Sunday, July 3, 2016

दक्षिण एशिया में आईएस की दस्तक

ढाका-हत्याकांड में शामिल हमलावर बांग्लादेशी हैं। पर इस कांड की जिम्मेदारी दाएश यानी इस्लामिक स्टेट ने ली है। इसका मतलब है कि कोई स्थानीय संगठन आईएस से जा मिला है। सम्भावना इस बात की भी है कि जोएमबी नाम का स्थानीय गिरोह आईएस के साथ हो। बांग्लादेश सरकार की इस मामले में अभी टिप्पणी नहीं आई है, पर अभी तक वह आईएस की उपस्थिति का खंडन करती रही है। बहरहाल आईएस का इस इलाके में सक्रिय होना भारत के लिए चिंता का विषय है। 

पेरिस, ब्रसेल्स और इस्तानबूल के बाद ढाका। आइसिस ने एक झटके में सारे संदेह दूर कर दिए।  उसकी निगाहें अब दक्षिण एशिया के सॉफ्ट टारगेट पर हैं। पाकिस्तान के मुकाबले बांग्लादेश की स्थिति बेहतर है। उसकी अर्थ-व्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। जनसंख्या में युवाओं का प्रतिशत बेहतर है। जमीन उपजाऊ है। यह 15 करोड़ मुसलमानों का देश भी है। दुनिया में चौथी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी। अभी तक बांग्लादेश सरकार आइसिस को लेकर डिनायल मोड में थी। अब उसे स्वीकार करना चाहिए कि आइसिस और अल-कायदा दोनों ने उसकी जमीन पर अपने तम्बू तान दिए हैं। अब शको-शुब्हा नहीं बचा।

Thursday, June 30, 2016

वेतन-वृद्धि का सामाजिक दर्शन

देश के तकरीबन पाँच करोड़ लोग किसी न किसी रूप में वेतन-भत्तों, पेशन, पीएफ जैसी सुविधाओं का लाभ प्रप्त कर रहे हैं। इनमें से कुछ को स्वास्थ्य सेवा या स्वास्थ्य बीमा का लाभ भी मिलता है. हमारी व्यवस्था जिन लोगों को किसी दूसरे रूप में सामाजिक संरक्षण दे रही है, उनकी संख्या इसकी दुगनी हो सकती है. यह संख्या पूरी आबादी की की दस फीसदी भी नहीं है. इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है. कौन बढ़ाएगा यह दायरा? यह जिम्मेदारी पूरे समाज की है, पर इसमें सबसे बड़ी भूमिका उस मध्य वर्ग की है, जिसे सामाजिक संरक्षण मिल रहा है. केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन-भत्तों का बढ़ना अच्छी बात है, पर यह विचार करने की जरूरत है कि क्य हम इतना ही ध्यान असंगठित वर्ग के मजदूरों, छोटे दुकानदारों, कारीगरों यानी गरीबों का भी रख पा रहे हैं. देश का मध्य वर्ग गरीबों और शासकों को बीच की कड़ी बन सकता है, पर यदि वह अपनी भूमिका पर ध्यान नहीं देगा तो वह शासकों का रक्षा कवच साबित होगा. व्यवस्था को पारदर्शी और कल्याणकारी बनाने में उसकी भूमिका बड़ी है. केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में सुधार  की खुशखबरी कुछ अंदेशों को जन्म भी देती है.


वित्त मंत्री अरुण जेटली पिछले दिसम्बर में कहा था कि कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में वृद्धि को बनाए रखने के लिए देश को एक से डेढ़ प्रतिशत की अतिरिक्त आर्थिक संवृद्धि की जरूरत है. दुनिया का आर्थिक विकास जब ठहरने लगा है तब भारत की विकास दर में जुंबिश दिखाई पड़ रही है. ट्रिकल डाउन के सिद्धांत को मानने वाले कहते हैं कि आर्थिक विकास होगा तो ऊपर के लोग और ऊपर जाएंगे और उनसे नीचे वाले उनके बराबर आएंगे. नीचे से ऊपर तक सबको लाभ पहुँचेगा. पर इस सिद्धांत के साथ तमाम तरह के किन्तु परन्तु जुड़े हैं. इस वेतन वृद्धि से अर्थ-व्यवस्था पर तकरीबन एक फीसदी का बोझ बढ़ेगा और महंगाई में करीब डेढ़ फीसदी का इजाफा भी होगा. इसकी कीमत चुकाएगा असंगठित वर्ग. उसकी आय बढ़ाने के लिए भी कोई आयोग बनना चाहिए.

Wednesday, June 29, 2016

Mysterious abandoned 'chicken church' in Indonesia


strange_mediaMysterious abandoned 'chicken church' built in Indonesian jungle by a man who had a vision from God...

Hidden deep inside the Indonesian jungle lies an enchanted 'church' which looks like a giant chicken.

The long-abandoned structure known locally as Gereja Ayam - or Chicken Church - attracts hundreds of curious travelers and photographers to the hills of Magelang, Central Java, every year.

But according to the its eccentric creator, the majestic building is neither a chicken nor a church.

Daniel Alamsjah was working in Jakarta - 342 miles away - when he suddenly got a divine message from God to build a 'prayer house' in the form of a dove.

Monday, June 27, 2016

डायरेक्ट डेमोक्रेसी के लिए परिपक्व समाज चाहिए

ब्रेक्जिट के बवंडर में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड केमरन को अपना पद छोड़ने की घोषणा करनी पड़ी. दुनिया भर के शेयर बाजार इस फैसले से स्तब्ध हैं. विशेषज्ञ समझने की कोशिश कर रहे हैं इसका भारत पर क्या असर पड़ेगा. बेशक यह जनता का सीधा फैसला है. पर क्या इस प्रकार के जनमत संग्रह को उचित ठहराया जा सकता है? क्या जनता इतने बड़े फैसले सीधे कर सकती है? क्या ऐसे फैसलों में व्यावहारिकता के ऊपर भावनाएं हावी होने का खतरा नहीं है? क्या दुनिया डायरेक्ट डेमोक्रेसी के द्वार पर खड़ी है? पश्चिमी देशों की जनता अपेक्षाकृत प्रबुद्ध है. उसके पास सूचनाओं को जाँचने-परखने के बेहतर उपकरण मौजूद हैं. फिर भी ऐसा लगता है कि संकीर्ण राष्ट्रवाद सिर उठा रहा है. ब्रेक्जिट के बाद यूरोप में विषाद की छाया है. कुछ लोग खुश हैं तो पश्चाताप भी कम नहीं है.

Sunday, June 26, 2016

एनएसजी का कड़वा सबक

इस साल यदि एनएसजी की एक और बैठक होने वाली है, तो इसका मतलब यह हुआ कि भारत की सदस्यता का मामला रंग पकड़ रहा है। बैठक नहीं भी हो तब भी कमसे कम इतना हुआ कि एनएसजी ने अनौपचारिक रूप से इस बात को आगे बढ़ाने के लिए अर्जेंटीना के राजदूत राफेल गोसी को अपना प्रतिनिधि नियु्क्त किया है। इस प्रकार के समूहों में सदस्यता पाना इतना सरल नहीं है, जितना हम मानकर चल रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह समूह भारत के पहले अणु विस्फोट की प्रतिक्रिया में ही बना था। फिर भी यह कहा जा सकता है कि भारत सरकार ने इसका जितना प्रचार किया, उसे देखते हुए लगता है कि भारत की कोई बड़ी हार हो गई है। जबकि ऐसा कुछ है नहीं।