मॉड्यूलों को ध्वस्त करने और लश्करे तैयबा को आतंकवादी संगठन घओषित करने में उसकी सूचनाओं ने मदद दी होगी। पर यह मदद मूलतः अमेरिका को हासिल हुई। संयोग है कि इस मामले में वह भी हमारी तरह पीड़ित देश है। उसके नागरिकों की मौत भी मुम्बई हत्याकांड में हुई थी। पीड़ित होने के बावज़ूद अमेरिका ने हेडली को हल्की सजा दिलाई। इसका मतलब यह कि उसके विचार से आतंक-विरोध लड़ाई के व्यापक परिप्रेक्ष्य में यही उचित था।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के राष्ट्र के नाम सम्बोधन में पाकिस्तान का प्रकरण केवल एक बार आया। वह भी हाल में नियंत्रण रेखा पर पैदा हुए तनाव के संदर्भ में। यहाँ भी राष्ट्रपति ने पाकिस्तान को नहीं, पाकिस्तान के राज्येतर गिरोहों (नॉन स्टेट एक्टर्स) का नाम लिया। इसका मतलब यह कि भारत सरकार, पाकिस्तान की इस बात से सहमत है कि वहाँ ऐसी ताकतें सक्रिय हैं, जिनपर सरकार का नियंत्रण नहीं है। या जिनसे सरकार डरती है। पाकिस्तानी राजनीति अभी विकसित हो रही है। वहाँ की राज्य-सम्बद्ध संस्थाएं जैसे सेना और न्यायपालिका को भी आतंक-विरोधी मुहिम से सहमत होना होगा। हाल में पाकिस्तानी सेना की ग्रीन-बुक में इस बात को स्वीकार किया गया है कि देश का सबसे बड़ा दुश्मन भीतर बैठा है। यह नई बात है। अभी तक पाकिस्तान में भारत को दुश्मन नम्बर एक कहा जाता था। भविष्य में क्या होगा, कहना मुश्किल है। पर सच यह है कि नियंत्रण रेखा पर तनाव की खबर मीडिया की पहलकदमी तक सीमित रह गई। यदि उसके पीछे बड़े कारण थे, तो दोनों ओर के डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस की बैठक के बाद तनाव खत्म नहीं होता। हमें फिलहाल हेडली की ज़रूरत केवल उसे सजा देने के लिए ही नहीं है। हमें उससे तमाम उन जानकारियों की ज़रूरत है, जिनके कारण मुम्बई हादसा हुआ था या भविष्य में ऐसे हादसे हो सकते हैं। फिलहाल हमें उन तथ्यों को खुली किताब की तरह दुनिया के सामने रखना चाहिए, जिन्हें मानने से पाकिस्तान की न्यायपालिका इनकार कर रही है। इतिहास के तमाम सच कई बार सामने नहीं आते और कई बार किसी मौके पर सामने आते हैं। फिलहाल हमारी दिलचस्पी पाकिस्तान के उस आतंकी गठबंधन को ध्वस्त करने में है, जो दक्षिण एशिया की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है।  


सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

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