Sunday, April 27, 2014

कांग्रेस की रणनीति और क्षेत्रीय क्षत्रपों के अंतर्विरोध

अब जब 196 सीटों पर मतदान बाकी रह गया है। अटकलों का बाज़ार सरगर्म है। देश की राजनीति फिलहाल सीधे-सीधे दो ध्रुवों पर कर खड़ी है। एक है मोदी लाओ और दूसरा है मोदी से बचाओ। पूरी राजनीति नकारात्मक या सकारात्मक रूप से मोदी केंद्रित है। इन दोनों ध्रुवों के इर्द-गिर्द कुछ और राजनीतिक शक्तियाँ हैं। ये हैं क्षेत्रीय दल। पिछले दो-तीन साल से कहा जा रहा है कि देश में क्षेत्रीय दलों का दौर है और 2014 में केंद्र की सरकार बनाने में इनकी सबसे बड़ी भूमिका होगी। कहना मुश्किल है कि मोदी लहर है या नहीं। पर इतना साफ है कि क्षेत्रीय क्षत्रप भी मुश्किल में हैं। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को छोड़ दें तो किसी भी क्षेत्रीय दल के बारे में दावे के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। दो साल पहले तीन पार्टियों को अपनी स्थिति बेहतर लगती थी। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों में मिली सफलता से अभिभूत समाजवादी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने घोषणा कर दी थी कि लोकसभा चुनाव समय से पहले होंगे और 2014 में तीसरे मोर्चे की सरकार बनेगी। लगभग ऐसा ही अनुमान तमिलनाडु में जयललिता और बंगाल में ममता बनर्जी का था। अब हम इस चुनाव में तीसरे मोर्चे की ओर देखें तो वह खुद असमंजस में नजर आता है।

Thursday, April 24, 2014

क्या हिंदुत्व का मतलब जहर बुझे तीर हैं?

 गुरुवार, 24 अप्रैल, 2014 को 15:15 IST तक के समाचार
नरेंद्र मोदी
संघ परिवार से जुड़े लोगों के 'ज़हरीले' बयानों ने नरेंद्र मोदी को एकबारगी सांसत में डाल दिया है. पिछले कुछ दिन से मोदी अपनी छवि को सौम्य बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इस बयानबाज़ी ने इस छवि-निर्माण को कुछ देर के लिए छिन्न-भिन्न कर दिया है.
क्या ये अमानत में ख़यानत है? अपनों की दगाबाज़ी? या अतिशय नासमझी? इसे संघ परिवार के भीतर बैठे मोदी विरोधियों का काम मानें या कोई और बात?
पार्टी ने अमित शाह के बयान पर ठंडा पानी डालकर हालात सुधारे ही थे कि विहिप नेता क्लिक करेंप्रवीण तोगड़िया और बिहार में भाजपा के एक प्रत्याशी गिरिराज सिंह के बयानों ने सारी कोशिशों पर काफ़ी पानी फेर दिया. शिवसेना के रामदास कदम ने रही-सही कसर पूरी कर दी.
पीछा छुड़ाने के लिए नरेंद्र मोदी ने इन टिप्पणियों को 'ग़ैर ज़िम्मेदाराना' ज़रूर करार दिया है, पर 'कालिख' लग चुकी है. फिलहाल मोदी खुद और उनकी पार्टी नहीं चाहती कि विकास और सुशासन का जो दावा वे कर रहे हैं, उस पर इन बयानों की आंच आए.
मोदी ने एक के बाद एक दो ट्विटर संदेशों में कहा, "'जो लोग बीजेपी का शुभचिंतक होने का दावा कर रहे हैं, उनके बेमतलब बयानों से कैंपेन विकास और गवर्नेंस के मुद्दों से भटक रही है. मैं ऐसे किसी भी ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयान को खारिज करता हूं और ऐसे बयान देने वालों से अपील कर रहा हूं कि वे ऐसा न करें."

Tuesday, April 22, 2014

क्यों छेड़ा गिलानी ने दूतों का प्रसंग?

क्या नरेंद्र मोदी ने वास्तव में कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के पास अपने दूत भेजे थे? भाजपा ने इस बात का खंडन किया है. सम्भवतः लोजपा के प्रतिनिधि गिलानी से मिले थे. मिले या नहीं मिले से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है कि गिलानी ने इस बात को ज़ाहिर क्यों कियाकश्मीर के अलगाववादी हालांकि भारतीय संविधान के दायरे में बात नहीं करना चाहते, पर वे भारतीय राजनेताओं के निरंतर सम्पर्क में रहते हैं. उनके साथ खुली बात नहीं होती, पर भीतर-भीतर होती भी है. इसमें ऐसी क्या बात थी कि कांग्रेस ने उसे तूल दी और भाजपा ने कन्नी काटी?

अगस्त 2002 में हुर्रियत के नरमपंथी धड़ों के साथ अनौपचारिक वार्ता एक बार ऐसे स्तर तक पहुँच गई थी कि उस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में हुर्रियत के हिस्सा लेने की सम्भावनाएं तक पैदा हो गईं. और उस पहल के बाद मीरवायज़ उमर फारूक और सैयद अली शाह गिलानी के बीच तभी मतभेद उभरे और हुर्रियत दो धड़ों में बँट गई. उस वक्त दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और राम जेठमलानी के नेतृत्व में कश्मीर कमेटी ने इस दिशा में पहल की थी. कश्मीर कमेटी एक गैर-सरकारी समिति थी, पर माना जाता था कि उसे केंद्र सरकार का समर्थन प्राप्त था. सरकार हुर्रियत की काफी शर्तें मानने को तैयार थी, फिर भी समझौता नहीं हो पाया. पर इतना ज़ाहिर हुआ कि अलगाववादी खेमे के भीतर भी मतभेद हैं. गिलानी के बयान को इस रोशनी में भी देखा जाना चाहिए. गिलानी के इस वक्तव्य की मीर वायज़ वाले धड़े ने निंदा की है.

Sunday, April 20, 2014

हमारी राजनीति में 'कट्टरता' का स्थान

राजनीति को क्या ‘परिवारों’ से मुक्ति मिलेगी?

खुदा न खास्ता 16 मई के बाद दिल्ली में मोदी सरकार बन जाए तो क्या होगा? हिन्दुत्व से ओत-प्रोत सरकारी फैसले होने लगेंगेमुसलमानों का जीना मुश्किल हो जाएगानिरंकुश और अहंकारी व्यवस्था कायम हो जाएगी? ये काल्पनिक सवाल हैं. पहले हमें देखना होगा कि परिणाम क्या होते हैं. पर ऐसा हुआ भी तो याद करें कि सन 1998 और फिर 1999 में बनी भाजपा-नीत दो सरकारों का अनुभव हिंसक, उग्र और बर्बर नहीं था. पर तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, नरेंद्र मोदी नहीं. गुजरात में सन 2002 के तीन या चार दिनों को छोड़ दें तो मोदी सरकार के काम-काज में निरंकुशता और बर्बरता का वह रूप नजर नहीं आया, जिसकी चेतावनी दी जा रही है. फिर भी कहा जा सकता है कि केंद्रीय सत्ता पर संघ परिवार का कब्जा होगा.

Saturday, April 19, 2014

आप और आईपीएल


हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
आज के अखबारों में दो लेखों ने मेरा ध्यान खींचा है। इनमें पहला है अमित बरुआ का जिन्होंने आम आदमी पार्टी की सम्भावनाओं पर लिखा है। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी कितनी सफल होगी इसपर इस किस्म की राजनीति का भविष्य निर्भर करेगा। अमित बरुआ मूलतः आप के पक्ष में हैं और उसे कांग्रेस, भाजपा की राजनीति के विकल्प के रूप में देखते हैं।  पर उनका कहना है कि इस चुनाव के बाद ही इस राजनीति की दशा-दिशा साफ होगी। उनके लेख का अंत इस प्रकार हैः-

While the Lok Sabha poll will definitely test AAP’s mettle, many pundits believe that the party has spread itself too thin and expanded much too quickly for its own good.
These pundits are of the view that the party might have had a better chance had it concentrated on fewer seats, but the die has been cast.
The people, however, will have the final say. And they have had a history of proving the pundits wrong.
पूरा लेख पढ़ें यहाँ 

आज हिंदुस्तान में प्रकाशित राम गुहा का आईपीएल क्रिकेट पर लेख पठनीय है। खेल की सामाजिक भूमिका को समझने के लिहाज से यह अच्छा लेख है।

चुनाव से जुड़े ओपीनियन पोल की बारीकियों पर ईपी़ब्ल्यू में प्रकाशित यह लेख अच्छा है। दिलचस्पी हो तो पढ़ें
http://www.epw.in/election-specials/status-opinion-polls.html