Tuesday, July 12, 2022

हांगकांग में चीन की बढ़ती दमन-नीति

पिछले तीन साल से चल रहे लोकतांत्रिक आंदोलन का दमन करने के बाद चीन ने हांगकांग की व्यवस्था के अपनी मर्जी के रूपांतरण का इरादा खुलकर ज़ाहिर कर दिया है। इसके पहले 2 जनवरी, 2019 को राष्ट्रपति शी चिनफिंग ताइवान के लोगों से कह चुके हैं कि उनका हर हाल में चीन के साथ 'एकीकरण' होकर रहेगा। भले ही हमें फौजी कार्रवाई करनी पड़े। अब पिछली 1 जुलाई को हांगकांग के नए चीफ एक्जीक्यूटिव जॉन ली को शपथ दिलाने राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने खुद जाकर अपने इरादों का इज़हार कर दिया है।  

हांगकांग-हस्तांतरण के 25 वर्ष पूरे होने पर इन दिनों समारोह मनाए जा रहे हैं। हांगकांग में शी चिनफिंग दो दिन रहे। उस दौरान उनकी सुरक्षा में जबर्दस्त घेरा बनाकर रखा गया, पर उनके जाते ही हजारों की संख्या में लोकतंत्र समर्थक सड़कों पर निकल आए। पश्चिमी मीडिया को शी चिनफिंग के कार्यक्रमों की कवरेज के लिए नहीं बुलाया गया। पिछले कुछ साल से 1 जुलाई को ये प्रदर्शन हो रहे हैं। 1 जुलाई 1997 को हांगकांग का हस्तांतरण हुआ था।

ब्रिटिश-हांगकांग

हांगकांग चीन के दक्षिण तट पर सिंकियांग नदी के मुहाने पर स्थित एक द्वीप है। सन 1842 में पहले अफीम युद्ध की समाप्ति के बाद चीन के चिंग राज्य ने हांगकांग को अपने से अलग करना स्वीकार कर लिया। वह ब्रिटिश उपनिवेश बन गया। दूसरे अफीम युद्ध के बाद 1860 में काउलून खरीदकर इसमें जोड़ दिया गया। सन 1898 में न्यू टेरिटरीज़ को 99 साल के पट्टे पर ले लिया गया।

आज हांगकांग एक विशेष प्रशासनिक क्षेत्र है। ग्लोबल महानगर और वित्तीय केंद्र होने के साथ-साथ यहाँ एक उच्च विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है। साठ के दशक में ही वह महत्वपूर्ण कारोबारी केन्द्र के रूप में उभर आया था। जबकि उन दिनों चीन में भयानक अकाल और सांस्कृतिक क्रांति का दौर था। फिर भी हांगकांग के नागरिक खुद को पराधीन मानते थे। उनकी सांस्कृतिक जड़ें चीन में थीं। हांगकांग में भी प्रतिरोध आंदोलन चला, जो अपने सबसे उग्र रूप में 1967 में सामने आया।

हांगकांग वासी चीन जैसी व्यवस्था भी नहीं चाहते थे। वे रोजगार, शिक्षा और नागरिक सुविधाओं में बेहतरी चाहते थे। साठ और सत्तर के दशक में काम के घंटे कम हुए, अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा-व्यवस्था की शुरुआत हुई, सार्वजनिक आवास योजनाएं, स्वास्थ्य सेवाएं तथा अन्य कल्याण योजनाएं शुरू हुईं।

यह सब चीन की मुख्य भूमि के नागरिकों की तुलना में एक अलग तरह का अनुभव था। स्वतंत्र न्याय-व्यवस्था, फ्री प्रेस और नागरिक अधिकारों का प्रवेश उस व्यवस्था में हो गया था। वहाँ प्रगतिशील चीन की अवधारणा जन्म ले रही थी, जो न तो ब्रिटिश हो और न कम्युनिस्ट। सत्तर के उत्तरार्ध से देंग श्याओ फेंग के नेतृत्व में चीन का रूपांतरण भी हो रहा था, जिसके अंतर्विरोध 3-4 जून, 1989 को तिएन-अन-मन चौक पर हुए टकराव के रूप में सामने आए। इसकी प्रतिक्रिया हांगकांग में भी हुई थी।

Sunday, July 10, 2022

आसान नहीं है श्रीलंका के संकट का समाधान

राष्ट्रपति भवन पर हल्ला बोल

श्रीलंका में राष्ट्रपति के इस्तीफे की घोषणा के बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि उसे देश के राजनीतिक संकट के समाधान की उम्मीद है। राजनीतिक स्थिरता के बाद
बेल आउट पैकेज को लेकर बातचीत फिर से शुरू हो सकती है। श्रीलंका के वर्तमान संकट का हल आईएमएफ की मदद से ही हो सकता है। देश में 92 दिन से चले आ रहे जनांदोलन के बाद शनिवार को राष्ट्रपति भवन में भीड़ घुस गई। इसके बाद गोटाबाया राजपक्षे ने इस्तीफ़े की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि देश में शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए वे 13 जुलाई को इस्तीफ़ा दे देंगे

शनिवार को बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति के सरकारी आवास के अंदर घुस गए थे। उन्होंने प्रधानमंत्री के निजी आवास में भी आग लगा दी थी। उस समय राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही अपने आवासों पर मौजूद नहीं थे। श्रीलंका में खराब आर्थिक हालात के चलते लंबे समय से विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं। प्रदर्शनकारी लगातार राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफ़े की मांग करते रहे हैं। राष्ट्रपति के साथ-साथ प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे ने भी इस्तीफ़ा देने की घोषणा की है। सरकारी सूत्रों के अनुसार एक सुरक्षित स्थान पर सेना राष्ट्रपति की रक्षा कर रही है। कुछ सूत्रों का कहना है कि उनके आवास पर भीड़ के आने के पहले नौसेना ने उन्हें बाहर निकाल लिया था।

शनिवार की शाम संसद के अध्यक्ष ने राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई जिसमें प्रधानमंत्री विक्रमासिंघे ने अपने इस्तीफे की घोषणा की ताकि एक सर्वदलीय सरकार बनाई जा सके। उनके प्रवक्ता ने कहा कि जैसे ही नई सरकार बनेगी वे इस्तीफा दे देंगे। राष्ट्रपति के हट जाने के बाद संसद के अध्यक्ष 30 दिन तक गोटाबाया के स्थान पर काम कर सकते हैं। इस दौरान संसद को एक राष्ट्रपति चुनना होगा, जो गोटाबाया के शेष कार्यकाल को पूरा करे। उनका कार्यकाल 2024 तक है।   

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के इस्तीफे के बाद नई सर्वदलीय सरकार का गठन आसान नहीं होगा। देश का विपक्ष काफी बिखरा हुआ है। उनके पास संसद में बहुमत भी नहीं है। सत्तारूढ़ दल के समर्थन से विरोधी दलों की सरकार बन भी गई, तब भी देश की अर्थव्यवस्था को संभाल पाना काफी मुश्किल होगा। सरकार बदलने से आर्थिक-समस्याओं का समाधान नहीं हो जाएगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष भी सहायता करने के पहले देश की राजनीतिक स्थिरता को समझना चाहेगा।

सायोनारा, भारत के दोस्त शिंजो आबे!


शिंजो आबे की हत्या की खबर से भारत स्तब्ध है। जापान के प्रति जो सम्मान आम भारतीय के मन में है,
उसे केवल महसूस किया जा सकता है। यह सम्मान यों ही नहीं है। हम जापानियों को उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। पर शिंजो आबे का सम्मान हम उनके राष्ट्रवादी विचारों के कारण भी करते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित जापान ने जिस तरह से अपना रूपांतरण किया, वह अलग कहानी है, पर इस समय आक्रामक चीन के जवाब में खड़ा है। जापान में इस समय दो तरह की अवधारणाएं चल रही हैं। एक है कि चीन से दोस्ती बनाकर रखो और दूसरी है कि चीन का मुकाबला करने के लिए तैयार रहो। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकी दबाव में ऐसी सांविधानिक-व्यवस्थाएं कर दी गई हैं कि जापान के हाथ बँध गए। शिंजो आबे इन्हें खोलना चाहते थे।

चीन से मुकाबिल

हाल के वर्षों में चीन ने दुनिया में धाक कायम की है, पर जापानियों ने उन्नीसवीं सदी के मध्य से ही अपना सिक्का बुलंद कर रखा है। पिछले डेढ़ दशक में शिंजो आबे ने अपने देश का नेतृत्व जिस तरीके से किया और भारत के साथ जैसे रिश्ते बनाए, उसपर ध्यान देने की जरूरत है। शिंजो आबे का राष्ट्रवाद भारत दिलो-दिमाग पर छाया है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र और क्वॉड की परिकल्पना उनकी थी। अगस्त, 2007 में उन्होंने भारत की संसद में आकर इस अवधारणा पर रोशनी डाली थी, जो अब मूर्त रूप ले रही है। निश्चित रूप से इस समय वे दुनिया के सबसे ऊँचे कद के नेताओं में से एक थे। हैरत है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री सड़क के किनारे जनता के बीच खड़ा था और उसे गोली मार दी गई। उस देश में जहाँ हत्याएं आम नहीं हैं। जहाँ पुलिस वालों के हाथों में भी बंदूकें नहीं होतीं।

क्यों हुई हत्या?

कैमरे जैसी बंदूक बनाकर उनकी हत्या की गई। क्यों की गई? अभी अटकलें ही हैं, पर किसी बड़ी साजिश को खारिज नहीं किया जा सकता है। शिंजो आबे हालांकि प्रधानमंत्री पद छोड़ चुके थे, पर राजनीतिक दृष्टि से वे महत्वपूर्ण थे और एक बड़े सैद्धांतिक बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे। बताते हैं कि उनके हत्यारे ने कहा है कि शिंजो जापान के दक्षिणपंथी संगठन निप्पॉन कैगी (Nippon Kaigi) के समर्थक थे, और मेरी माँ ने अपना सारा पैसा उस संस्था को दान में दे दिया, जिससे वह दिवालिया हो गई। इसलिए मैंने उनकी हत्या की। 1997 में बने निप्पॉन कैगी का उद्देश्य जापान के वर्तमान संविधान और खासतौर पर उसके अनुच्छेद 9 को बदलना है, जिसमें जापान में स्थायी सेना के गठन पर रोक है। निप्पॉन कैगी मानता है कि जापान को उस ताकत के रूप में स्थापित किया जाना चाहिए, जो पूर्वी एशिया को पश्चिमी ताकतों के वर्चस्व से मुक्त कर सके। संगठन मानता है कि 1946-1948 के दौरान जापान पर चला युद्ध अपराध का मुकदमा अवैध था। जापानी समाज लम्बे अरसे से युद्ध और शांति, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सम्मान जैसे सवालों से घिरा हुआ है। जापान के इतिहास में नब्बे साल बाद इस किस्म की हत्या हुई है। ऐसा नहीं है कि वहाँ हत्याएं नहीं हुई हैं। जापान का इतिहास राजनीतिक हत्याओं से भरा है। ज्यादातर हत्याओं के पीछे राष्ट्रवाद से जुड़े वैचारिक-द्वंद थे। 15 मई 1932 को प्रधानमंत्री इनुकाई सुयोसी की 11 नौसैनिकों द्वारा घेरकर की गई हत्या के पीछे भी अंतरराष्ट्रीय टकराव था।

विह्वल देश

आबे की हत्या ने जापान के समाज और राजनीति को झकझोर कर रख दिया है। इसे ‘आतंकवाद’ की संज्ञा दी गई है। हत्यारे का मंतव्य अब भी स्पष्ट नहीं है, पर इतना जरूर लगता है कि वह आबे की रक्षा-नीतियों का आलोचक है। हत्या की खबर आने के बाद चीन के कुछ इलाकों से खुशियाँ मनाए जाने की खबरें मिली हैं। इन खबरों का कोई मतलब नहीं है, पर तफतीश इस बात की जरूर होगी कि इस हत्या के पीछे कहीं चीनी हाथ तो नहीं। जरूरी नहीं कि यह हाथ सीधे-सीधे हो। सम्भावना यह भी है कि जापानी समाज के भीतर चल रहे उद्वेलन का लाभ किसी बाहरी शक्ति ने उठाया हो।

राष्ट्रवाद की विरासत

शिंजो आबे के पिता जापान के पूर्व विदेश मंत्री शिनतारो आबे थे। शिंजो के नाना नोबुसुके किशी जापान के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। वे 1957-1960 को दौर में जापान के प्रधानमंत्री थे। वह दौर दूसरे विश्व-युद्ध के बाद जापान का सबसे महत्वपूर्ण दौर था। उसी दौरान उन्होंने अमेरिका के साथ सुरक्षा-संधि की थी, जिसका देश में काफी विरोध हुआ था। उनकी हत्या का प्रयास भी हुआ था। उनके छह चाकू मारे गए। तब वे बच गए, पर अब शिंजो आबे नहीं बचे। पर इतना स्पष्ट है कि शिंजो को राष्ट्रवाद पारिवारिक विरासत में मिला था।  

Saturday, July 9, 2022

भारत-जापान मैत्री को नई ऊँचाई दी शिंज़ो आबे ने


शिंज़ो आबे की हत्या की खबर से भारत स्तब्ध है। भारतीय जनता के मन में जो सम्मान जापान के प्रति है, वह किसी दूसरे देश के लिए नहीं है। हाल के वर्षों में शिंज़ो आबे के कारण यह सम्मान और ज्यादा बढ़ा है। ऐसे दोस्त को खोकर भारत दुखी है। इस हत्या के राजनीतिक परिणाम भी होंगे। खासतौर से सुदूर पूर्व और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चल रहे घटनाक्रम पर इसका असर जरूर होगा। अभी यह कहना मुश्किल है हत्यारे का उद्देश्य क्या रहा है, पर इसके पीछे किसी बड़ी और सम्भव है कि कोई अंतरराष्ट्रीय-साजिश हो। इन सम्भावनाओं को खारिज भी नहीं किया जा सकता है।

राष्ट्रीय-शोक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके सम्मान में एक दिन के राष्ट्रीय-शोक की घोषणा की है। आज शनिवार 9 जुलाई को देशभर में शोक मनाया जा रहा है। मोदी ने उनकी याद में एक विशेष लेख भी लिखा है माय फ्रेंड आबे सान या मेरे मित्र आबे सान, जो देश के कई राष्ट्रीय अखबारों में प्रकाशित हुआ है।  प्रधानमंत्री ने अपने शोक-संदेश में लिखा है, मैं अपने सबसे प्यारे दोस्तों में से एक शिंज़ो आबे के दुखद निधन से स्तब्ध और दुखी हूं। वह एक महान वैश्विक राजनेता, एक शानदार नेता और एक उल्लेखनीय प्रशासक थे। उन्होंने जापान और दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

नरेंद्र मोदी की तरह शिंज़ो आबे भी राष्ट्रवादी नेता थे, जो अपने देश के सम्मान और गरिमा को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। निश्चित रूप से इस समय वे दुनिया के सबसे ऊँचे कद के नेताओं में से एक थे। हैरत है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री सड़क के किनारे जनता के बीच खड़ा था और धोखा देकर उसे गोली मार दी गई। उस देश में जहाँ हत्याएं आम नहीं हैं। जहाँ पुलिस वालों के हाथों में भी बंदूकें नहीं होतीं।

भारत-जापान मैत्री

जापानियों को हम भारतीय उनकी कर्म-निष्ठा के कारण पहचानते हैं। उसे लेकर भारतीय जन-मन बेहद भावुक है। दूसरे विश्व युद्ध में बुरी तरह ध्वस्त हो चुके देश ने जिस तरह से डेढ़ दशक के भीतर फिर से पैरों पर खड़ा होकर दिखाया, उसे देखते हुए भी हमारा यह सम्मान है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी हमारा मन जापान से मिलता है। जापान में बौद्ध धर्म चीन और कोरिया के रास्ते गया था। पर सन 723 में बौद्ध भिक्षु बोधिसेन का जापान-प्रवास भारत-जापान रिश्तों में मील का पत्थर है। बोधिसेन आजीवन जापान में रहे। बोधिसेन को जापान के सम्राट शोमु ने निमंत्रित किया था। वे अपने साथ संस्कृत का ज्ञान लेकर गए थे और माना जाता है कि बौद्ध भिक्षु कोबो दाइशी ने 47 अक्षरों वाली जापानी अक्षरमाला को संस्कृत की पद्धति पर तैयार किया था। जापान के परम्परागत संगीत पर नृत्य पर भारतीय प्रभाव है। आर्थिक प्रगति और पश्चिमी प्रभाव के बाद भी दोनों देशों में परम्परागत मूल्य बचे हैं। दोनों देश देव और असुर को इन्हीं नामों से पहचानते हैं।

Friday, July 8, 2022

आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताओं के बीच संतुलन जरूरी है

मीडिया की सजगता या अतिशय सनसनी फैलाने के इरादों के कारण पिछले कई वर्षों से देश में जहर-बुझे बयानों की झड़ी लगी हुई है। नौबत हत्याओं तक आ गई है। हाल में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा और उसके पहले बीजेपी की प्रवक्ता नूपुर शर्मा के वक्तव्यों के कारण विवाद खड़े हुए हैं। इन बयानों की सदाशयता या आपराधिक भावना पर विचार अदालतों में ही सम्भव है। इनपर जल्द से जल्द विचार होना चाहिए। पर हम चैनलों, गलियों और चौपालों में बैठी अदालतों में फैसले करना चाहते हैं, जो अनुचित है।

सामाजिक बहस ठंडे दिमाग से ही होनी चाहिए, उत्तेजना और तैश में नहीं। दो चार लोगों की वजह से किसी समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। फिर भी जब बुनियादी बातों पर चोट लगती है तब समुदाय कुंठित महसूस करते हैं। ऐसा नहीं कि समूचा ईसाई समुदाय एक जैसा है या सारे हिन्दू एक हैं और सारे मुसलमान एक जैसा सोचते हैं। इनके भीतर कई प्रकार की धारणाएं हैं, पर इनके अंतर्विरोधों को जब भड़काया जाता है तब क्रिया और प्रतिक्रिया होने लगती है। अपनी नेतागीरी चमकाने कुछ ठेकेदार भी सामने आते हैं।

पूरी बहस के साथ कुछ मानवीय मूल्य जुड़े हैं, जो आपस में टकराते हैं। महत्वपूर्ण क्या है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक भावनाओं का सम्मान? यह टकराव केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में है। और यह सब कम से कम दो दिशाओं में जा रहा है। इस्लामोफोबिया से शुरू होकर सभ्यताओं के टकराव तक एक धारा जाती है। यानी मध्ययुगीन प्रवृत्तियों का टकराव। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं के सांविधानिक-सिद्धांत और उनके अंतर्विरोध हैं।

पश्चिमी देशों में जानबूझकर इस बहस को छेड़ा गया है। सितंबर 2005 में डेनमार्क की एक पत्रिका ने जब कार्टूनों के प्रकाशन की घोषणा की थी, तभी समझ में आता था कि यह सोच-समझकर बर्र के छत्ते में हाथ डालने वाला काम है। पर वह बहस अब भी नहीं हो रही, जिसका वह ट्रिगर पॉइंट था। ऐसा ही 2015 में फ्रांस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो में प्रकाशित कार्टूनों के कारण हुआ। 1988 में सलमान रुश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज को लेकर ऐसी ही नाराजगी पैदा हुई थी, जिसके कारण ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्ला खुमैनी ने उनकी मौत का फरमान जारी किया था।

क्या यह मध्य युग की वापसी है जब धार्मिक विचारों को लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड हो रहे थे? या उस खुली बहस का प्रस्थान-बिंदु है, जो कभी न कभी तो होगी। शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के मायने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है?