Friday, September 24, 2010

अयोध्या

कॉमनवैल्थ खेल के समांतर अयोध्या का मसला काफी रोचक हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला टाल दिया है। इससे कुछ लोगों ने राहत की साँस ली है और कुछ ने कहा है कि इतने साल बाद फैसले की घड़ी आने पर दो-चार दिन टाल देने से कोई समझौता हो जाएगा क्या? बहरहाल आज के सभी अखबारों ने इस विषय पर सम्पादकीय लिखने की ज़रूरत नहीं समझी है। कहा जा सकता है कि वे लिखते भी तो क्या लिखते। 


अंग्रेजी में हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस ने इस विषय पर टिप्पणी की है। टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने नहीं की। हिन्दी में जागरण, अमर उजाला और हिन्दुस्तान ने टिप्पणी की है। भास्कर और नवभारत टाइम्स ने नहीं की। संयोग से तीनों का शीर्षक एक ही है। ऐसा शीर्षक को रोचक बनाने के लिए या आसानी से उपलब्ध एक शीर्षक का इस्तेमाल करने के लिए किया गया है। 




एक रुका हुआ फैसला
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ की ओर से 24 सितंबर को आने वाले फैसले को लेकर जैसा तनावपूर्ण माहौल बना दिया गया था उसे देखते हुए उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप तात्कालिक राहत देने वाला है। वैसे तो उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट के निर्णय सुनाने पर एक सप्ताह की ही रोक लगाई है, लेकिन देखना यह होगा कि वह सुलह-समझौते की अर्जी पर 28 सितंबर को क्या फैसला देता है? उसका फैसला कुछ भी हो, फिलहाल अयोध्या विवाद का समाधान आपसी सहमति से निकलने के आसार नजर नहीं आते। सुलह का मौका देने की गुहार लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले याचिकाकर्ता को छोड़ दिया जाए तो न तो वादी-प्रतिवादी आपसी सहमति के रास्ते पर चलने को तैयार दिखते हैं और न ही प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संगठन। राष्ट्रहित में इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि अयोध्या विवाद को आपसी बातचीत के माध्यम से हल किया जाए, लेकिन यह निराशाजनक है कि इसके लिए किसी भी स्तर पर ठोस प्रयास नहीं हो रहे हैं। क्या यह उम्मीद की जाए कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप ने जो अवसर प्रदान किया है उसका उपयोग करने के लिए वे लोग आगे आएंगे जो अयोध्या विवाद का समाधान परस्पर सहमति से खोजने के लिए उपयुक्त माहौल बनाने में सहायक हो सकते हैं? यदि दोनों पक्षों के धर्माचार्य और प्रमुख राजनीतिक दल इस दिशा में कदम उठाएं तो अभीष्ट की पूर्ति हो सकती है। यह सही है कि अतीत में ऐसे जो प्रयास हुए वे नाकाम रहे, लेकिन आखिर और अधिक निष्ठा के साथ एक और कोशिश करने में क्या हर्ज है? यह विचित्र है कि जो लोग ऐसी कोशिश कर सकते हैं उनमें से ही अनेक 24 सितंबर के फैसले को लेकर गैर जिम्मेदाराना बयान दे रहे हैं। ऐसे राजनेता एक ओर शांति-सद्भाव बनाए रखने का आग्रह कर रहे हैं और दूसरी ओर अपने बयानों के जरिये ऐसा माहौल रच रहे जैसे 24 सितंबर को आसमान टूटने जा रहा हो। परिणाम यह हुआ कि देश के कुछ हिस्सों में दहशत पैदा हो गई। कुछ राज्यों में तो स्कूलों में छुट्टी करने की तैयारी कर ली गई थी। इसमें दो राय नहीं कि पूरा देश अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का अभिमत जानने को उत्सुक है, लेकिन धीरे-धीरे इस उत्सुकता में आशंका घुल गई। इसके लिए चाहे जो जिम्मेदार हो, 24 सितंबर के फैसले को लेकर जैसे माहौल का निर्माणकिया गया उससे एक परिपक्व राष्ट्र की हमारी छवि को धक्का लगा है। यह आश्चर्यजनक है कि जब यह स्पष्ट था कि उच्च न्यायालय का फैसला अंतिम नहीं होगा तब भी आम जनता के बीच यह संदेश क्यों जाने दिया गया कि अयोध्या मामले में कोई निर्णायक फैसला होने जा रहा है। जिन परिस्थितियों में अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का फैसला रुका वे सुरक्षा तैयारियों को विस्तार देने वाली हैं। चूंकि उच्च न्यायालय की ओर से फैसला सुनाने वाले तीन में से एक न्यायाधीश एक अक्टूबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं इसलिए उच्चतम न्यायालय का यह हस्तक्षेप फैसला टलने का कारण भी बन सकता है। यदि अयोध्या विवाद पर सुलह की कोशिश भी नहीं होती और उच्च न्यायालय का फैसला भी लंबे समय के लिए टलता है तो आम जनता खुद को ठगा हुआ महसूस कर सकती है।













एक रुका हुआ फैसला

इस मामले में बातचीत के जरिये समाधान की कोशिशों को आखिर तक अवसर देना उचित है।

जिस राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद की कानूनी सुनवाई कभी पूरी न होने की बातें कही जाती रही हैं, उसकी सुनवाई पूरी होने के बाद निर्णय की तारीख से ठीक एक दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मसले को अदालत से बाहर सुलझाने के प्रयासों को अवसर देने की याचिका को मानकर 28 सितंबर की तारीख देना कई लोगों को थोड़ा अटपटा लग सकता है, पर बातचीत के जरिये समाधान तलाशने की कोशिशों को आखिर तक अवसर देना उचित है। अब अगर 28 सितंबर को याचिकाकर्ता रमेशचंद्र तिवारी की अर्जी को अदालत सुनवाई के बाद खारिज कर देती है, तो हाई कोर्ट 29 को फैसला दे सकता है। अदालती कामकाज में ‘सकता है’ या ‘होगा’ जैसे पदों का कोई मतलब नहीं होता, पर सुप्रीम कोर्ट को अदालती फैसले के बाहर हो रहे बीच-बचाव के गंभीर प्रयासों की जानकारी देकर ही तिवारी या उनके वकील अपनी अर्जी आगे बढ़ा सकते हैं। ऊपर से देखने पर ऐसी कोशिशें दिखाई नहीं दे रहीं, पर विहिप से जुड़े संतों के ठिकानों, सैयद कासिम रसूल इलियास जैसे पुराने मध्यस्थों की सक्रियता और कैबिनेट सचिवालय में एक पुराने अनुभवी अधिकारी की वापसी को कई लोग इन्हीं कोशिशों के रूप में देखते हैं। और भले ही छह दिसंबर, 1992 की घटना संघ परिवार की तैयारियों, कल्याण सिंह की सांविधानिक जिम्मेदारी न निभाने और टकराव की राजनीति के प्रबल होने के चलते घटी, पर उससे पहले आपसी बातचीत से समस्या का हल निकालने के कई गंभीर प्रयास हुए थे। 17-18 साल की घटनाओं ने सबको अपनी राय और तरीका बदलने पर भी मजबूर किया है। राजनीतिक दलों के नजरिये, राजनीति और शासन नीति को छोड़ भी दें, तो जो लोग कल तक अदालत की कार्यवाही कभी पूरी न होने की बात कह रहे थे, वही सुबूत जुटाने और गवाही देने में जुटे तथा मामले को फैसले तक ले आए। दोनों पक्षों में उग्रता घटी है। सभी अदालत के फैसले को मानने की बात करने लगे हैं। और फैसलेका वक्त आते-आते तक सभी डरने भी लगे हैं। ऐसे में साथ रहने, साथ जीवन गुजारने, अपनी-अपनी आस्था पर टिके रहकर भी दूसरे की आस्था का सम्मान करने के भाव से दोनों पक्ष बातचीत से मसले को सुलझा लें, तो इससे बेहतर और क्या होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अभी कोई निर्णय नहीं दिया है, पर जो लोग उसके यहां इस विकल्प की मांग के साथ गए हैं, उन्हें अपनी विश्वसनीयता दिखाने के साथ सक्रियता का इतिहास और वर्तमान भी जाहिर करना चाहिए। अदालतें सिर्फ आदेश देने का काम करती नहीं है। उसकी मंशा न्याय करने और न्याय का एहसास कराने की भी होती है।



No more than a breather
Administrations at the Centre and in the States that have their hands full with daunting law and order challenges have obtained a breather from the Supreme Court's order deferring the Allahabad High Court's verdict on the Ayodhya title suits. Among the issues to be decided in the suits are: whether the Babri Masjid was built on the site of a Hindu temple after demolishing it and what the legal effect of such an action is; and whether Muslims had offered prayers from time immemorial at the Babri Masjid and if Hindu idols were placed inside. Some of the suits date back to 1950 and after consolidation in 1989, four have survived and it was in these four that judgments were to be pronounced today. The plea before the Supreme Court was that, given the implications of the impending high court decision for communal harmony and in the circumstances in which the Central and the State security forces were overstretched in dealing with the Maoists, the situation in Kashmir and the security for the Commonwealth Games, the parties should be given one more chance to work out a settlement through negotiations. This unusual last minute plea on a matter that has defied a negotiated settlement for over 60 years, and more particularly since it flared up in the 1990s, hinges on the hope that the parties would change their attitude and work towards an agreement when the Supreme Court takes up the matter. If that hope fails to materialise, the relief for the administrations would be short lived. It was with some reluctance that the Supreme Court bench decided to order the high court to defer its verdict for five days, with one of the two judges inclined to dismiss the petition.


The Babri Masjid-Ramjanmabhoomi issue would no longer seem to inflame passions to the extent that it did in the 1990s, although the court verdict could still have a significant impact on communal harmony. No one would quarrel with the desirability of a fair and equitable negotiated settlement if only that were possible. Yet, if the judicial process itself were to be held hostage to fears of disturbances, it would amount to giving rioters a veto over the law-abiding and would have disturbing implications for the rule of law. The country has come a long way since the turbulent 1990s, and the lessons of that period have hopefully been learnt — the appeals for calm from all parts of the political spectrum are a good augury. Reasonable people on both sides of the communal divide should have no problems in accepting the judicial verdict whichever way it goes, and it would in any case be open to appeal. The nation as a whole should face the Allahabad High Court verdict squarely and demonstrate its commitment to the rule of law, with issues being resolved in judicial and other institutions of the state rather than on the streets.

Calls for calm
The broad based hope for a mature reaction to the Babri verdict, whwenever it may come

An eighteen-year wait is about to get a little longer. The Supreme Court has deferred pronouncing on whether or not the Allahabad high court’s judgment on the Babri title suit should be deferred till September 28 — which means the lower court will not be delivering its verdict on September 24, as planned. It might mean the judgment has been pushed back by just a week, but could well lead to an even longer wait. However, this is unlikely to stem the interventions that have urged everyone to keep their cool.
Indeed, that has been the most remarkable feature of this period of anticipation, the way people and organisations from across the political and ideological spectrum have called for calm, regardless of the judgment’s content. Not just from the people who really need to, like Union Home Minister P. Chidambaram. Or from chief ministers responsible for law and order, like Gujarat CM Narendra Modi, who warned, in his characteristically high-pitched style, that “enemies of the country are in search of opportunities to disturb its social fabric.” No, the interesting point is how near universal is the fear that a judgment that displeases one group or another will toss us back into an earlier and damaging politics, how pervasive the concern that the irresponsible will seize control of the situation and use it, violently, to mar the India story. Various individual members of the All-India Muslim Personal Law Board have gone on the record as urging “patience”, regardless of outcome. Intriguingly, in some sensitive parts of Karnataka, the police have brought together Muslim community leaders and local VHP and RSS heads to jointly urge that the situation stay under control. Even the Shiv Sena’s Uddhav Thackeray called a party meeting to announce that “no Shiv Sainik will indulge in violence”, and got on the phone to Maharashtra Chief Minister Ashok Chavan, apparently to coordinate security for Ganesh Chaturthi processions.
That’s from the most direct stakeholders in the process. But all of us, in truth, have a stake in ensuring that no self-destructive spiral of rancorous bitterness is embarked upon. That’s evident in the fervent, broad-based expressions of hope that any reactions to the verdict, whenever it comes, are mature and forward-looking — expressions visible online, in conversations, in paid advertisements, from Hindi film stars discussing their movies. The final judgment may have been postponed, but the demands for calm will not go away.




रामचन्द्र गुहा का लेख
आज के हिन्दुस्तान में प्रकाशित रामचन्द्र गुहा का यह लेख भी ध्यान देने योग्य है।




मिल्ली गज़ट में राजिन्दर सच्चर का यह लेख भी पढ़ें

4 comments:

  1. आदरणीय जोशी जी,
    एक बेहतरीन पोस्ट के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
    वैसे मुझे नहीं लगता कि इस मुद्दे पर कोई फैसला आपाएगा या कहें तो एक रुका हुआ फैसला शायद और लम्बे समय तक रुका ही रहे(शायद रुकवा दिया जाये).आज के 'हिदुस्तान' में रामचंद्र गुहा जी ने अपने लेख में एक छात्र की पत्रकारों से टिप्पणी को भी स्थान दिया है जिस के अनुसार विवादित भूमि पर एक अस्पताल बना दिया जाना चाहिए. बाबरी मस्जिद विध्वंस से पहले कुछ समय तक कम्युनिस्ट पार्टियों ने इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने के लिए आन्दोलन भी चलाया था.
    इस विवाद का एकमात्र हल यही है कि न मस्जिद बने न मंदिर बल्कि राष्ट्र हित में आपसी सहमति से अस्पताल या कुछ और बना दिया जाये जो सामान रूप से सभी के लिए उपयोगी हो.

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  2. जोशी जी,
    कल के 'हिंदुस्तान' में १९३५ का पंडित नेहरु का तुर्किस्तान के सम्बन्ध में जो लेख छपा है उसका भी मर्म यही है कि विवादित दोनों धर्म स्थलों के बजाय राष्ट्रीय महत्त्व का जनोपयोगी कोई कार्य वहां होना चाहिए.

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  3. वैसे यह सारा झगड़ा धंधेबाजों का है. जो वास्तविक राम-भक्त हैं,उनके लिए भगवन राम किसी धर्म,स्थान या देश की सीमा से बहुत ऊपर हैं.ऐसे मामलों में न्यायलय का फैसला भी बेमानी है,क्योंकि कैसा भी निर्णय आ जाए ,एक पक्ष मानने को तैयार नहीं होगा.....राजनीति जो चमकानी है !

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  4. अतीत को भुलाना आसान नहीं है। सहेज कर रखे पुराने एलबम से एक फोटो गुम हो जाए तो टीस होती है। फिर, यहां तो राम की जन्‍मस्‍थली और बाबर की विरासत का मामला है। वहां अस्‍पताल बना दें या विशाल दरवाजा, तात्‍कालिक तौर पर समाधान जरूर नजर आएगा, लेकिन दोनों संप्रदायों के मन में फांस रह ही जाएगी। श्रीराम और बाबर बार-बार उनकी स्‍मृति में लौटेंगे और उनकी धरोहर की गैर मौजूदगी सालती रहेगी।

    बेहतर होगा कि दोनों समुदायों को साथ लेकर सरकार अपने कोष से वहां मंदिर व मस्जिद दोनों बनवाए और राष्‍ट्रीय स्‍मारक के रूप में उसकी हिफाजत करे। और, सही बात है.. यह काम न्‍यायालय नहीं कर सकता, सरकार को ही इच्‍छाशक्ति व संकल्‍प दिखाना होगा।

    इतिहास से हम नजर नहीं चुरा सकते, उससे भाग नहीं सकते, पीछा नही छुड़ा सकते। इतिहास का सामना करना होता है।

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