Wednesday, December 21, 2022

तवांग-प्रकरण और चीन की वैश्विक-राजनीति

 


देस-परदेश

गत 9 दिसंबर को तवांग के यांग्त्से क्षेत्र में हुई हिंसक भिड़ंत को भारत-चीन रिश्तों के अलावा वैश्विक-संदर्भों में भी देखने की जरूरत है. अक्तूबर के महीने में हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस से दो संदेश निकल कर आए थे. एक, राष्ट्रपति शी चिनफिंग की निजी ताकत में इज़ाफा और उनके नेतृत्व में चीन की आक्रामक मुद्रा. दूसरी तरफ उसके सामने खड़ी मुसीबतें भी कम नहीं हैं, खासतौर से कोविड-19 वहाँ फिर से जाग गया है. 

पिछले साल फरवरी में रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद से विश्व-व्यवस्था को लेकर कुछ बुनियादी धारणाएं ध्वस्त हुई हैं. इनमें सबसे बड़ी धारणा यह थी कि अब देशों के बीच लड़ाइयों का ज़माना नहीं रहा. यूक्रेन के बाद ताइवान को लेकर चीनी गर्जन-तर्जन को देखते हुए सारे सिद्धांत बदल रहे हैं. दक्षिण चीन सागर में चीन संरा समुद्री कानून संधि का खुला उल्लंघन करके विश्व-व्यवस्था को चुनौती दे रहा है.

अभी तक माना जा रहा था कि जब दुनिया के सभी देशों का आपसी व्यापार एक-दूसरे से हो रहा है, तब युद्ध की स्थितियाँ बनेंगी नहीं, क्योंकि सब एक-दूसरे पर आश्रित हैं. एक विचार यह भी था कि जब पश्चिमी देशों के साथ चीन की अर्थव्यवस्था काफी जुड़ गई है, तब मार्केट-मुखी चीन इस व्यवस्था को तोड़ना नहीं चाहेगा. पर हो कुछ और रहा है.

एक गलतफहमी यह भी थी कि अमेरिका और पश्चिमी देशों की आर्थिक-पाबंदियों का तोड़ निकाल पाना किसी देश के बस की बात नहीं. उसे भी रूस ने ध्वस्त कर दिया है. परंपराएं टूट रही हैं, भरोसा खत्म हो रहा है. ऐसा लगता है कि जैसे बदहवासी का दौर है.

भारतीय दुविधा

इस लिहाज से भारत को भी अपनी विदेश और रक्षा-नीति पर विचार करना जरूरी हो गया है. आंतरिक राजनीति में जो भी कहा जाए, चीनी आक्रामकता का जवाब फौजी हमले से नहीं दिया जा सकता. इन बातों का निपटारा डिप्लोमैटिक तरीकों से ही होगा. अलबत्ता भारत को अपनी आर्थिक, सैनिक और राजनयिक-शक्ति को बढ़ाना और उसका समझदारी से इस्तेमाल करना होगा. साथ ही वैश्विक-समीकरणों को ठीक से समझना भी होगा.

तवांग-प्रकरण के साथ तीन परिघटनाओं पर ध्यान देने की जरूरत है. एक, भारत के अग्नि-5 मिसाइल का परीक्षण. दो, अमेरिका का रक्षा-बजट, जो 858 अरब डॉलर के साथ इतिहास का सबसे बड़ा सैनिक खर्च तो है ही, साथ ही उससे चीन से मुकाबले की प्रतिध्वनि आ रही है. तीसरी परिघटना है जापान की रक्षा-नीति में बड़ा बदलाव, जिसमें आने वाले समय के खतरनाक संकेत छिपे है.

चुनौतियाँ

यह सब रूस-यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में हो रहा है, जिसका अंत होता अभी दिखाई नहीं पड़ता. इन सब बातों के अलावा उत्तरी कोरिया और पश्चिम एशिया और अफ्रीकी देशों में सक्रिय अल कायदा, बोको हराम और इस्लामिक स्टेट जैसे अतिवादी समूहों की चुनौतियाँ भी हैं.

चीनी अर्थव्यवस्था का विस्तार अंततः उसकी भिड़ंत अमेरिका जैसी ताकतों से कराएगा ही साथ ही ऐसी ताकतों से भी कराएगा, जो वैधानिक-व्यवस्था के दायरे से बाहर हैं. इनमें समुद्री डाकुओं और संगठित अपराध का नेटवर्क शामिल है. थोड़ी देर के लिए लगता है कि दुनिया एकबार फिर से दो ध्रुवीय होने वाली है, पर अब यह आसान नहीं है. इसका कोई नया रूप ही बनेगा और इसमें भारत की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी.

विश्व-व्यवस्था

ज्यादा बड़ी समस्या वैश्विक-व्यवस्था यानी ग्लोबल ऑर्डर से जुड़ी है. आज की विश्व-व्यवस्था की अघोषित धुरी है अमेरिका और उसके पीछे खड़े पश्चिमी देश. इसकी शुरुआत पहले विश्व-युद्ध के बाद से हुई है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने लीग ऑफ नेशंस के मार्फत नई विश्व-व्यवस्था कायम करने का ठेका उठाया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद गठित संयुक्त राष्ट्र और दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के पीछे अमेरिका है.

उसके पहले उन्नीसवीं सदी में एक और अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मुनरो ने अमेरिका के महाशक्ति बनने की घोषणा कर दी थी. बहरहाल बीसवीं सदी में अमेरिका और उसके साथ वैश्विक-थानेदार बने रहे. पर यह अनंतकाल तक नहीं चलेगा. और जरूरी नहीं कि उसी तौर-तरीके से चले जैसे अभी तक चला आ रहा था. इक्कीसवीं सदी में चीन की महत्वाकांक्षाएं उभर कर सामने आ रही हैं. पर यह राह सरल नहीं है. भारत को किसी का पिछलग्गू बनने के बजाय अपनी स्वतंत्र राह पर चलना है.

चीनी-स्पर्धा

चीन के साथ हमारी केवल सैनिक-स्पर्धा नहीं है, बल्कि प्रभाव-क्षेत्र की स्पर्धा है. हाल में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने जी-20 की अध्यक्षता के सिलसिले में यूनिवर्सिटी कनेक्ट कार्यक्रम में कहा था कि यह ऐसा समय है जब हमें ग्लोबल साउथ (वैश्विक दक्षिण) की आवाज़ बनना चाहिए,जो अन्यथा ऐसे मंचों से कम सुनाई पड़ती है. एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों को भरोसा है कि भारत उनकी आवाज बनेगा. इस अर्थ में भी हम चीन के प्रतिस्पर्धी हैं.

दूसरे विश्व-युद्ध के बाद सोवियत संघ ने अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देने की कोशिश भी की थी, पर वह अपने अंतर्विरोधों के कारण टूट गया. अफ्रीकी, एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों के साथ संबंध रूस के अच्छे संबंध थे. भले ही वे देश जी-77 के नाम से गुट-निरपेक्ष माने गए.

चीन की नजर दो कारणों से इन देशों पर है. एक, ये देश विश्व-व्यवस्था में वोट बैंक का काम करते हैं. दूसरे इनके पास पूँजी नहीं है और इन्हें इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है. चीन अपने बॉर्डर रोड इनीशिएटिव के सहारे इनसे संपर्क बना रहा है. पर वह अपने इन सहयोगियों को कर्जदार भी बनाता जा रहा है.  

जी-7 का वर्चस्व

वैश्विक अर्थव्यवस्था को काफी हद तक पश्चिमी देशों का समूह जी-7 चलाता है, जिसमें केवल जापान ही गैर-पश्चिमी देश है. उभरती अर्थव्यवस्थाओं के आगमन को देखते हुए इक्कीसवीं सदी की देहरी पर सितंबर 1999 में वॉशिंगटन डीसी में जी-7 ने ही एक नया विस्तारित संगठन बनाने की घोषणा की थी.

उस वक्त यह विश्व की 20 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों के संगठन के रूप में सामने आया था, जिसमें 19 देश और यूरोपीय संघ शामिल थे. इनमें फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा, चीन, दक्षिण कोरिया, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, तुर्किये, ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोपीय संघ शामिल हैं. इनके अलावा इसके सम्मेलनों में दुनिया भर के तमाम संगठनों और देशों को समय-समय पर निमंत्रित किया जाता है.

भारतीय-दृष्टि

भारत के रिश्ते ज्यादातर देशों के साथ अच्छे हैं. चीन के साथ हमारी तमाम असहमतियाँ हैं, पर 2015 में एशिया इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बनाने में हमने उसका साथ दिया था. विश्व बैंक और आईएमएफ में अपनी भागीदारी बढ़ाने के मामले में तमाम मौकों पर भारत और चीन मिलकर काम करते हैं. पर चीन के बॉर्डर रोड इनीशिएटिव में हम उसके साथ नहीं हैं. बल्कि काफी हद तक पश्चिमी देशों के साथ हैं.

जी-7 देशों ने चीन के बीआरआई के मुकाबले 2021 में 'बिल्ड बैक बैटर वर्ल्ड पहल' की पेशकश की है. इसके अलावा ब्लू डॉट नेटवर्क है, जिसमें अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की भागीदारी है. यूरोपीय संघ ने ग्लोबल गेटवे शुरू किया है.

चीनी अंतर्विरोध

चीन यह मानकर चल रहा है कि अमेरिका के साथ उसकी चौतरफा प्रतिस्पर्धा और टकराव का लंबा दौर चलेगा. यही बात वह भारत पर भी लागू करता है, जिसकी आर्थिक और सैनिक-शक्ति क्रमशः बढ़ती जा रही है. नवंबर में चीनी सेना से अपने नए कार्यकाल के पहले संबोधन में शी ने कहा कि दुनिया ऐसे बदलावों से गुजर रही है, जो पिछली एक सदी में नहीं देखे गए हैं. हमारे सामने सुरक्षा से जुड़े खतरे बढ़ रहे हैं, इसलिए पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को युद्ध लड़ने और जीतने के लिए तैयार रहना चाहिए.

यह एक राष्ट्र नेता का सामान्य औपचारिक बयान है, पर परिस्थितियों को देखें, तो चीन और उसके प्रतिस्पर्धियों के बीच टकराव की स्थितियाँ बढ़ रही हैं. खासतौर से ताइवान में स्थिति विस्फोटक है. चीन अपने आर्थिक-विकास के ऐसे शिखर पर पहुँच चुका है, जहाँ से वह अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है, पर यह ताकत इतनी भी नहीं है कि वह अकेले दम पर मनमानी कर सके.

दूसरी तरफ उसके आर्थिक विकास में पूँजी से नत्थी अंतर्विरोध इतने गहरे प्रवेश कर गए हैं कि साम्यवादी व्यवस्था को बचाकर रखना मुश्किल होने वाला है. हाल में कोविड से जुड़े प्रतिबंधों के विरुद्ध चीनी जनता का प्रतिरोध इस तरफ इशारा कर रहा है. हालात करीब-करीब हांगकांग जैसे बन गए थे.

जापान की पहचान

दूसरे विश्व युद्ध के बाद जापान को सायास या अनायास शांत और युद्ध-विरोधी देश बनना पड़ा, अब अपनी पहचान बदल रहा है. इसके पीछे भी सबसे बड़ा कारण चीनी आक्रामकता है. जापान और चीन की प्रतिस्पर्धा उन्नीसवीं सदी से चली आ रही है. गत 16 दिसंबर को जापान ने अपनी राष्‍ट्रीय सुरक्षा-नीति में बड़े बदलाव की घोषणा करते हुए रक्षा-बजट में ऐतिहासिक वृद्धि की है.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में युद्ध की आशंका और सुरक्षा पर बढ़ते खतरे को देखते हुए यह देश खुद को बदलने लगा है. जापान ने अपनी  काउंटर-स्‍ट्राइक क्षमता को बढ़ाने का फैसला किया है. इसके लिए लंबी दूरी की मिसाइलों को हासिल किया जाएगा. पिछले पांच साल में जापान ने रक्षा बजट में जीडीपी के बरक्स दो फीसदी की इजाफा किया है. पिछले शुक्रवार को प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, हमने यूक्रेन में देखा है कि क्या हुआ. हम अब अपनी सुरक्षा-नीति बदल रहे हैं.  

हम किधर हैं?

कभी लगता है, हम अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चीन को संतुलित करेंगे. फिर लगता है कि रूस और चीन हमें अमेरिकी खेमे में जाने से रोक रहे हैं. शीत युद्ध के दौर में हमारा झुकाव सोवियत संघ की ओर था. पर नब्बे के दशक में हालात बदल गए. 2015 में भारत ने अमेरिका के साथ दस साल का सामरिक गठबंधन किया था,  जिसे दस साल के लिए बढ़ाया गया है.

अब अमेरिकी रक्षा-बजट में भारत के साथ सैनिक संबंध बेहतर बनाने और रूसी उपकरणों पर उसका अवलंबन कम करने की बात कही गई है. इसका संदर्भ रूसी एस-400 मिसाइल प्रणाली से है. अमेरिका ने साइबर क्षमता बढ़ाने की बात भी की है. इसमें दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में चीन की ओर से दुनिया में साइबर हमले बढ़े हैं. भारत में भी.

नब्बे के दशक तक अमेरिका को भारत के अग्नि मिसाइल कार्यक्रम को लेकर भी आपत्ति थी. आज नहीं है. अमेरिकी रक्षा-नीति का केंद्रीय विषय इस समय चीन है. वह मानता है कि चीन उन देशों को धमकाने की कोशिश कर रहा है, जो अमेरिका के साथ है. तवांग-प्रकरण पर भी अमेरिकी वक्तव्य से यही ध्वनि निकलती है. इस नजरिए से देखें, तो यह बात भारत-चीन सीमा विवाद तक सीमित नहीं.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

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