11 फरवरी के राजस्थान पत्रिका, जयपुर के पहले पेज के जैकेट पर निराला विज्ञापन प्रकाशित हुआ। इसमें दिल्ली के विधान सभा चुनाव में 3 सीटें जीतने पर भाजपा को बधाई दी गई है। यह बधाई प्रतियोगिता परीक्षाओं से जुड़ी किताबें छापने वाले एक प्रकाशन की ओर से है। प्रकाशन के लेखक नवरंग राय, रोशनलाल और लाखों बेरोजगार विद्यार्थियों की ओर से यह बधाई दी गई है। इसमें ड़क्टर से राजनेता बने वीरेंद्र सिंह से अनुरोध किया गया है कि वे राजस्थान में आम आदमी पार्टी का नेतृत्व करें और उसे नए मुकाम पर पहुँचाएं। पिछले लोकसभा चुनाव में वीरेंद्र सिंह आम आदमी पार्टी के टिकट पर लड़े थे।
Thursday, February 12, 2015
भेड़ों की भीड़ नहीं, जागरूक जनता बनो
दिल्ली की नई विधानसभा में 28 विधायकों की उम्र 40 साल या उससे कम है. औसत उम्र चालीस है. दूसरे राज्यों की
तुलना में 7-15 साल
कम. चुने गए 26
विधायक पोस्ट ग्रेजुएट हैं. 20 विधायक ग्रेजुएट हैं, और 14 बारहवीं पास हैं. बीजेपी के तीन विधायकों को अलग कर दें तो
आम आदमी पार्टी के ज्यादातर विधायकों के पास राजनीति का अनुभव शून्य है. वे आम लोग
हैं. उनके परिवारों का दूर-दूर तक रिश्ता राजनीति से नहीं है. उनका दूर-दूर तक
राजनीति से कोई वास्ता नहीं है. दिल्ली के वोटर ने परम्परागत राजनीति को दूध की
मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया है. यह नई राजनीति किस दिशा में जाएगी इसका पता
अगले कुछ महीनों में लगेगा. यह पायलट प्रोजेक्ट सफल हुआ तो एक बड़ी उपलब्धि होगी.
Wednesday, February 11, 2015
Monday, February 9, 2015
टूटना चाहिए चुनावी चंदे का मकड़जाल
यकीन मानिए भारत के आम चुनाव को दुनिया में काले धन से
संचालित होने वाली सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है। हमारे लोकतंत्र का सबसे खराब
पहलू है काले धन की वह विशाल गठरी जिसे ज्यादातर पार्टियाँ खोल कर बैठती हैं। काले
धन का इस्तेमाल करने वाले प्रत्याशियों के पास तमाम रास्ते हैं। सबसे खुली छूट तो
पार्टियों को मिली हुई है, जिनके खर्च की कोई सीमा नहीं है। चंदा लेने की उनकी व्यवस्था काले पर्दों से
ढकी हुई है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी के चंदे को लेकर
मीडिया में दो दिन का शोर-गुल हुआ। और उसके बाद खामोशी हो गई। बेहतर हो कि न केवल
इस मामले में बल्कि पार्टियों के चंदे को लेकर तार्किक परिणति तक पहुँचा जाए।
सामाजिक सेवा का ऐसा कौन सा सुफल है, जिसे हासिल करने के लिए पार्टियों के प्रत्याशी करोड़ों के
दाँव लगाते हैं? जीतकर
आए जन-प्रतिनिधियों को तमाम कानून बनाने होते हैं, जिनमें चुनाव सुधार से जुड़े
कानून शामिल हैं। अनुभव बताता है कि वे चुनाव सुधार के काम को वरीयता में सबसे
पीछे रखते हैं। ऐसा क्यों? व्यवस्था
में जो भी सुधार हुआ नजर आता है वह वोटर के दबाव, चुनाव आयोग की पहल और अदालतों के हस्तक्षेप से हुआ है। सबसे
बड़ा पेच खुद राजनीतिक दल हैं जिनके हाथों में परोक्ष रूप से नियम बनाने का काम
है। चुनाव से जुड़े कानूनों में बदलाव का सुझाव विधि आयोग को देना है, पर दिक्कत
यह है कि राजनीतिक दल विधि आयोग के सामने अपना पक्ष रखने में भी हीला-हवाला करते
हैं।
Sunday, February 8, 2015
दिल्ली की विजय-पराजय के माने
दिल्ली विधानसभा के एग्जिट पोल आम आदमी पार्टी के सामान्य बहुमत से लेकर दो तिहाई बहुमत तक के इशारे कर रहे हैं। उनके अनुसार बीजेपी के वोट प्रतिशत में सन 2013 के मुकाबले बढ़ोत्तरी होगी और 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में कमी होगी। इस लिहाज से इसे नरेंद्र मोदी सरकार और व्यक्तिगत रूप से मोदी को लोकप्रियता में गिरावट के रूप में भी देखा जा रहा है। शायद इसी वजह से काफी विश्लेषकों को यह चुनाव महत्वपूर्ण लगता है। पर यह चुनाव केवल इतना ही मतलब नहीं रखता। आम आदमी पार्टी सामान्य राजनीतिक संस्कृति से ताल्लुक नहीं रखती। कम से कम उसका दावा इसी प्रकार का है। उसका साथ देने वाले सामान्य नागरिक है और उसके कार्यकर्ता आमतौर पर शहरी युवा हैं। यह शहरी युवा मोदी सरकार का समर्थक माना जा कहा था। एक धारणा है कि मोदी सरकार के समर्थकों ने हिन्दुत्व से जुड़े संकर्ण मामलों को उठाकर युवा वर्ग का मोहभंग किया है। दूसरी धारणा यह है कि मोदी सरकार ने बड़े-बड़े वादे कर दिए थे जो अब पूरे नहीं हो रहे हैं। एग्जिट पोल के बाद अब 10 फरवरी को परिणाम आने के बाद ही इस बारे में कोई राय कायम करना बेहतर होगा, पर चुनाव परिणाम ऐसा ही रहा तब भी उसके अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग माने होंगे। रोचक बात यह है कि आम आदमी पार्टी के पक्ष में ममता बनर्जी के साथ-साथ प्रकाश करात ने भी अपील की थी। क्या आम आदमी पार्टी वामपंथी पार्टी है? क्या वह उस युवा वर्ग की अपेक्षाओं पर खरी उतरती है जो आम आदमी पार्टी के साथ है? क्या आम आदमी पार्टी के आर्थिक दृष्टिकोण से वह परिचित है? दूसरी ओर आम आदमी पार्टी की जीत के पीछे दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों के निवासियों, दलितों और मुस्लिम समुदाय का समर्थन भी नजर आता है। बीजेपी का पीछे मध्य वर्ग का समर्थन है। क्या यह वर्गीय ध्रुवीकरण है? आम आदमी पार्टी के कामकाज में यह ध्रुवीकरण किस रूप में नजर आएगा इसे समझना होगा। यदि मुस्लिम समुदाय ने आम आदमी के पक्ष में टैक्टिकल वोटिंग की है तो क्या इसका प्रभाव बिहार ौर यूपी के चुनाव में भी पड़ेगा? ऐसे कई सवाल सामने आएंगे।
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