केरल में अडानी पोर्ट द्वारा विकसित की जा रही विझिंजम अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह परियोजना के खिलाफ लैटिन कैथलिक चर्च के नेतृत्व में स्थानीय मछुआरों का आंदोलन भारतीय राजनीति की एक विसंगति की ओर इशारा कर रहा है। लैटिन कैथलिक चर्च के आंदोलन के विरोध में सीपीएम और बीजेपी कार्यकर्ता एक साथ आ गए हैं। यह एक रोचक परिस्थिति है। ऐसा ही इन दिनों पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में स्थानीय निकाय में देखने को मिल रहा है। पिछले दिनों नंदकुमार इलाके में हुए कोऑपरेटिव चुनाव में सीपीएम और बीजेपी ने मिलकर तृणमूल के प्रत्याशियों को परास्त कर दिया था। यह चुनाव पार्टी आधार पर नहीं था, जिससे सीपीएम को यह कहने का मौका मिला है कि निचले स्तर पर क्या हो रहा है, हम कह नहीं सकते। अलबत्ता यह स्पष्ट है कि निचले स्तर पर वैचारिक टकराव वैसा नहीं है, जैसा ऊँचे स्तर पर है।
‘भारत-जोड़ो यात्रा’ के महाराष्ट्र में प्रवेश के दौरान राहुल गांधी के सावरकर से जुड़े बयान को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, वह विरोधी दलों की एकता के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी के विरोध में अनेक राजनीतिक दल एक-दूसरे के करीब आना तो चाहते हैं, पर सबके अपने हित भी हैं, जो उन्हें करीब आने से रोकते हैं। इन अंतर्विरोधों के पीछे ऐतिहासिक परिस्थितियाँ और इन दलों के सामाजिक आधार भी हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि बड़े स्तर ज़मीनी स्तर
पर राजनीतिक कार्यकर्ता विचारधारा के नहीं, निजी हितों के आधार पर काम करते हैं।
कुछ लोग बेशक विचारधारा को महत्व देते हैं, पर सब पर यह बात लागू नहीं होती है।
दल-बदल कानून के कड़े उपबंधों के बावजूद कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और
पूर्वांचल के कुछ राज्यों में हुए सत्ता-परिवर्तनों का क्या संदेश है?
राहुल गांधी के वक्तव्य के संदर्भ में शिवसेना के वरिष्ठ नेता संजय राउत ने शुक्रवार 18 नवंबर को कहा कि राहुल गांधी को सावरकर पर टिप्पणी करने की कोई वजह नहीं थी। इससे महाविकास आघाड़ी (एमवीए) में दरार पड़ सकती है, क्योंकि हम वीर सावरकर को आदर्श मानते हैं। इतिहास को कुरेदने के बजाय राहुल को नया इतिहास रचना चाहिए। उनके इस बयान के बाद कांग्रेस के जयराम रमेश के साथ उनकी विमर्श भी हुआ, ताकि इस प्रकरण की क्षतिपूर्ति की जा सके।
पता नहीं राहुल गांधी ने यह बयान सोच-समझकर
दिया था, या अनजाने में, जिसके निहितार्थ का उन्हें अनुमान नहीं था। पर इतना ज़रूर
समझ में आता है कि वे अपने राजनीतिक हितों को लेकर जितने जागरूक हैं, जरूरी नहीं
कि वे अपने सहयोगी दलों के हितों के प्रति भी उतने ही जागरूक हों।
महाराष्ट्र की राजनीति किस दिशा में जाएगी, अभी
कहना मुश्किल है, पर राष्ट्रीय राजनीति पर नजर डालें, तो बहुत से अंतर्विरोध दिखाई
पड़ रहे हैं। पश्चिम बंगाल की राजनीति में भी इसे देखें, जहाँ तृणमूल कांग्रेस की
नेता ममता बनर्जी पूरे दम-खम के साथ भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला कर रही हैं।
वहीं सांप्रदायिकता का घोषित विरोध करने वाली पार्टियों ने विधानसभा और लोकसभा
चुनावों में अपनी रणनीतियों से बीजेपी का परोक्ष-समर्थन किया और उसे राज्य में
जड़ें जमाने का मौका दिया। अगले साल त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।
वहाँ के राजनीतिक समीकरणों पर ध्यान देते रहें, जो सच से आपका सामना हो जाएगा।
2019 के लोकसभा और 2021 के विधान सभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी कहती रहीं कि राज्य
में ‘राम-वाम और श्याम’ का गठबंधन है। उनकी बातों को राजनीतिक
बयान मान लिया गया, पर अब बंगाल के सहकारिता चुनावों में नंदकुमार मॉडल के रूप में
यह गठबंधन एकदम स्पष्ट रूप से नजर आ गया। अब केवल ममता बनर्जी ही नहीं कह रही हैं
कि बीजेपी और सीपीएम का गठबंधन है, बल्कि मीडिया में प्रकट रूप से ऐसी रिपोर्टें आ
रही हैं।
हालांकि सीपीएम इसे औपचारिक रूप से स्वीकार
नहीं कर रही है, पर उसके पास इस परिघटना का जवाब भी नहीं है। सच यह है कि पंचायत
चुनावों में अनौपचारिक रूप से बीजेपी-सीपीएम गठबंधन 2018 में भी दिखाई पड़ा था। अक्तूबर
में दार्जिलिंग के भाजपा सांसद राजू बिष्ट ने दिवाली के मौके पर सिलीगुड़ी नगर निगम
के पूर्व मेयर तथा वाममोर्चा के नेता अशोक भट्टाचार्य के घर जाकर उनसे मुलाकात की
है। इस दौरान सांसद के साथ भाजपा के सिलीगुड़ी के विधायक शंकर घोष भी थे।
तृणमूल कांग्रेस ने उस समय माकपा और भाजपा पर
मिल-जुलकर राज्य की सरकार गिराने की साजिश रचने का आरोप लगाया था। पार्टी के मुखपत्र
‘जागो
बांग्ला’ में एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक था मिल-जुलकर
सरकार गिराएंगे। साथ में राजू बिष्ट और भाजपा विधायक शंकर घोष की मुलाकात की
तस्वीरें प्रकाशित की गई थीं।
उसके बाद ही नंदकुमार का प्रयोग सामने आया है।
इस प्रकरण को लेकर कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा है कि ग्रासरूट स्तर
पर बहुत कुछ हो जाता है, पर सीपीएम के नेतृत्व को इस पर ध्यान देना चाहिए। सीपीएम
के नेता मानते हैं कि सहकारी समितियों के चुनाव में राजनीतिक दल नहीं लड़ते, लोग
व्यक्तिगत रूप से लड़ते हैं। पर सवाल
है कि विपरीत वैचारिक धरातल वाले लोग भी इतनी आसानी से करीब कैसे आ जाते हैं? बंगाल ही नहीं त्रिपुरा से भी स्थानीय निकाय स्तर पर
सीपीएम और बीजेपी के गठबंधन की खबरें आ रही हैं। इस गठबंधन के पीछे वैचारिक कारण
भले ही नहीं हैं, पर ऐतिहासिक कारण जरूर हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति
के बाद भारत के कम्युनिस्टों को संसदीय राजनीति को स्वीकार करने में समय लगा। जब
उन्होंने चुनाव लड़ना शुरू भी किया, तो कांग्रेस को शत्रु माना। सीपीआई ने तो एक
समय के बाद कांग्रेस से रिश्ते बना भी लिए, पर सीपीएम ने काफी देर बाद कांग्रेस से
दोस्ती की। 2004 में यूपीए सरकार को समर्थन देने के बाद वाममोर्चा ने 2008 में हाथ
खींच भी लिया था।
बंगाल में सीपीएम के
ग्रासरूट कार्यकर्ताओं को कांग्रेस या तृणमूल के विरोध में बीजेपी अपने करीब क्यों
लगती है? इसके पीछे विचारधारा से ज्यादा व्यक्तिगत
रुचि काम करती है। सन 1947 के पहले कौन कह सकता था कि भारत की संसदीय प्रणाली में
कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका होगी? वह तो संसदीय प्रणाली
के खिलाफ थी, पर 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार चुनाव जीतकर बनी तो
यह अजूबा था। दो साल बाद वह सरकार बर्खास्त की गई तो वह भी अजूबा था। बहुत दूर की
बात नहीं है,1989 में बनी वीपी सिंह की सरकार को कम्युनिस्ट पार्टी और भाजपा दोनों
का समर्थन प्राप्त था।
यह बात अजूबा लग सकती
है कि 1958 में दिल्ली में जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी का गठबंधन हुआ था। लालकृष्ण
आडवाणी ने ‘माय कंट्री माय लाइफ’ में लिखा है, "दिल्ली में नगर निगम की स्थापना सन 1958 में हुई. इन सभी में जनसंघ को
अच्छा समर्थन प्राप्त था। 80 सदस्यों वाले निगम में हमने कांग्रेस से केवल 25
सीटें कम जीतीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के आठ सदस्य थे।" उनके पास नगर
निगम में इतनी सीटें थीं कि वे कांग्रेस या जनसंघ किसी का भी मेयर बनवा सकते थे।
भाकपा ने जनसंघ को सत्ता
से दूर रखने के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन का प्रस्ताव किया, बशर्ते कांग्रेस अरुणा आसफ अली को दिल्ली की पहली मेयर
बनाने के लिए तैयार हो जाए। कांग्रेस ने यह शर्त मान ली, लेकिन आंतरिक झगड़ों के
कारण यह गठबंधन एक साल के अंदर ही टूट गया। इसके बाद जनसंघ और भाकपा के बीच समझौता
हुआ कि महापौर और उपमहापौर के पद दोनों पार्टियों को बारी-बारी से दिए जाएँगे। चला
वह भी नहीं, पर उन परिस्थितियों बरक्स सोचें तो समझ में
आता है कि राजनीति में असम्भव कुछ नहीं।
पश्चिम बंगाल के बाद
अब केवल केरल में सीपीएम में प्राण बचे हैं। वहाँ भी बीजेपी और सीपीएम के सहयोग की एक झलक
देखें। अडानी पोर्ट द्वारा विकसित की जा रही विझिंजम अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह
परियोजना के खिलाफ लैटिन कैथलिक चर्च के नेतृत्व में स्थानीय
मछुआरों का आंदोलन चलाया जा रहा है। मछुआरों का आरोप है कि इस परियोजना के कारण हमारी
आजीविका को खतरा है। इस आंदोलन की वजह से वामपंथी और भाजपा नेता एक मंच पर आ गए
हैं। केंद्र और राज्य दोनों सरकारें चाहती हैं कि अडानी पोर्ट पर तेजी से काम पूरा
हो। सीपीएम और भाजपा के नेता आंदोलन के खिलाफ सार्वजनिक मंच पर भाषण दे रहे हैं।
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