Monday, December 31, 2012

इस आंदोलन ने भी हमें कुछ नया दिया है


दिल्ली में जो जनांदोलन इस वक्त चल रहा है उसे थोड़ी सी दिशा दे दी जाए तो उसकी भूमिका सकारात्मक हो सकती है। पर इस दिशा के माने क्या हैं? दिशा के माने राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, लैंगिक और तमाम रूप और रंगत में देखे जा सकते हैं। इसलिए कहना मुश्किल है कि यह सकारात्मक भूमिका दो रोज में दिखाई पड़ेगी। पर इतना ज़रूर है कि जनता के इस रोष ने व्यवस्था को एक ताकतवर संदेश दिया है। पर सब कुछ सत्ता और व्यवस्था को ही नहीं करना है। उसे गुस्से के साथ-साथ हमारी सहमतियों, असहमतियों, सलाहों, सिफारिशों और निर्देशों की ज़रूरत भी है। पर सलाह-मशविरा देने वाली जनता भी तो हमें बनना होगा। इस आंदोलन में भी काफी बातें सकारात्मक थीं, जैसे कि किसी आंदोलन में होती हैं। ज़रूरत ऐसे आंदोलनों और सामूहिक भागीदारियों की हैं। यह भागीदारी जितनी बढ़ेगी, उतना अच्छा। फिलहाल इस आंदोलन ने भारतीय राज्य और जनता की दूरी को परिभाषित किया है। हमें  लगता है कि यह दूरी बढ़ी है, जबकि वह घटी है। प्रधानमंत्री और देश की सबसे ताकतवर नेता रात के तीन बजे कड़कड़ाती ठंड में एक गरीब लड़की के शव को लाते समय हवाई अड्डे पर मौज़ूद रहे, यह इस बात को बताता है कि नेतृत्व जनता की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं चाहता। पर यह सिर्फ मनोकामना है, इस मनोकामना को व्यावहारिक रूप में लागू करने वाली क्रिया-पद्धति इसकी आदी नहीं है। 

साल का आखिरी दिन पश्चाताप का हो या आने वाली उम्मीदों का? एक ज़माने में जब अखबार ब्लैक एंड ह्वाइट होते थे, साल के आखिरी दिन और अगले साल के पहले दिन के लिए पहले सफे पर छापने के लिए दो फोटो चुने जाते थे। अक्सर सूरज की फोटो छपती थी। एक सूर्यास्त की और दूसरी सूर्योदय की। इन तस्वीरों के आगे पीछे किसी पक्षी, किसी मीनार, किसी पेड़ या किसी नाव, नदी, पहाड़ की छवि होती थी। इसके साथ होता था कवितानुमा कैप्शन जो वक्त की निराशा और आशा दोनों को व्यक्त करने की कोशिश करता था। बहरहाल वक्त बदल गया। जीवन शैली बदल गई। दूरदर्शन के साथ बैठकर नए साल का इंतज़ार के दिन गए। अब लोग सनी लियोनी या कैटरीना कैफ के डांस के साथ पिछले साल को विदा देना चाहते हैं। जिनकी हैसियत इतनी नहीं है वे अपने शहर या कस्बे की लियोनी खोजते हैं। बहरहाल साल का अंत होते-होते भारतीय क्रिकेट टीम ने पाकिस्तान की टीम को टी-20 के दूसरे मैच में हराकर हमारी निराशा को कम किया, वहीं सिंगापुर के अस्पताल में उस अनाम लड़की ने दम तोड़ दिया, जिसकी एक-एक साँस के साथ यह देश जुड़ चुका था। देश का मीडिया उसे अनाम नहीं रहने देना चाहता था, इसलिए उसने उसे निर्भया, अमानत, दामिनी और न जाने कितने नाम दिए। और उसके नाम पर कितने टीवी शो निकल गए।

बलात्कार, भ्रष्टाचार, घोटालों और गरीबी-भुखमरी से लेकर खेल के मैदान की विफलताओं और वहाँ के घोटालों पर जब हम विचार करने बैठते हैं तो निष्कर्ष निकलता है कि हमें नए नेतृत्व, नए विचारों, नई संस्कृति, नई टीम और सब कुछ नया चाहिए। जैसे देश को नया नेतृत्व चाहिए वैसे ही टीम इंडिया को भी चाहिए नया खून, नई फसल। सचिन तेन्दुलकर के सहारे कब तक जीतेंगे, धोनी कब तक सफल होते रहेंगे और भुवनेश्वर कुमार जैसों को आगे आने से कब तक रोकेंगे? विफलताएं हमें पसंद नहीं, पर अतीत में देखें तो पाएंगे कि विफलताएं हमारी सफलता की सीढ़ियाँ बनाती हैं। हम बदलाव तभी चाहते हैं जब हम वर्तमान से विफल होने लगते हैं। इस लिहाज से हमारी निराशाएं उन अपेक्षाओं से उपजी है जो हमें अपने आप से हैं। इनके अलग-अलग स्तर हैं। एक है हम यानी जनता के रूप में हम। दूसरे हैं नेता और तीसरा स्तर है हमारी व्यवस्था। जो अक्सर बनी बनाई मिलती है और प्रायः बनानी पड़ती है। पर इन सब में हमारी ज़िम्मेदारी है। हमारी व्यवस्था विफल है तो उसमें हमारा हाथ भी है। बहरहाल।

पिछले हफ्ते दिल्ली शहर ने जबर्दस्त जनांदोलन देखा। इस आंदोलन में लड़कियों की भागीदारी अभूतपूर्व थी। अपनी व्यवस्था के प्रति गहरी नाराज़गी नौजवानों के मन में है। हालांकि अब सवाल यह उठेंगे कि उस लड़की को सिंगापुर भेजने की ज़रूरत क्या थी? जब भारतीय डॉक्टरों ने उसे नाज़ुक मौके पर मरने नहीं दिया तब उसे बाहर भेजने की ज़रूरत किसने और क्यों महसूस की? इस आंदोलन के संदर्भ में देखें तो आपको अपनी व्यवस्था के तमाम दोष समझ में आने लगेंगे। यह स्वयंस्फूर्त आंदोलन था। किसी संगठन ने आह्वान नहीं किया था। और इसी कारण इसका स्वरूप इतना विविध हो गया। इसमें धुर वामपंथियों से लेकर धुर साम्प्रदायिक दक्षिणपंथियों का प्रवेश हो गया। जैसा कि जनांदोलनों में खतरा होता है, नेतृत्व और विचार की एकरूपता और विसंगति फौरन नज़र आती है। सब उसे अपनी ओर खींचने लगते हैं। यह नाराज़गी का प्रदर्शन था। किसी के पास कोई योजना नहीं थी और न कोई माँग थी जिसे पूरा किया जाता। इसके पहले हमने अन्ना हजारे के आंदोलन को देखा था। वह भी तकरीबन ऐसा ही आंदोलन था। उसमें भी जनता का रोष था। उस आंदोलन की परिणति उसकी विफलता में नहीं हुई, बल्कि जनता के गुस्से को और बढ़ाने में हुई। बलात्कार के खिलाफ आंदोलन को अन्ना आंदोलन या रामलीला मैदान आंदोलन पर चली लाठियों की प्रतिक्रिया मानना चाहिए।

जनता नाराज़ग क्यों है? यह समझना शासन का काम है। दिल्ली आधुनिक भारत की राज़धानी ज़रूर है, पर इस शहर और इसके चारों ओर लिपटा एनसीआर गहरी अराजकता का शिकार है। दिल्ली गैंगरेप के अपराधियों को कानून पालन करने की आदत नहीं थी। उन्हें पता था कि पुलिस की कीमत होती है, जो उन डायरियों में दर्ज होती है जो हर बस, हर व्यावसायिक वाहन में होती है। व्यवस्था के साथ बलात्कार तो हर रोज़, हर वक्त होता है। जो पुलिस व्यवस्था इतने छोटे स्तर पर इतने खुलेआम अपराध को नहीं रोक सकती, वह बड़े स्तर पर अपराध कैसे रोकेगी? इसका मतलब यह नहीं कि इसके लिए पुलिस दोषी है। पुलिस के लोग भी उतनी ही जिम्मेदारी से काम करते हैं, जितनी जिम्मेदारी से देश के दूसरे लोग काम करते हैं, पर उसकी कार्यशैली को अब बदला जाना चाहिए। और भीतर जाकर बदलना चाहिए। पुलिस सुधार का काम तमाम अदालती आदेशों के बावज़ूद रुका पड़ा है। क्यों?

दिल्ली का यह आंदोलन सरकार को किस कदर हिला गया इसका पता प्रधानमंत्री के टीवी संदेश से मिलता है, जिसमें सम्पादन की छोटी सी खराबी बड़ी खबर बन गई। प्रधानमंत्री के संदेशों के प्रसारण की एक व्यवस्था है। यदि वह काम करती रहती तो यह गड़बड़ी नहीं हो पाती। पर प्रधानमंत्री के आसपास सक्रिय मंडली ने उस व्यवस्था को तोड़कर संदेश प्रसारित करा दिया। इसी हड़बड़ी में सरकार ने मीडिया के नाम एक सलाह ज़ारी कर दी। इसी हड़बड़ी में दिल्ली पुलिस के जवान की मौत को लेकर विवाद खड़ा हो गया। और शायद इसी हड़बड़ी में बलात्कार की शिकार लड़की को सिंगापुर भेजने का फैसला हो गया। इतने बड़े देश की व्यवस्था को हड़बड़ी से बचना चाहिए। और कांग्रेस के सांसद अभिजित मुखर्जी का टेंटेड, डेंटेड बयान भी इसी हड़बड़ी को दर्शाता है। सबको अपने नम्बर बढ़ाने की चिंता है। और लगभग ऐसी ही बात बंगाल सीपीएम के एक नेता ने ममता बनर्जी से पूछी है। फेसबुक और ट्विटर पर एक से एक भयानक वक्तव्य पढ़ने को मिलते हैं। लगता है पूरे देश की समझ गड़बड़ हो गई है। और यहीं से हमें अपने आप को ठीक करने का मौका मिलता है। व्यवस्था खुल रही है, संचार के माध्यमों पर पाबंदियों की कोशिशें निरर्थक साबित हो रहीं हैं। वे बातें खुलकर कही जा रहीं हैं, जो पहले भी कही जाती थीं, पर मीडिया के गेटकीपर जिन्हें रोक लेते थे। ये दरवाज़े टूट रहे हैं। कोई नहीं जानता कि नई व्यवस्था किस तरह बनेगी, पर वह अराजक नहीं होगी। इसलिए इन फोरमों और मंचों का इस्तेमाल समझदारी के साथ संवाद को आगे बढ़ाने का होना चाहिए। और कड़वाहटों को लेकर परेशान होने की ज़रूरत भी नहीं है।

हमारे पास बदलाव का रास्ता क्या है? एक है विमर्श और दूसरा है व्यवस्था। हाल में गुजरात के चुनाव परिणाम आए। नरेन्द्र मोदी के आप व्यक्तिगत रूप से प्रशंसक हों या न हों, सांविधानिक व्यवस्था के अंतर्गत हुए चुनाव में गुजरात की जनता ने उन्हें जिताकर भेजा है। नरेन्द्र मोदी को हम जिन अपराधों का दोषी मानते हैं उसकी सजा दो तरीके से ही दी जा सकती है। एक न्याय व्यवस्था द्वारा और दूसरे चुनाव व्यवस्था द्वारा। दोनों के फैसलों की पद्धति अलग-अलग है, दोनों में समय लगता है। मोदी क्या दिल्ली की राजनीति में शामिल होंगे? इसका जवाब भी इस साल जनवरी के महीने में मिल जाएगा। आने वाले साल देश के आठ राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और दिल्ली खासतौर से महत्वपूर्ण हैं। कांग्रेस के भावी नेता राहुल गांधी की परीक्षा भी इस दौरान होगी। और उन मसलों पर चर्चाएं बार-बार देखने और सुनने को मिलेंगी, जिन्हें हम महत्वपूर्ण मानते हैं। जनता का दबाव बढ़ता जा रहा है। इस दौरान भारतीय क्रिकेट टीम से लेकर भाजपा और कांग्रेस तक हमें नए नेतृत्व को देखने का मौका भी मिलेगा। संयोग से अगले कुछ महीनों के भीतर पाकिस्तान में भी चुनाव होने जा रहे हैं। वहाँ भी नए नेतृत्व की सुगबुगाहट है। पिछले गुरुवार को बेनज़ीर भुट्टो की बरसी के मौके पर उनके बेटे बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने अपनी पहली राजनीतिक रैली को सम्बेधित किया। 24 साल के बिलावल दक्षिण एशिया की राजनीति में सामिल होने वाले सबसे युवा नेता हैं। पाकिस्तान के चुनाव में इस बार इमरान खान भी पूरे जोशो-खरोश के साथ मैदान में हैं। वहाँ भी एक नए दौर की शुरूआत हो रही है। वैसे ही जैसे हमें नए मुहावरों, नेताओं और व्यवस्था की तलाश है। सी एक्सप्रेस में प्रकाशित


दिल्ली गैंगरेप ने एक शर्मनाक भारत का पर्दाफाश किया। सतीश आचार्य का कार्टून
Safety of Women 2013 Delhi gangrape Indian editorial cartoon Manjul
मंजुल का कार्टून

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

2 comments:

  1. प्रभावी लेखन,
    जारी रहें,
    बधाई !!

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  2. समाज का चलन उल्टा है
    सच से इसे बैर है।
    आप सच कहेंगे तो ज़माना आपका दुश्मन हो जाएगा
    जड़ों को पानी देकर यह शाख़ें कतरता है

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