सन 2008 में यूरोप में आए वित्तीय संकट के केन्द्र में आइसलैंड जैसा छोटा देश था, जहाँ के बैंकों में लोगों ने अपनी बचत का सारा पैसा लगा रखा था। देखते-देखते आइसलैंड के बैंक बैठ गए। वहाँ की मुद्रा क्रोना की कोई हैसियत नहीं रह गई। उस आपाधापी में वहाँ की सरकार गिर गई। विश्व बैंक की मदद से पूरी अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाया गया। बहरहाल करीब सवा तीन लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश ने अपनी व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने का निश्चय किया है। पिछले साल यहाँ की संसद ने संवैधानिक व्यवस्था को परिभाषित करने में जनता की सलाह लेने का निश्चय किया। और दुनिया में पहली बार सोशल नेटवर्किंग के सहारे संविधान का एक प्रारूप बनकर सामने आया है, जिसे पिछले शुक्रवार को वहाँ की संसद की अध्यक्ष को सौंपा गया। इस प्रारूप पर अक्तूबर के महीने में वहाँ की संसद विचार करेगी।
Friday, August 5, 2011
फेसबुक लोकतंत्र का वक्त अभी नहीं आया
सन 2008 में यूरोप में आए वित्तीय संकट के केन्द्र में आइसलैंड जैसा छोटा देश था, जहाँ के बैंकों में लोगों ने अपनी बचत का सारा पैसा लगा रखा था। देखते-देखते आइसलैंड के बैंक बैठ गए। वहाँ की मुद्रा क्रोना की कोई हैसियत नहीं रह गई। उस आपाधापी में वहाँ की सरकार गिर गई। विश्व बैंक की मदद से पूरी अर्थव्यवस्था को रास्ते पर लाया गया। बहरहाल करीब सवा तीन लाख की आबादी वाले इस छोटे से देश ने अपनी व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने का निश्चय किया है। पिछले साल यहाँ की संसद ने संवैधानिक व्यवस्था को परिभाषित करने में जनता की सलाह लेने का निश्चय किया। और दुनिया में पहली बार सोशल नेटवर्किंग के सहारे संविधान का एक प्रारूप बनकर सामने आया है, जिसे पिछले शुक्रवार को वहाँ की संसद की अध्यक्ष को सौंपा गया। इस प्रारूप पर अक्तूबर के महीने में वहाँ की संसद विचार करेगी।
Tuesday, August 2, 2011
संसदीय व्यवस्था को प्रभावी बनाना भी हमारी जिम्मेदारी है
अगस्त का महीना भारतीय
स्वतंत्रता दिवस और 1942 की अगस्त क्रांति के सिलसिले में याद किया जाता है। या फिर
हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए बमों के कारण। लगता है कि इस साल अगस्त के महीने
में कुछ और क्रांतियाँ होंगी। इसकी शुरूआत कर्नाटक में मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा
के पराभव से हो चुकी है। लोकपाल संस्था प्रभावशाली होगी या नहीं, इसका संकेत कर्नाटक
के लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने दे दिया है। जिन्हें अभी तक अन्ना हजारे के पीछे भाजपा
का हाथ लगता था, शायद उनकी धारणा में कुछ बदलाव हो, पर इस मामले को राजनीति के ऊपर
ले जाकर देखने की ज़रूरत है।
आज से शुरू होने वाले सत्र में महत्वपूर्ण संसदीय
कार्य पूरे होंगे। ज्यादातर निगाहें लोकपाल विधेयक पर हैं इसलिए हम वहीं तक देख पा
रहे हैं। पर केवल लोकपाल विधेयक ही कसौटी पर नहीं है। देश की व्यवस्था को परिभाषित
करने के लिहाज से हम इस वक्त एक महत्वपूर्ण मुकाम पर खड़े हैं। संसद के इस सत्र में
और आने वाले सत्र में अनेक नए कानून और संविधान संशोधन होंगे। दूसरे अगले लोकसभा चुनाव
के पहले के राजनैतिक ध्रुवीकरण की शुरुआत अब होगी। और तीसरे तमाम घोटालों, बवालों और
झमेलों पर एक सार्थक बहस संसद में होगी, बशर्ते उसे होने दिया जाए। चौथे अन्ना का अनशन
हो या न हो, जनता की खुली संसद का दायरा बढ़ने वाला है।
मूल्य वृद्धि, भ्रष्टाचार, काला धन, तेलंगाना, एयर
इंडिया, रिटेल में एफडीआई, भूमि अधिग्रहण कानून, मुम्बई धमाके और विदेश-नीति से जुड़े
अनेक मामले कतार में खड़े हैं। इधर ए राजा ने अदालत में पी चिदम्बरम और मनमोहन सिंह
पर आरोप लगाकर भाजपा और वाम मोर्चे को अच्छे हथियार दे दिए हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण
रोजगार योजना यूपीए सरकार की टोपी में लगी कलगी की तरह है। पर इस योजना को लागू करने
में अनियमितताओं की लम्बी सूची भी विपक्ष के पास है। तो इसलिए बेहद रोचक शो शुरू होने
वाला है। राजनीति में टाइमिंग महत्वपूर्ण होती है। देखना यह है कि किसका होमवर्क सटीक
है। और इस दौरान कुछ नई बातों का पर्दाफाश भी होगा। येदुरप्पा से छुटकारा पाकर भाजपा
नैतिकता के ऊँचे धरातल पर खड़े होने का दावा करेगी। उधर बेल्लारी के रेड्डी बंधु भी
कुछ नए रहस्य खोलने वाले हैं। कई व्यक्तिगत और कई सार्वजनिक रहस्यों के खुलने का दौर
भी शुरू होगा अब।
शोर-शराबे को संसदीय कर्म मानें तो हमारे यहाँ इसकी
कमी नहीं। पर गम्भीर काम-काज के लिहाज से हम काफी पीछे हैं। संसद के पिछले दो सत्रों
में हमारी संसद ने सिर्फ पाँच बिल पास किए हैं। दोनों सदनों के पास 81 बिल विचारार्थ
पड़े हैं। उम्मीद है कि भूमि अधिग्रहण बिल, डायरेक्ट टैक्सेज कोड बिल, उच्च शिक्षा
में सुधार के बाबत विधेयक, महिलाओं को पंचायत में 50 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक,
केन्द्रीय शिक्षा संस्थानों में आरक्षण से जुड़ा विधेयक औस तमाम विधेयक है। इनमें से
कुछ स्थायी समिति में हैं। कुछ की रिपोर्ट आ गई हैं। उनपर विचार तभी होगा, जब संसद
को समय मिलेगा।
लोकपाल विधेयक को पेश करने के पहले स्थायी समिति
में भेजा जाएगा। यह मसला राजनैतिक रंग ले चुका है, इसलिए शायद हमारा ध्यान उधर ही रहेगा,
पर सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को लेकर अभी कई कानून और हैं। इनमे एक है ह्विसिल
ब्लोवर बिल, जिसकी माँग लम्बे अर्से से हो रही है पर जो बन नहीं पा रहा। इसी तरह ज्युडीशियल
एकाउंटेबिलिटी बिल है, जिसके आधार पर सरकार न्यायपालिका को लोकपाल के दायरे से बाहर
रखना चाहती है। विदेशी अधिकारियों को भारतीय कम्पनियाँ घूस न देने
पाएं इसके लिए भी एक बिल है। अभी हम खाद्य सुरक्षा जैसे कानूनों के बारे में ज्यादा
बात ही नहीं कर पाए हैं। बहरहाल, व्यवस्था को पारदर्शी, जिम्मेदार और कुशल बनाने के
लिए अनेक कानूनों का प्रस्ताव है। यदि आप संसद के सामने विचाराधीन कानूनों की सूची
पर ध्यान दें तो समझ में आएगा कि ये कानून कितने महत्वपूर्ण हैं और इनके बारे में फैसला
करने में देरी का अर्थ क्या है। बेशक यह सब राजनैतिक चक्रव्यूहों को पार किए बगैर सम्भव
नहीं होगा।
अन्ना हजारे के अनशन के बाद सरकार ने उनके पाँच सदस्यों
को शामिल करके एक ड्राफ्टिंग कमेटी ज़रूर बनाई, पर आज उसका कोई मतलब समझ में नहीं आता।
अंततः सरकार ने बिल का जो समौदा तैयार किया है, वह संयुक्त समिति का मसौदा नहीं है।
तो क्या अन्ना को फिर से अनशन करना चाहिए? या फिर संसद के विवेक पर सब
कुछ छोड़ देना चाहिए? कानून तो संसद में ही बनेगा, पर संसद के बाहर की
आवाजों को भी भीतर तक सुना जा सकता है। हाल के घटनाक्रम के बाद कम से कम इतना ज़रूर
हुआ है कि मूल्य, विचार और नैतिकता की बातें सुनी जाने लगीं हैं। जिस वक्त कैबिनेट
में इस मसौदे पर चर्चा हो रही थी थी, मनमोहन सिंह समेत कुछ मंत्रियों ने सुझाव दिया
कि इसमें प्रधानमंत्री के पद को भी लोकपाल के दायरे के भीतर लाना चाहिए। उनका कहना
था कि ऐसा करके हम जनता को बेहतर संदेश देते हैं। बहरहाल कैबिनेट का फैसला हो चुका
है। अब यह कानून देश की राजनीति के पाले में हैं। क्या यह कानून अगले चुनाव का मुद्दा
बन सकता है?
शायद कोई अकेला कानून किसी चुनाव का मुद्दा न बने,
पर व्यवस्थागत पारदर्शिता बन सकती है। धीरे-धीरे हम विचार के दायरे को फोकस करते जा
रहे हैं। इसकी एक शुरुआत आज से होगी, भारतीय संसद में।
Monday, July 25, 2011
फई के अबोध या सुबोध भारतीय भाई
नार्वे में आतंकवादी कार्रवाई के बाद अंदेशा
इस बात का था कि इसका रिश्ता कहीं न कहीं अल कायदा या उसकी किसी शाखा से होगा। अंसार-अल-इस्लाम
नाम के किसी संगठन ने इसकी ज़िम्मेदारी भी ले ली। और इंटरनेट पर विश्लेषण भी शुरू हो
गए कि अल ज़वाहीरी ने हाल में नॉर्वे का नाम भी हमलों के लिए लिया था। बहरहाल बम धमाके
और उसके बाद एक सैरगाह पर धुआंधार गोलीबारी करने वाला व्यक्ति इस्लाम-विरोधी
आतंकवादी लगता है। क्या ईसाई आतंकवादी भी दुनिया में हैं?
क्या नव-नाज़ी कोई बड़ी कार्रवाई करना चाहते हैं?
क्या आतंकवादियों का संसार अलग है? ऐसे सवालों पर निगाह जाती
है,
पर
हमारे दिमाग पर मुम्बई धमाके हावी थे, सो हमारा निगाहें भारत-पाकिस्तान
रिश्तों की ओर जाती है। बहरहाल अभी हमारे इलाके में गतिविधियों का मौसम है। और इसी बुधवार को होने वाली भारत-पाक वार्ता विचार के केन्द्र में रहेगी।
भारत-पाक वार्ता के एजेंडा से हटकर देखें
तो सैयद गुलाम नबी फई के प्रकरण ने कुछ दूसरे कारणों से भारत के लोगों का ध्यान खींचा
है। पाकिस्तान सरकार और आईएसआई पिछले दो दशक से कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल (केएसी) को
पैसा दे रही थी। कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल एक एनजीओ है। उसका उद्देश्य कश्मीरी लोगों
के आत्मनिर्णय के अधिकार-सम्बद्ध
संघर्ष से अमेरिकी नागरिकों का ज्ञानवर्धन करना है। अमेरिकी कानूनों के अनुसार विदेशी
सरकारें अमेरिकी नीतियों को प्रभावित करने के लिए देश में इस प्रकार के प्रचार कार्य
के लिए पैसा नहीं लगा सकतीं। पर वस्तुतः केएसी लॉबीइंग कर रही थी। अमेरिका में लॉबीइंग
वैध है और तमाम कम्पनियाँ,
नेता
और अधिकारी इस काम में जुड़े हैं। बाहरी तौर पर यह मामला छोटा लगता है, पर
इसमें आईएसआई के ब्रिगेडियर जावेद अज़ीज़ और कुछ दूसरे लोगों का नाम आने के बाद इसकी
रंगत बदल गई है। फाई की गिरफ्तारी के बाद पाकिस्तान सरकार बजाय दबाव में आने के और
उग्र होकर अमेरिका के खिलाफ बोल रही है। बहरहाल वे अपनी जानें।
पत्रकार के रूप में काम करने वाले व्यक्ति को अक्सर अपनी देशभक्ति की परिभाषा को व्यापक बनाना होता है। और उन तर्कों को सुनना और पेश करना होता है जो हमारे देश के औपचारिक रुख के अनुरूप नहीं होते। क्या इस खाँचे में दिलीप पडगाँवकर, गौतम नवलखा और अरुंधती रॉय को रखकर देखें तो बात सामान्य सी नहीं लगती? सामान्य सी लगती है। और हम मानते हैं कि भारत एक खुला लोकतंत्र है। हम बड़ी हद तक खुले बहस को स्वीकार करते हैं। पिछले दिनों अरुंधती रॉय के मामले में हमने माना भी। पर इस मामले को विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बाहर लेकर जाएं तो कुछ और बातें नज़र आती हैं।
हमारे यहाँ फई प्रकरण का दूसरा पहलू चर्चा
का विषय है। गुलाम नबी फई ने भारत के अनेक उदारवादी लेखकों, पत्रकारों
और नेताओं से रिश्ते बना रखे थे। वे उन्हें अमेरिका में कश्मीर के बाबत सम्मेलनों और
सेमिनारों में बुलाते भी थे। खर्चे-पानी के साथ। इनमें तमाम बड़े नाम हैं, पर
सबसे महत्वपूर्ण नाम दिलीप पडगाँवकर का है, जो इन दिनों भारत सरकार
की ओर से कश्मीर लोगों से संवाद स्थापित कर रहे हैं। क्या
दिलीप पडगाँवकर का फाई के निमंत्रण पर जाना गलत था? गलत नहीं भी था तो क्या
भारत सरकार की ओर से कश्मीरियों से उनके संवाद में कोई अड़चन है?
साथ ही क्या भारत के उदारवादी जाने-अनजाने फई के जाल में फँस गए थे?
या फाई पूर्णतः निर्दोष हैं और वे भारत की राजनयिक साजिश के शिकार हुए हैं, जैसाकि
सैयद अली शाह गिलानी कह रहे हैं?
फई के मामले पर वर्जीनिया की अदालत में कार्यवाही
कुछ दिन के लिए टल गई है। यों भी उसके कानूनी पहलू पर गहराई से जाने पर हमें कुछ नहीं
मिलेगा। इतना साफ है कि गुलाम नबी फई को भारतीय कश्मीर छोड़े तीन दशक हो गए हैं। कश्मीर
के बारे में उनका दृष्टिकोण भारतीय दृष्टिकोण के विपरीत है। कश्मीर के बाबत अलगाववादी
दृष्टिकोण में भी दो धाराएं हैं। एक धारा चाहती है कि कश्मीर पाकिस्तानी कब्ज़े में
रहे। और दूसरी चाहती है कि कश्मीर स्वायत्त और स्वतंत्र हो। सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों
और इंडिपेंडेंस ऑफ इंडिया एक्ट के तहत कश्मीर के स्वतंत्र देश बनने की संभावना नहीं
हो सकती। बहरहाल प्रकट रूप में फई एक खुले संवाद की अवधारणा के साथ भारतीय उदारवादियों
को ले जाते थे। पर उनका मंच तटस्थ या निष्पक्ष नहीं है। उनका साफ उद्देश्य पाकिस्तानी
एजेंडा को पूरा करना है। और अब यह बात भी सामने आ गई है कि इसके लिए वे पाकिस्तान सरकार
और आईएसआई से पैसा ले रहे थे। पैसा जमा करने का उनका बेहतरीन तरीका यह था कि वे अमेरिका
में पाकिस्तानी कारोबारियों से दान लेते थे। जिसके बदले में उन्हें टैक्स में छूट मिलती
थी। ऊपर से पाकिस्तान सरकार उस रकम की भरपाई उन्हें या उनके परिवार को पाकिस्तान में
कर देती थी।
यह बात समझ में नहीं आती कि अबोध भारतीय
बुद्धिजीवियों, लेखकों और पत्रकारों को फई के एजेंडा का अनुमान नहीं रहा होगा। रिपोर्ट
बताती हैं कि फई के सम्पर्कों से यह साफ था कि वे पाकिस्तान सरकार के लिए काम कर रहे
थे। पाकिस्तान सरकार का कहना है कि अमेरिका में लोकतांत्रिक पद्धति से लॉबीइंग करना
कानूनन सही है। पर कानून के निहितार्थ कुछ और भी हैं। दो दशक से चल रही फई की गतिविधियों
की जानकारी अमेरिकी प्रशासन को नहीं थी, यह भी नही माना जा सकता। पर भारतीय बुद्धिजीवियों
की समझ एक पहेली है।
Saturday, July 23, 2011
नॉर्वे में गोलीबारी जेहादी कार्रवाई नहीं?
नॉर्वे के इस 32 वर्षीय नौजवान का नाम है एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक। इसने उटोया के पास एक द्वीप पर बने सैरगाह में यूथ कैम्प पर गोलियाँ चलाकर तकरीबन 80 लोगों की जान ले ली।
शुरूआती खबरों से पता लगा है कि इसने पुलिस की वर्दी पहन रखी थी। और इसके पास एक से ज्यादा बंदूकें थीं। इस घटना के ङीक पहले ओस्लो में प्रधानमंत्री निवास के पास एक इमारत में हुए विस्फोट में 7 लोगों की मौत हे गई। अभी तक की जानकारी यह है कि यह आदमी दक्षिणपंथी विचार का है और इस्लाम के खिलाफ लिखता रहा है। यह अपने आप को राष्ट्रवादी और कंजर्वेटिव ईसाई कहता है।
सवाल है ये दोनों घटनाएं क्या एक-दूसरे से जुड़ी हैं? ब्रीविक ने ट्विटर पर सिर्फ एक बार ट्वीट किया है। 17 जुलाई के उसके ट्वीट में जो कहा है वह अंग्रेज दार्शनिक जॉन स्टुअर्ट मिल का एक उद्धरण है, "One person with a belief is equal to the force of 100 000 who have only interests."
उसका फेस बुक अकाउंट कहता है कि वह शिकार, वर्ल्ड ऑफ वॉरक्राफ्ट तथा मॉडर्न वॉरफेयर जैसे खेल पसंद करता है और राजनैतिक विश्लेषण तथा स्टॉक एनलिसिस भी उसके शौक हैं।
शुरू में ऐसी खबरें थीं कि बम धमाकों की जिम्मेदारी अल कायदा से जुड़े किसी ग्रुप ने ली है। सवाल है कि क्या दोनों घटनाओं के अलग-अलग कारण हैं?
बीबीसी की रपट
गार्डियन की खबर
Not a Jehadi operation
Friday, July 22, 2011
भारत-पाकिस्तान-बर्फ पिघलानी होगी
इसी मंगलवार को पाकिस्तान
के कार्यवाहक राष्ट्रपति फारुक एच नाइक ने 34 वर्षीय हिना रब्बानी खार को देश के विदेश
मंत्री पद की शपथ दिलाई। संयोग से जिस वक्त उन्होंने शपथ ली उस वक्त राष्ट्रपति और
प्रधानमंत्री दोनों देश के बाहर थे। हिना पिछले पाँच महीने से विदेश राज्यमंत्री के
स्वतंत्र प्रभार के साथ काम कर रहीं थीं। उन्हें अचानक इसी वक्त शपथ दिलाकर मंत्री
बनाने की ज़रूरत दो वजह से समझ में आती है। एक तो वे 22-23 जुलाई
को बाली में हो रहे आसियान फोरम में पाकिस्तानी दल का नेतृत्व करेंगी। और शायद उससे
बड़ी वजह यह है कि वे 27 जुलाई को भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्ण से बातचीत के लिए
दिल्ली आ रहीं हैं। 13 जुलाई के मुम्बई धमाकों के फौरन बाद हो रही भारत-पाकिस्तान वार्ता
कई मायनों में महत्वपूर्ण है। 26 नवम्बर 2008 को हुए मुम्बई हमले के बाद से रुकी पड़ी
बातचीत फिर से शुरू होने जा रही है। और उन धमाकों के ठीक दो हफ्ते बाद जिन्होंने
26/11 की याद ताज़ा कर दी। पाकिस्तान चाहता तो हिना रब्बानी खार
राज्यमंत्री के रूप में भी बातचीत के लिए आ सकतीं थीं। या मुम्बई धमाकों का नाम लेकर
बातचीत को कुछ दिन के लिए टाला जा सकता था। पर ऐसा नहीं हुआ। इसका मतलब है कि दोनों
देशों ने परिस्थितियों को समझा है।
19 जुलाई को जिस रोज़
हिना शपथ ले रहीं थीं उस रोज दो घटनाएं और हो रहीं थीं, जिनका भारत-पाकिस्तान वार्ता
से सीधा रिश्ता न सही, पर पृष्ठभूमि से रिश्ता है। 19 को दिल्ली में भारत-अमेरिका सामरिक
वार्ता चल रही थी, जिसके लिए विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन दिल्ली आईं थीं। उसी रोज़
अमेरिका के वर्जीनिया की एक अदालत में अमेरिकी जाँच एजेंसी एफबीआई ने 45 पेज का हलफनामा
दाखिल किया, जिसमें कहा गया है कि पाकिस्तान सरकार और आईएसआई पिछले दो दशक से कश्मीरी
अमेरिकन कौंसिल (केएसी) को पैसा दे रही थी। कश्मीरी अमेरिकन कौंसिल एक एनजीओ है। उसका
उद्देश्य कश्मीरी लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार-सम्बद्ध संघर्ष से अमेरिकी नागरिकों
का ज्ञानवर्धन करना है। अमेरिकी कानूनों के अनुसार विदेशी सरकारें अमेरिकी नीतियों
को प्रभावित करने के लिए देश में इस प्रकार के प्रचार कार्य के लिए पैसा नहीं लगा सकतीं।
एफबीआई ने सैयद गुलाम नबी फाई नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है, जो यह कश्मीर
सेंटर चलाते थे। एक और पाकिस्तानी का नाम इसमें है, जिसे पकड़ा नहीं जा सका है। बाहरी
तौर पर यह मामला छोटा लगता है, पर इसमें आईएसआई के ब्रिगेडियर जावेद अज़ीज़ और कुछ
दूसरे लोगों का नाम आने के बाद इसकी रंगत बदल गई है।
भारत-पाकिस्तान रिश्ते
दो दिन में नहीं बदल सकते। लाहौर बस यात्रा से आगरा सम्मेलन तक का हमारा अनुभव यही
है। पर वे लगातार खराब भी नहीं रह सकते। मुम्बई धमाकों से मुम्बई धमाकों तक का संदेश
भी यही है। रिश्तों को बिगाड़े रखने वाली ताकतें दोनों देशों के भीतर मौजूद हैं, जो
एक-दूसरे को प्राण वायु प्रदान करतीं हैं। पर पाकिस्तान में एक पूरा प्रतिष्ठान भारत-विरोध
के नाम पर खड़ा है। उसका मूल स्वर है ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’। पाकिस्तानी राजनीति और सेना ने कश्मीर के मामले को बेहद ऊँचे तापमान पर गर्मा
कर रखा है। पाकिस्तान को हर तरह के भारतीय संदर्भों से काट कर एक कृत्रिम देश बसाने
की कामना उसे धीरे-धीरे तबाही की ओर ले जा रही है। इस प्रयास में इस देश ने अपनी सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान तक को मिटाना शुरू कर दिया है। इसी पाकिस्तान के भीतर दो धारणाएं और काम करतीं
हैं। एक है वहाँ उभरती सिविल सोसायटी की, जिसके मन में देश को आधुनिक और प्रगतिशील
बनाने की इच्छा है। दूसरी है भारत के साथ सांस्कृतिक, सामाजिक रिश्ते बनाए रखने की
कामना। ऐसा नहीं मान लेना चाहिए कि पूरा पाकिस्तान जेहादी मानसिकता का शिकार है। हाँ
ऐसी कामना जरूर कुछ लोगों के मन में है कि इस देश को जल्द से जल्द जेहादिस्तान बना
दिया जाए। देश की गरीबी और अशिक्षा इस मानसिकता की पैठ बनाए रखने में मददगार है।
बहरहाल, भारत के साथ
रिश्तों का बनना-बिगड़ना पाकिस्तान के अंदरूनी हालात पर भी निर्भर करेगा। यह पहला मौका
है जब पाकिस्तान में जम्हूरी सरकार इतने लम्बे दौर तक चली है। यदि यह अपना कार्यकाल
पूरा कर लेती है तो एक बड़ी उपलब्धि होगी। देश की राजनैतिक केमिस्ट्री को इसके साथ
ही बदलना होगा। इसके आर्थिक बदलाव से भी राजनैतिक अवधारणाओं में बदलाव आएगा। सतत जेहादी
माहौल में रहकर आधुनिक किस्म का आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। एकबारगी पाकिस्तानी मध्य
वर्ग की जड़ें जम जाएंगी तो फैसले बदल जाएंगे। पर इस काम में तकरीबन दस साल और लगेंगे।
तब तक कई किस्म के ऊँच-नीच से हमारा सामना होगा। धमाकों के गर्दो-गुबार भी हो सकते
हैं और बातचीत के खुशनुमा मौके भी।
पाकिस्तान अपने जन्म
के बाद से भारत-विरोध की जिस ग्रंथि से पीड़ित है वह उसे पहले पश्चिमी देशों की ओर
ले गई। और अब उसे चीन की ओर ले जा रही है। इस दौरान उसने विदेशी सहायता के सहारे जीना
सीख लिया है। पश्चिमी देश तो मुफ्त की मदद दे सकते थे, पर चीन से ऐसी उम्मीद नहीं करनी
चाहिए। दूसरे पाकिस्तान को अपनी असुरक्षा ग्रंथि से बाहर आना चाहिए। इस असुरक्षा ने
उसे अफगानिस्तान की ओर धकेल दिया है। अफगानिस्तान में विकास के खासे लम्बे दौर की ज़रूरत
है। उसके पहले वहाँ राजनैतिक शांति चाहिए। पाकिस्तान वहाँ भारत की उपस्थिति नहीं चाहता।
यह नासमझी और इतिहास-विरोधी बात है।
भारत-पाकिस्तान बातचीत
में सबसे ज्यादा जिन लफ्ज़ो का इस्तेमाल होता है वे हैं ‘कांफिडेंस बिल्डिंग मैज़र्स(सीबीएम)’। इस सीबीएम का रास्ता आर्थिक
है। दोनों देशों के बीच आर्थिक मामलों में सहयोग की जबर्दस्त सम्भावनाएं मौजूद हैं,
पर पाकिस्तान का ‘कश्मीर कॉज़’ व्यापारिक सहयोग में आड़े आता
है। हम अक्सर चीनी या प्याज लेते-देते रहते हैं, पर इससे आगे नहीं जाते। दोनों देशों
के बीच इस वक्त करीब दो अरब डॉलर का सालाना व्यापार है। इसके मुकाबले दुबई और सिंगापुर
वगैरह के रास्ते होने वाला छद्म-व्यापार कम से कम चार अरब का है। भारत-पाकिस्तान वार्ता
की सुगबुगाहट पिछले कई महीनों से चल रही है। पिछले अप्रेल में दोनों देशों के विदेश
सचिवों की बैठक में कुछ फैसले हुए। दक्षिण एशिया मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के वास्ते
पाकिस्तान की ओर से भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने में देर हो रही है। हालांकि
अब संकेत हैं कि यह काम हो जाएगा।
दोनों देशों के बीच राजनैतिक
धरातल पर रिश्ते कितने ही खराब रहे हों, दोनों देशों के व्यापारियों के रिश्ते बहुत
अच्छे हैं। 26/11 के बाद से तमाम वार्ताएं रुक गईं, पर व्यापार किसी न किसी
शक्ल में चलता रहा। वह तब जबकि औपचारिक रूप से अड़ंगे लगते रहे। कश्मीर में हालात सामान्य
करने में नियंत्रण रेखा पर व्यापार की अनुमति मिली है। अभी हफ्ते में दो दिन व्यापार
होता है। दोनों ओर के व्यापारी चाहते हैं कि इसके दिन बढ़ाए जाएं। दोनों के बीच किसी
किस्म की बैंकिंग व्यवस्था नहीं है, इसलिए पूरा व्यापार बार्टर के आधार पर होता है।
दोनों ओर के व्यापारी इस मामले को राजनैतिक बनने नहीं देते। इसी सोमवार को दोनों देशों
के बीच नियंत्रण रेखा के व्यापार को लेकर भी बातचीत हुई है। कश्मीर की समस्या के समाधान
का एक व्यावहारिक रास्ता यह है कि धीरे-धीरे नियंत्रण रेखा को पारदर्शी बना दिया जाय।
यानी आवागमन में पाबंदिया न रहें। यह काम व्यापार के मार्फत अच्छी तरह से हो सकता है।
एकबारगी लोगों के आर्थिक हित जुड़ेंगे तो हिंसा के बादल छँटेंगे।
संयोग है कि पिछले साल
जुलाई में भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा की पाकिस्तान यात्रा के दौरान पाकिस्तान
के तत्कालीन विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी के कड़वे वक्तव्य के कारण माहौल खराब हो
गया था। दोनों देशों के राजनयिकों ने हालात को सम्हाला। शाह महमूद कुरैशी को इस साल
फरवरी में अमेरिका विरोधी वक्तव्यों के कारण हटा दिया गया। उनकी जगह आईं नई विदेश मंत्री
शायद रिश्तों में हिना की खुशबू बिखेरने में कामयाब हों। आमीन।
जनवाणी में प्रकाशित
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