देस-परदेश
कश्मीर की पहेली-1पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष जनरल सैयद आसिम मुनीर ने पिछले शनिवार को कहा कि हमारी सेना पूरी ताक़त के साथ दुश्मन को जवाब देने के लिए तैयार है. पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष के तौर पर यह सामान्य बयान है, पर यह समझने की जरूरत है कि यह बयान क्यों दिया गया है. उन जटिलताओं को समझना चाहिए, जो जम्मू-कश्मीर विवाद से जुड़ी हैं.
गत 29 नवंबर को नया पद संभालने के बाद जनरल
मुनीर पहली बार पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर के दौरे पर आए थे. वहाँ जाकर
उन्होंने कहा कि भारतीय नेतृत्व ने गिलगित-बल्तिस्तान और कश्मीर को लेकर हाल में ग़ैर-जिम्मेदाराना
बयान दिए हैं, इसलिए मैं साफ़ करना चाहता हूं कि पाकिस्तान की सेना अपने इलाके के
एक-एक इंच की रक्षा करने को तैयार है.
रक्षामंत्री का बयान
पहली नजर में यह बात पाकिस्तानी राजनीति के
आंतरिक इस्तेमाल के लिए कही गई है. ऐसे बयान वहाँ से आते ही रहते हैं. यह भी माना जा
सकता है कि यह बात हाल में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और सेना की नॉर्दर्न कमांड के
अध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल उपेंद्र द्विवेदी के बयानों के जवाब में कही गई है.
उन वक्तव्यों से संदेश गया था कि शायद
पाक-अधिकृत कश्मीर को वापस लेने के लिए भारत फौजी कार्रवाई करने का विचार कर रहा
है. व्यावहारिक परिस्थितियों को देखते हुए नहीं लगता कि भारत का इरादा सैनिक
कार्रवाई करने का है.
यूक्रेन-युद्ध से पैदा हुए घटनाचक्र से भी लगता
नहीं कि भारत इस समय युद्ध का जोखिम मोल लेना चाहेगा. वह इस समय जी-20 का अध्यक्ष
भी है, इसलिए वैश्विक-शांति को भंग करने की तोहमत भी भारत अपने ऊपर नहीं लेना
चाहेगा. पर रक्षामंत्री का बयान भी निराधार नहीं है. उसके पीछे दो कारण नजर आते
हैं. एक, डिप्लोमैटिक और दूसरा आंतरिक राजनीति से जुड़ा है.
ताकि सनद रहे
भारत इस बात को रेखांकित करना चाहता है कि
कश्मीर विवाद का मतलब है, कश्मीर पर पाकिस्तानी कब्जा. हमें वह ज़मीन वापस चाहिए. यह
भी लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में पीओके की वापसी को भी बीजेपी एक मुद्दा
बना सकती है. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कश्मीर से अनुच्छेद 370 की वापसी हुई थी.
इस प्रक्रिया की सहज परिणति है शेष जमीन की वापसी.
गत 27 अक्टूबर को श्रीनगर में शौर्य दिवस के मौके पर रक्षामंत्री राजनाथ ने कहा था कि हमारी यात्रा उत्तर की दिशा में जारी है. हम पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को भूले नहीं हैं, बल्कि एक दिन उसे वापस हासिल करके रहेंगे. जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में सर्वांगीण विकास का लक्ष्य पीओके के हिस्से वाले गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचने के बाद ही हासिल होगा.
गिलगित-बल्तिस्तान जरूरी
उन्होंने यह भी कहा कि हमारी यात्रा तब पूरी
होगी जब हम 22 फ़रवरी 1994 को
भारतीय संसद में पारित प्रस्ताव को अमल में लाएंगे और उसके अनुरूप हम अपने बाक़ी
बचे हिस्से जैसे गिलगित-बल्तिस्तान तक पहुंचेंगे. इस सिलसिले में भारतीय संसद का
यह प्रस्ताव बहुत महत्वपूर्ण है.
तीन साल पहले 5 अगस्त, 2019
को भारत ने कश्मीर पर अनुच्छेद 370 और 35 को निष्प्रभावी करके लम्बे समय से चले आ
रहे एक अवरोध को समाप्त कर दिया. राज्य का पुनर्गठन भी हुआ है और लद्दाख को
जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है. पर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर का मामला अभी
अधूरा है.
कश्मीर हमारे देश का अटूट अंग है, तो उस हिस्से को भी वापस लेना चाहिए, जो
पाकिस्तान के कब्जे में है. क्या हम कभी उसे वापस ले सकेंगे? हाँ, तो कैसे? इन सवालों पर विचार करने की जरूरत है. असंभव तो
370 की वापसी भी लगती थी.
समय मत पूछिए
गृहमंत्री अमित शाह ने नवम्बर 2019 में एक टीवी
कार्यक्रम में कहा था कि पाक अधिकृत कश्मीर और जम्मू-कश्मीर के लिए हम जान भी दे
सकते हैं और देश में करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिनके मन में
यही भावना है.
साथ में उन्होंने यह भी कहा कि इस सिलसिले में
सरकार का जो भी ‘प्लान ऑफ एक्शन’ है, उसे टीवी डिबेट
में घोषित नहीं किया जा सकता. ये सब देश की सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दे हैं,
जिन्हें ठीक वैसे ही करना चाहिए, जैसे
अनुच्छेद 370 को हटाया गया. इसके समय की बात मत पूछिए तो अच्छा है.
इसके पहले संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए
भी उन्होंने कहा था कि पीओके के लिए हम जान दे सकते हैं. गृहमंत्री के इस बयान के
पहले विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सितम्बर 2019 में एक मीडिया कॉन्फ्रेंस में कहा कि
पाकिस्तान के कब्जे में जो कश्मीर है, वह भारत का
हिस्सा है और हमें उम्मीद है कि एक दिन इस पर हमारा अधिकार हो जाएगा.
संसद का प्रस्ताव
इन दोनों बयानों के बाद जनवरी 2020 में तत्कालीन
भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे ने सेना दिवस के पहले एक संवाददाता
सम्मेलन में कहा कि यदि देश की संसद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर को वापस लेने का आदेश
देगी तो हम कारवाई कर सकते है. उन्होंने कहा, संसद
इस बारे में प्रस्ताव पास कर चुकी है कि पीओके भारत का अभिन्न अंग है.
आप पूछ सकते हैं कि इन बयानों के पीछे क्या कोई
संजीदा सोच-विचार था? बेशक था. अब देखें कि भारतीय संसद का प्रस्ताव
क्या है. संसद के दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994 को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित
किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है.
इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के हिस्सों को खाली करना होगा. प्रस्ताव
में कहा गया कि पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर
क्षेत्रों को खाली करे.
अमेरिकी दबाव
इस प्रस्ताव की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि उस
दौर में कश्मीर में आतंकी गतिविधियाँ अपने चरम पर थीं. साथ ही पाकिस्तान सरकार
अमेरिका की मदद से भारत पर दबाव डाल रही थी कि कश्मीर को लेकर कोई समझौता हो जाए. क्लिंटन-प्रशासन
ने 1993 से ही यह दबाव डालना शुरू कर दिया था. जून 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री
पीवी नरसिंहराव की अमेरिका-यात्रा का कार्यक्रम था.
अमेरिका उस समय अफगानिस्तान में पाकिस्तान की
मदद कर रहा था और पाकिस्तान का लक्ष्य था कश्मीर. भारतीय संसद के उस प्रस्ताव ने न
केवल अमेरिका, बल्कि दुनिया के सामने स्पष्ट किया भारत के लिए यह मामला बहुत गंभीर
है. संसद के प्रस्ताव से हटना किसी भी सरकार के लिए संभव नहीं.
इस मसले से जुड़े कई सवाल हैं. पीओके से हमारा
आशय कश्मीर के मुजफ्फराबाद से जुड़े शेष हिस्से के अलावा गिलगित-बल्तिस्तान और
शक्सगम घाटी से भी है, जिसे पाकिस्तान ने चीन को तोहफे में दे
दिया था. पाकिस्तान के पास इस जमीन की मिल्कियत नहीं थी, तब
उसने यह जमीन किस अधिकार से चीन को दे दी?
पाकिस्तान की भूमिका
पाकिस्तान का क्या हक बनता है? वह कश्मीर के विवाद में पार्टी किस आधार पर है और विवाद से उसका रिश्ता
क्या है? ऐसे बहुत से सवालों के जवाब समय देगा. खासतौर
से यदि भारत को अफगानिस्तान में अपने हितों की रक्षा करनी है, तो गिलगित-बल्तिस्तान को अपने अधिकार में करना जरूरी है.
अब सवाल दो हैं. क्या भारत का लम्बे समय तक इस
मामले में रक्षात्मक रुख अपनाना सही होगा? दूसरा, हमारे पास विकल्प क्या है?
सैनिक कार्रवाई के बारे में सोचें, तो उसमें तमाम तरह के जोखिम हैं. दूसरा रास्ता राजनयिक गतिविधियाँ
बढ़ाने से जुड़ा है. इसमें देर लगेगी, पर उससे
सम्भावनाएं बनेंगी. इसलिए हमें अब दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाना चाहिए.
राजनयिक कार्यक्रम?
सबसे पहले हमें विलय-पत्र की वैधानिकता पर जोर
देना चाहिए. दूसरे प्रतीक रूप में ही सही किसी औपचारिक व्यवस्था को रूप देना चाहिए,
जो साबित करे कि पाकिस्तान का कब्जा अवैध है. हमने तिब्बत की
निर्वासित सरकार को अनुमति दी है, तो कश्मीर पर हम पीछे क्यों रहें?
पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र की निर्वासित-व्यवस्था के कानूनी पहलुओं पर
जरूर विचार करें. इसके लिए सांविधानिक-व्यवस्थाएं करनी पड़ें, तो करें. अभी तक जम्मू-कश्मीर की लोकसभा और विधानसभा सीटें खाली पड़ी
रहती हैं. अब उसके आगे सोचना चाहिए.
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और गिलगित-बल्तिस्तान
में पाकिस्तान को लेकर असंतोष है. इनमें से काफी लोग यूरोप और अमेरिका में रहते
हैं. इन्हें भारत में जगह देनी चाहिए. यह कैसे सम्भव है, इसपर
विचार करना चाहिए.
हालांकि हमने चीन के सामने अपना विरोध व्यक्त
किया है, पर किसी औपचारिक-प्रस्ताव के माध्यम से,
भले ही वह संसद का प्रस्ताव हो, चीन
से दो-टूक कहना चाहिए कि हमारी जमीन पर आपकी गतिविधियाँ अवैध हैं. भारत की तिब्बत
और ताइवान नीतियों पर भी पुनर्विचार किया जाना चाहिए.
इनके अलावा अब हमें कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र
प्रस्तावों और शिमला समझौते के बारे में अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करना चाहिए.
हमें स्पष्ट करना चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र का नहीं हमारी संसद का प्रस्ताव चलेगा.
पाकिस्तानी कोशिशें
पाकिस्तान की कोशिश है कि गिलगित-बल्तिस्तान को
देश का पाँचवाँ सूबा घोषित किया जाए. ऐसे में वैश्विक जनमत भी पाकिस्तान के खिलाफ
बनाने के प्रयास होने चाहिए. ब्रिटिश कंजर्वेटिव पार्टी के तत्कालीन सांसद बॉब
ब्लैकमैन की ओर से 23 मार्च 2017 को ब्रिटिश संसद में एक प्रस्ताव पेश किया गया,
जिसे बाद में पास कर दिया गया.
इसमें कहा गया कि गिलगित-बल्तिस्तान
जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है, जिसपर पर पाकिस्तान ने अवैध कब्जा कर
रखा है. उसे अपना कब्जा छोड़ना चाहिए. वैश्विक राजनीति में बदलाव आया है. अमेरिका,
ब्रिटेन और ईयू देशों को चीन के नेतृत्व में बन रहा नया गठजोड़ दिखाई
पड़ रहा है. (जारी)
अगले अंक में पढ़ें किस तरह उलझा कश्मीर का
मसला
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