Sunday, October 30, 2022

पीओके बनेगा बीजेपी का चुनावी-मुद्दा


रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने गुरुवार को जम्मू-कश्मीर में हुए एक कार्यक्रम में कहा कि हमारी यात्रा उत्तर की दिशा में जारी है। हम पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को भूले नहीं हैं, बल्कि एक दिन उसे वापस हासिल करके रहेंगे। अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद से भारत सरकार कश्मीर में स्थितियों को सामान्य बनाने की दिशा में मुस्तैदी से काम कर रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी हुई थी। रक्षामंत्री के इस बयान में लोकसभा के अगले चुनाव के एजेंडा को भी पढ़ा जा सकता है। राम मंदिर, नागरिकता कानून, ट्रिपल तलाक, हिजाब, सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों और डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर वगैरह के साथ कश्मीर और राष्ट्रीय सुरक्षा बड़े मुद्दे बनेंगे।  

परिवार पर निशाना

बीजेपी के कश्मीर-प्रसंग को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बरक्स भी देखा जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर मसले को अपने तरीके से सुलझाने का प्रयास किया था, जिसके कारण यह मामला काफी पेचीदा हो गया। अब बीजेपी नेहरू की कश्मीर नीति की भी आलोचना कर रही है। गत 10 अक्तूबर को नरेंद्र मोदी ने आणंद की एक रैली में नाम न लेते हुए नेहरू पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद सरदार पटेल ने रियासतों के विलय के सभी मुद्दों को हल कर दिया था लेकिन कश्मीर का जिम्मा 'एक अन्य व्यक्ति' के पास था, इसीलिए वह अनसुलझा रह गया। मोदी ने कहा कि मैं कश्मीर का मुद्दा इसलिए हल कर पाया, क्योंकि मैं सरदार पटेल के नक्शे कदम पर चलता हूँ।

राजनीतिक संदेश

प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री और गृहमंत्री के बयानों को जोड़कर पढ़ें, तो मसले का राजनीतिक संदेश भी स्पष्ट हो जाता है। रक्षामंत्री ने ‘शौर्य दिवस’ कार्यक्रम में कहा कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में सर्वांगीण विकास का लक्ष्य पीओके और गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचने के बाद ही पूरा होगा। हमने जम्मू कश्मीर और लद्दाख में विकास की अपनी यात्रा अभी शुरू की है। जब हम गिलगित और बल्तिस्तान तक पहुंच जाएंगे तो हमारा लक्ष्य पूरा हो जाएगा। भारतीय सेना 27 अक्तूबर 1947 को श्रीनगर पहुंचने की घटना की याद में हर साल ‘शौर्य दिवस’ मनाती है। पिछले दो साल से केंद्र सरकार ने 22 अक्तूबर को जम्मू-कश्मीर में काला दिन मनाने की शुरुआत भी की है। 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर हमला बोला था। पाकिस्तान सरकार हर साल 5 फरवरी को कश्मीर एकजुटता दिवस मनाती है। यह चलन 2004 से शुरू हुआ है। उस दिन देशभर में छुट्टी रहती है। इसका उद्देश्य जनता के मन में कश्मीर के सवाल को सुलगाए रखना है।

राष्ट्रीय संकल्प

भारत सरकार ने ‘काला दिन’ मनाने की घोषणा करके एक तरह से जवाबी कार्रवाई की थी। पाकिस्तानी लुटेरों ने कश्मीर में भारी लूटमार मचाई थी, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे। इस हमले से घबराकर कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्तूबर 1947 को भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे, जिसके बाद भारत ने अपने सेना कश्मीर भेजी थी। तथाकथित आजाद कश्मीर सरकार, जो पाकिस्तान की प्रत्यक्ष सहायता तथा अपेक्षा से स्थापित हुई, आक्रामक के रूप में पश्चिमी तथा उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों में कब्जा जमाए बैठी है। भारत ने यह मामला 1 जनवरी, 1948 को ही संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत उठाया था। यह मसला वैश्विक राजनीति की भेंट चढ़ गया। संरा सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव लागू क्यों नहीं हुए, उसकी अलग कहानी है। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की वैध संधि की पाकिस्तान अनदेखी करता है। भारत के नजरिए से केवल पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) ही नहीं, गिलगित-बल्तिस्तान भी जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है। राजनाथ सिंह ने गिलगित-बल्तिस्तान तक क सवाल को उठाया है, जिसकी अनदेखी होती रही।  

370 की वापसी

तीन साल पहले 5 अगस्त, 2019 को भारत ने कश्मीर पर अनुच्छेद 370 और 35 को निष्प्रभावी करके लम्बे समय से चले आ रहे एक अवरोध को समाप्त कर दिया था। राज्य का पुनर्गठन भी हुआ है और लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है। पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला अब भी अधूरा है। कश्मीर हमारे देश का अटूट अंग है, तो हमें उस हिस्से को भी वापस लेने की कोशिश करनी चाहिए, जो पाकिस्तान के कब्जे में है। क्या यह सम्भव है? कैसे हो सकता है यह काम? गृह मंत्री अमित शाह ने नवम्बर 2019 में एक कार्यक्रम में कहा कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे सकते हैं और देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में यही भावना है। साथ ही यह भी कहा कि इस सिलसिले में सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट में घोषित नहीं किया जा सकता। ये सब देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं, जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए, जैसे अनुच्छेद 370 को हटाया गया। इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा है। इसके पहले संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए भी उन्होंने कहा था कि पीओके के लिए हम जान दे सकते हैं।

Friday, October 28, 2022

भारतीय सांस्कृतिक संपदा की वापसी

ब्रिटिश ताज में कोहिनूर

पिछले साल सितंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका के दौरे के बाद स्वदेश लौटते समय अपने साथ 157 प्राचीन कलाकृतियाँ और पुरा-वस्तुएँ लेकर आए। इन कलाकृतियों में सांस्कृतिक पुरावशेष, हिंदू, बौद्ध, जैन धर्मों से संबंधित प्रतिमाएं वगैरह शामिल थीं, जिन्हें अमेरिका ने उन्हें सौंपा। इनमें 10वीं शताब्दी की डेढ़ मीटर की पत्थर पर नक्काशी से लेकर 12वीं शताब्दी की उत्कृष्ट 8.5 सेंटीमीटर ऊँची नटराज की कांस्य-प्रतिमा शामिल थी।

एक मोटा अनुमान है कि भारत की लाखों वस्तुएँ अलग-अलग देशों में मौजूद हैं। इनमें बड़ी संख्या में छोटी-मोटी चीजें हैं, पर ऐसी वस्तुओं की संख्या भी हजारों में है, जो सैकड़ों-हजारों साल पुरानी हैं। इन्हें आक्रमणकारियों ने लूटा या चोरी करके या तस्करी के सहारे बाहर ले जाया गया। अब भारत सरकार अपनी इस संपदा को वापस, लाने के लिए प्रयत्नशील है।

यह केवल भारत की संपदा से जुड़ा मामला नहीं है। साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की इस लूट का प्रतिकार उन सभी देशों की पुरा-संपदा की वापसी से जुड़ा है, जिन्हें अतीत में लूटा गया। पर यह लूट सबसे ज्यादा भारत में हुई है। दुनिया के काफी देश अब इन्हें वापस करने को तैयार भी हैं, पर कुछ देशों में अब भी हिचक है। मसलन ब्रिटेन में एक तबके का कहना है कि हम सब लौटा देंगे, तो हमारे संग्रहालय खाली हो जाएंगे।

हमारा दायित्व

पीएम मोदी ने गत 27 फरवरी को मन की बात में देश की प्राचीन मूर्तियों का जिक्र किया था। उन्होंने कहा कि देश एक-से-बढ़कर एक कलाकृतियाँ बनती रहीं। इनके पीछे श्रद्धा थी, सामर्थ्य और कौशल भी था। इन प्रतिमाओं को वापस लाना, भारत माँ के प्रति हमारा दायित्व है। मोदी सरकार आने के बाद से यह प्रक्रिया तेज हुई है। 2015 में जर्मनी की तत्कालीन चांसलर एंजेला मर्केल भारत आईं, तो उन्होंने दसवीं सदी की मां दुर्गा के महिषासुर मर्दनी अवतार वाली प्रतिमा लौटाने की घोषणा की थी। यह प्रतिमा जम्मू-कश्मीर के पुलवामा से 1990 के दशक में गायब हो गई थी। बाद में यह जर्मनी के स्टटगार्ट के लिंडन म्यूज़ियम में पाई गई।

नोटों पर लक्ष्मी-गणेश का सुझाव

इंडोनेशिया का करेंसी नोट

आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल करेंसी नोटों पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें छापने का जो
सुझाव दिया है, उसके पीछे राजनीति है। अलबत्ता यह समझने की कोशिश जरूर की जानी चाहिए कि क्या इस किस्म की माँग से राजनीतिक फायदा संभव है। भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व को जो सफलता मिली है, उसके पीछे केवल इतनी प्रतीकात्मकता भर नहीं है।

बेशक प्रतीकात्मकता का लाभ बीजेपी को मिला है, पर राजनीति के भीतर आए बदलाव के पीछे बड़े सामाजिक कारण हैं, जिन्हें कांग्रेस और देश के वामपंथी दल अब तक समझ नहीं पाए हैं। अब लगता है कि केजरीवाल जैसे राजनेता भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं।

करेंसी पर लक्ष्मी-गणेश की तस्वीरें लगाने का सांस्कृतिक महत्व जरूर है। जैसे इंडोनेशिया में है, जो मुस्लिम देश है। भारतीय संविधान की मूल प्रति पर रामकथा और हिंदू-संस्कृति से जुड़े चित्र लगे हैं। इनसे धर्मनिरपेक्षता की भावना को चोट नहीं लगती है।

केवल केसरिया रंग की प्रतीकात्मकता काम करने लगेगी, तो केजरीवाल सिर से पैर तक केसरिया रंग का कनस्तर अपने ऊपर उड़ेल लेंगे, पर उसका असर नहीं होगा। ऐसी बातें करके और उनसे देश की समृद्धि को जोड़कर एक तरफ वे अपनी आर्थिक समझ को व्यक्त कर रहे हैं, वहीं भारतीय-संस्कृति को समझने में भूल कर रहे हैं। हिंदू समाज संस्कृतिनिष्ठ है, पर पोंगापंथी और विज्ञान-विरोधी नहीं।

हैरत की बात है कि आम आदमी पार्टी के नेताओं ने केजरीवाल की मांग का जोरदार तरीके से समर्थन शुरू कर दिया है। केजरीवाल का कहना है कि नोटों पर भगवान गणेश और लक्ष्मी के चित्र प्रकाशित करने से लोगों को दैवीय आशीर्वाद मिलेगा, जिससे वे आर्थिक लाभ हासिल कर सकेंगे। इसके पहले केजरीवाल गुजरात में जाकर कह आए हैं कि मेरे सपने में भगवान आए थे।

हिंदुत्व का लाभ

केजरीवाल ने अप्रेल 2010 से शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी-आंदोलन की पृष्ठभूमि में भी भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे लगाए थे। हलांकि ये नारे हिंदुत्व के नारे नहीं हैं और हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में इनका इस्तेमाल हुआ है, पर स्वातंत्र्योत्तर राजनीति में कांग्रेस ने इन नारों का इस्तेमाल कम करना शुरू कर दिया था। केजरीवाल अलबत्ता हिंदू प्रतीकों का इस्तेमाल इस रूप में करना चाहते हैं, जिससे उन्हें अल्पसंख्यक विरोधी नहीं माना जाए। पर इतना स्पष्ट है कि वे उस हिंदुत्व का राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं, जिसे कांग्रेस ने छोड़ दिया है। 

भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति का जिक्र करते हुए केजरीवाल ने कहा था कि देश अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये के लगातार कमजोर होने के कारण नाजुक स्थिति से गुजर रहा है। ऐसे में यह जुगत काम करेगी। इस विचार पर बिजनेस स्टैंडर्ड ने अपने संपादकीय में कहा है कि आर्थिक बहस में समझदारी जरूरी है। 

Thursday, October 27, 2022

खड़गे के सामने दो मुख्य लक्ष्य : चुनावों में सफलता और सांगठनिक सुधार


मल्लिकार्जुन खड़गे आधिकारिक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष बन गए हैं। अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने अपने पहले संबोधन में कहा है कि उदयपुर-घोषणा के अनुसार अब पार्टी में 50 फीसदी पद 50 साल से कम उम्र के लोगों को देंगे। यह घोषणा जितनी आसान लगती है, उसे लागू करना उतना ही मुश्किल होगा। सोनिया गांधी के नेतृत्व में शीर्ष पर पार्टी के जो नेता हैं, उनमें कोई भी पचास से नीचे का नहीं है। सबसे कम उम्र की हैं प्रियंका गांधी जो 50 साल से कुछ ऊपर हैं। शेष नेता इससे ज्यादा उम्र के हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे स्वयं 80 के हैं।

उनका नेतृत्व मंडल अभी गठित नहीं हुआ है, पर जैसी उन्होंने घोषणा की है, उसे लागू करने का मतलब है कि अब कम से कम आधे नेता एकदम नए होंगे। यह नई ऊर्जा होगी। उसे पुरानों के साथ मिलकर काम करना होगा। खड़गे को दोनों के बीच पटरी बैठानी होगी। खड़गे ने मुश्किल समय में पार्टी की कमान संभाली है। इस समय केवल दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें हैं। इसके अलावा झारखंड और तमिलनाडु में पार्टी गठबंधन सरकार में शामिल है, लेकिन मुख्यमंत्री दूसरे दलों के हैं।

बुधवार 26 अक्तूबर को जब उन्होंने कार्यभार संभाला, तब सोनिया गांधी के अलावा राहुल गांधी भी उपस्थित थे, जो अपनी भारत जोड़ो यात्रा को कुछ समय के लिए छोड़कर इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने दिल्ली आए। कांग्रेस शासित दोनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल भी कार्यक्रम में मौजूद थे। प्रियंका गांधी भी।

खड़गे के पास समय भी कम है। 2024 के लोकसभा चुनाव को अब सिर पर ही मानिए। लोकसभा चुनाव के पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद के चुनावों को भी जोड़ लें, तो कुल 18 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। इनमें हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य शामिल हैं। हिमाचल और गुजरात के चुनाव तो सामने खड़े हैं और फिर 2023 में उनके गृह राज्य कर्नाटक के चुनाव हैं। अगले साल फरवरी-मार्च में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड के चुनाव हैं, मई में कर्नाटक के और नवंबर-दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम और तेलंगाना के।

उत्तर में कांग्रेस की दशा खराब है। वहाँ के लिए सफल रणनीति तैयार करने की चुनौती सबसे बड़ी है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में उन्हें किसी न किसी पार्टी के साथ गठबंधन करना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर भी विरोधी दलों के गठबंधन की बात चल रही है। इससे जुड़ी रणनीति भी एक बड़ी चुनौती होगी।

शी की ताकत और चीन की आक्रामकता बढ़ी


शी चिनफिंग के अलावा चीनी पोलितब्यूरो की नई स्थायी समिति के सदस्य (ऊपर बाएं से दाएं) वांग हूनिंग, काई ची, झाओ लेजी, (नीचे बाएं से दाएं) ली शी, ली छ्यांग और दिंग श्वेशियांग। 

चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने अपने तीसरे और संभवतः आजीवन कार्यकाल की शुरुआत लोहे के दस्ताने पहन कर की है. अपने प्रतिस्पर्धियों को हाशिए पर डालते हुए उन्होंने वफादारों की एक नई टीम की घोषणा भी की है. शीर्ष स्तर पर तरक्कियों और तनज़्ज़ुली को देखते हुए साफ है कि वे अलग राय रखने वालों को मक्खी की तरह निकाल फेंकेंगे.     

शी की आर्थिक, विदेश और सैनिक नीतियों का पता आने वाले समय में ही लग पाएगा, अलबत्ता रविवार 16 अक्तूबर को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के बीसवें अधिवेशन का उद्घाटन करते हुए उन्होंने हांगकांग में लोकतांत्रिक आंदोलन के दमन को उचित ठहराया और ताइवान पर क़ब्ज़ा करने के लिए ताकत के इस्तेमाल का भी समर्थन किया.

इस महा-सम्मेलन के चार बड़े संदेश हैं. पहला, शी चिनफिंग अब उम्रभर के लिए सर्वोच्च नेता बन गए हैं. दूसरे नंबर के नेता ली खछ्यांग हटाए गए और तीसरा है पोलितब्यूरो के सात में से चार पुराने सदस्यों को हटाकर चार नए नेताओं को पदोन्नति दी गई. और चौथा, भविष्य की आर्थिक-सामाजिक नीतियाँ.    

नेतृत्व-परिवर्तन नहीं

माओ ज़ेदुंग आजीवन महासचिव थे, पर 1976 में उनके निधन के बाद आए देंग श्याओ पिंग ने देश में सत्ता परिवर्तन की एक अनौपचारिक व्यवस्था बनाई थी कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व दो कार्यकाल से ज्यादा काम नहीं करेगा. देंग के दो पसंदीदा उत्तराधिकारियों जियांग ज़ेमिन और हू जिनताओ ने इस नियम को अपने ऊपर लागू किया था.

शी चिनफिंग ने न केवल इस व्यवस्था को खत्म कर दिया है. साथ ही अपने किसी उत्तराधिकारी को भी तैयार नहीं किया है. चीन में शीर्ष नेताओं के रिटायर होने की उम्र अभी तक 68 वर्ष थी, पर 69 के शी रिटायर होने को तैयार नहीं हैं और उनकी टीम में 60 से कम का कोई भी नेता नहीं है.

वफादारों को इनाम

पार्टी की बीसवीं कांग्रेस शनिवार को खत्म हो गई थी. रविवार को शी चिनफिंग के साथ पोलितब्यूरो की स्थायी-समिति के शेष छह सदस्य पेश हुए. इनमें शी चिनफिंग, झाओ लेजी और वांग हूनिंग तीन सदस्य पुराने हैं. ये सब उनके वफादार हैं.

जो चार नए सदस्य जोड़े गए हैं उनके नाम हैं ली छ्यांग, काई ची, दिंग श्वेशियांग और ली शी. यह पोलितब्यूरो ही चीन की सत्ता का सर्वोच्च निकाय है. अब सभी सदस्य शी के पक्के वफादार हैं. दूसरे नंबर के नेता प्रधानमंत्री ली खछ्यांग और एक अन्य महत्वपूर्ण सदस्य वांग वांग हटा दिए गए हैं.

दोनों की उम्र 67 वर्ष है, जो चीन में सेवानिवृत्ति की उम्र 68 से एक साल कम है. इसके विपरीत शी चिनफिंग इस आयु सीमा से एक साल ज्यादा 69 वर्ष के हो चुके हैं. प्रधानमंत्री ली खछ्यांग का कार्यकाल मार्च 2023 में खत्म होगा. संभवतः शंघाई गुट के ली छ्यांग तब उनके स्थान पर प्रधानमंत्री बनाए जाएंगे.

शी के छह सहयोगी वरीयता क्रम से इस प्रकार हैं, 1.ली छ्यांग, जो शंघाई में पार्टी प्रमुख रह चुके हैं, 2.झाओ लेजी, जो केंद्रीय अनुशासन निरीक्षण आयोग के प्रमुख रह चुके हैं, 3.विचारधाराविद वांग हूनिंग, 4.बीजिंग के पूर्व पार्टी प्रमुख काई ची, 5.शी के चीफ ऑफ स्टाफ दिंग श्वेशियांग और 6.आर्थिक गतिविधियों के केंद्र ग्वांगदोंग प्रांत के पूर्व पार्टी प्रमुख ली शी.