देस-परदेस
कश्मीर की पहेली-3
तीन किस्तों के लेख की दूसरी किस्त पढ़ें यहाँ
इस तरह उलझता गया कश्मीर का मसला
इस
सवाल का जवाब देना आसान नहीं है कि हम अपनी खोई ज़मीन वापस कैसे लेंगे. सैनिक
हस्तक्षेप आसान नहीं है और उससे जुड़े तमाम जोखिम हैं. बैकरूम डिप्लोमेसी अदृश्य होती है, पर कारगर भी होती है. पिछले 75 वर्षों में वैश्विक स्थिति और भारत की
भूमिका में बड़ा बदलाव आया है. यह बात समस्या के समाधान में भूमिका निभाएगी.
पश्चिमी
देशों को 1947-48 में डर था कि कहीं सोवियत संघ को अरब सागर तक का रास्ता हासिल
नहीं हो जाए. अब उन्हें नज़र आ रहा है कि रूस से जिस रास्ते पर कब्जे का डर था, उसे
तो चीन ने हथिया चुका है. शीतयुद्ध के कारण पश्चिमी खेमा हमारे खिलाफ था, पर आज
हालात बदले हुए हैं.
चीनी
पकड़
अगस्त
2010 में अमेरिका के सेंटर फॉर इंटरनेशनल पॉलिसी के डायरेक्टर सैलिग एस हैरिसन का
न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख छपा, जिसमें बताया गया था कि पाकिस्तान अपने अधीन
कश्मीर में चीनी सेना के लिए जगह बना रहा है. चीन के सात हजार से ग्यारह हजार फौजी
वहाँ तैनात हैं. इस इलाके में सड़कें और सुरंगें बन रहीं हैं, जहाँ पाकिस्तानियों का प्रवेश भी प्रतिबंधित है. यह बात इसके बाद
भारत के अखबारों में प्रमुखता से छपी.
चीन ने इस इलाके पर अपनी पकड़ बना ली है. समुद्री
रास्ते से पाकिस्तान के ग्वादर नौसैनिक बेस तक चीनी पोत आने में 16 से 25 दिन लगते
हैं. गिलगित से सड़क बनने पर यह रास्ता सिर्फ 48 घंटे का रह गया है. इसके अलावा
रेल लाइन भी बिछाई जा रही है.
अगस्त 2020 की खबर थी कि कंगाली से जूझ रही तत्कालीन
इमरान खान सरकार ने पीओके में रेल लाइन बनाने के लिए 6.8 अरब डॉलर (करीब 21 हजार
करोड़ भारतीय रुपये) के बजट को मंजूरी दी. यह रेल लाइन सीपैक का हिस्सा है. साउथ चाइना
मॉर्निंग पोस्ट की रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने
इस्लामाबाद से शिनजियांग प्रांत के काशगर तक सड़क के एक हिस्से को आम लोगों के लिए
खोल दिया है.
दशकों पुरानी परिकल्पना
पाकिस्तान और चीन के बीच आर्थिक गलियारे सीपैक
की परिकल्पना 1950 के दशक में ही की गई थी, लेकिन
वर्षों तक पाकिस्तान में राजनीतिक अस्थिरता रहने के कारण इस लक्ष्य को प्राप्त
नहीं किया जा सका. बासठ की लड़ाई के एक साल बाद ही पाकिस्तान ने कश्मीर की 5,189
किमी जमीन चीन को सौंप दी.
इस जमीन से होकर चीन के शिनजियांग स्वायत्त
क्षेत्र के काशगर शहर से लेकर पाकिस्तान के एबटाबाद तक एक सड़क बनाई गई, जिसे कराकोरम राजमार्ग कहा जाता है. कश्मीर अब सिर्फ भारत और
पाकिस्तान के बीच का मसला नहीं है. चीन इसमें तीसरी पार्टी है. और इसीलिए 2019 में
उसने 370 के मसले को सुरक्षा परिषद में उठाने की कोशिश की.
सिंगापुर से करार तोड़ा
पाकिस्तान ने सन 2007 में पोर्ट ऑफ सिंगापुर
अथॉरिटी के साथ 40 साल तक ग्वादर बंदरगाह के प्रबंध का समझौता किया था. यह समझौता
अचानक अक्टूबर 2012 में खत्म करके बंदरगाह चीन के हवाले कर दिया गया. पाकिस्तान
अधिकृत कश्मीर के गिलगित क्षेत्र में चीन ने सड़क बनाई है, जो
उसके शिनजियांग प्रांत को पाकिस्तान से जोड़ती है. यह सड़क ग्वादर तक जाती है.
चीन को अरब सागर तक जाने का जमीनी रास्ता मिल गया है. चीन ने 2014 में इस आर्थिक गलियारे की आधिकारिक रूप से घोषणा की. इसके जरिए चीन ने पाकिस्तान में विभिन्न विकास कार्यों के लिए तब करीब 46 बिलियन डॉलर के निवेश की घोषणा की थी.
भारत ने इस गलियारे के निर्माण को
अन्तरराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार अवैध माना, क्योंकि
यह पाक अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है, जो हमारा
क्षेत्र है. भारत ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से आपत्ति दर्ज कराई थी. साथ ही
रूस सरकार के सामने भी अपना विरोध जताया.
हालांकि रूस सीधे इसमें पार्टी नहीं है,
पर लम्बे अरसे से वह कश्मीर पर भारत के दावे का समर्थन करता रहा है.
दूसरे माना यह भी जाता है कि ब्रिटिश सरकार ने पाकिस्तान का निर्माण किया ही इसलिए
था ताकि रूस को हिन्द महासागर तक आने से रोका जा सके. पर अब रूस और चीन एक-दूसरे
के करीब हैं. हालांकि रक्षा-तकनीक के कारण भारत के साथ उसके रिश्ते कायम हैं,
पर भविष्य का रास्ता अस्पष्ट है. बहरहाल चीन ने रास्ता प्राप्त कर
लिया है. और यह परिघटना दक्षिण एशिया की भू-राजनीति को प्रभावित करेगी.
कश्मीर का समाधान
ज्यादातर लोग मानते हैं कि कश्मीर समस्या का
समाधान हुए बगैर दक्षिण एशिया में स्थिरता और शांति संभव नहीं है. सवाल है कि
समाधान क्या है? संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव अपनी मियाद
खो चुका है और महत्व भी. सुरक्षा परिषद दिसम्बर 1948 में ही यह बात मान चुकी थी कि
यदि पाकिस्तान की दिलचस्पी अपनी सेना हटाने में नहीं है तो इसे भारत पर भी लागू
नहीं कराया जा सकता.
एक समाधान है कि जो हो गया, सो हो गया.
नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिया जाए. एक और समाधान है कि जब तक
समाधान नहीं हो जाता, तब तक यथास्थिति बनाकर नियंत्रण रेखा पर आवागमन को सामान्य
कर दिया जाए.
13 अप्रैल 1956 को जवाहर लाल नेहरू ने
पाकिस्तान से कहा था, “मैं मानता हूँ कि युद्ध विराम रेखा के
पार का क्षेत्र आपके पास रहे. हमारी इच्छा उसे लड़ाई लड़कर वापस लेने की नहीं है.”
9 दिसम्बर 2003 को भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त अजीज खान ने कोलकाता में कहा,
‘हम मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान हमेशा रंज़िश के लिए नहीं बने
हैं...हमें सहयोग चाहिए, टकराव नहीं.’
अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रायटर ने 18
दिसम्बर 2003 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के इंटरव्यू पर आधारित एक
समाचार जारी किया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारा देश
संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को ‘किनारे रख चुका है’ (लेफ्ट एसाइड) और कश्मीर समस्या
के समाधान के लिए आधा रास्ता खुद चलने को तैयार है. यह बात आधा शिखर वार्ता (14-16
जुलाई 2001) के बाद की है.
मोदी का कड़ा रुख
दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद
कम से कम दो बातें ऐसी हुईं हैं जिनसे संकेत मिलता है कि अब भारत सरकार का रुख
कश्मीर को लेकर कड़ा होगा. जुलाई 2014 में भारत सरकार ने दिल्ली स्थित संयुक्त
राष्ट्र सैनिक पर्यवेक्षक आयोग का दफ्तर खाली करने का आदेश दिया. यह आयोग सन 1949
में कश्मीर में युद्ध विराम रेखा पर होने वाले घटनाक्रम पर नजर रखने के लिए बनाया
गया था.
भारत सरकार का दूसरा महत्वपूर्ण कदम था
पाकिस्तानी उच्चायुक्त द्वारा हुर्रियत के प्रतिनिधियों से बातचीत करने पर 25
अगस्त 2014 को होने वाली सचिव स्तर की वार्ता को रद्द करना. यानी हुर्रियत जैसी
किसी एजेंसी का कोई मतलब नहीं है. अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद अब तार्किक परिणति
पीओके की वापसी ही हो सकती है. यह कैसे होगा, विचार अब इसपर होना चाहिए.
सकारात्मक बात यह है कि पिछले साल से
पाकिस्तानी सेना ने कहना शुरू किया है कि 370 की वापसी भारत का अंदरूनी मामला है.
हमें कश्मीर विवाद को पीछे रखकर पहले आर्थिक-सुरक्षा के बारे में सोचना चाहिए. पर
कहना मुश्किल है कि धड़ेबाज़ी की शिकार पाकिस्तानी राजनीति इसे स्वीकार कर लेगी.
सोमिया सदफ का मामला
गत 5 दिसंबर को उत्तरी कश्मीर में जिला विकास
परिषद (डीडीसी) की दो सीटों पर पुनर्मतदान हुआ. बांदीपुरा जिले की हाजिन-ए सीट और
कुपवाड़ा जिले की द्रगमुल्ला सीट पर फिर से वोटिंग हुई. 2020 में हुए इन सीटों पर
हुए चुनाव की मतगणना रोक दी गई थी. इस चुनाव के साथ रोचक मामला नागरिकता का जुड़ा
है. पीओके हमारा है, तो वहाँ के निवासी कहाँ के नागरिक हैं? और
यह भी कि यदि वहाँ की किसी महिला का विवाद हमारी तरफ वाले किसी निवासी से हुआ है,
तो वह महिला कहाँ की नागरिक है और उसे चुनाव लड़ने का अधिकार है या नहीं?
जम्मू-कश्मीर में 2020 में जिला विकास परिषद के
लिए चुनाव हुए थे। द्रगमुल्ला और हाजिन-ए में दो उम्मीदवारों की विवादित योग्यता
के कारण दोनों सीटों पर तब वोटों की गिनती रोक दी गई थी.
राज्य चुनाव आयोग (एसईसी) ने पीओके मूल के उम्मीदवारों द्वारा जन्मस्थान के बारे
में गलत जानकारी का हवाला देते हुए सोमिया सदफ और शाज़िया असलम की उम्मीदवारी को
रद्द कर दिया और दोनों निर्वाचन क्षेत्रों के मतदान को शून्य घोषित कर दिया था. अब
दोनों सीटों पर पुनर्मतदान हुआ है.
पीओके-दुल्हनें
पीओके के मुजफ्फराबाद की रहने वाली सोमिया सदफ का
विवाह कुपवाड़ा निवासी से हुआ है। वे दिसंबर 2020 में हुए डीडीसी चुनाव में
उम्मीदवार थीं। उनकी तरह शाज़िया बेगम नामक एक और महिला चुनाव में खड़ी थीं. 22
दिसंबर, 2020 को मतगणना के दिन, राज्य
चुनाव आयुक्त ने एक शिकायत मिलने पर कहा कि सदफ और शाज़िया भारतीय नागरिक नहीं
हैं. दोनों सीटों पर चुनाव के परिणाम घोषित होने से रोक दिया गया. अब नवंबर 2022
में, राज्य चुनाव आयोग ने कहा है कि उन दोनों सीटों
पर पुनर्मतदान होगा, जो 5 दिसंबर को हो गया.
सोमिया सदफ ने न केवल चुनाव लड़ने का अधिकार खो
दिया है, बल्कि उनमें वोट देने का अधिकार भी खो दिया है,
क्योंकि उनका नाम मतदाता सूची से हटा दिया गया है. कश्मीर में कम से
कम 150 ऐसी पीओके-दुल्हनें हैं, जो नागरिकता और अधिकारों से वंचित हैं. सवाल है कि
यदि पीओके भी हमारा है, तो उसके नागरिक क्या हैं?
1971 में, जम्मू-कश्मीर
उच्च न्यायालय ने मोहसिन शाह मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि ऐसे जोड़ों का
निर्वासन नहीं हो सकता, क्योंकि उन्होंने केवल भारत के एक हिस्से से दूसरे हिस्से
की यात्रा की थी। संभव है इस प्रकार के कानूनी मामले और सामने आएं. उनके पीछे सवाल
यही होगा कि जब पीओके भारत का अभिन्न अंग है, तो वहाँ के नागरिक भारत के नागरिक
होंगे या नहीं.
चीन-पाक गठजोड़
भारत किस तरह पीओके को वापस लेगा, डिप्लोमेसी
से या ताकत से इसे लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण हैं. पर पाकिस्तान में इसे लेकर आशंकाएं
हैं कि भारत का कश्मीर पर अगला कदम क्या होगा. इन आशंकाओं को देखते हुए ही
पाकिस्तान के नव-नियुक्त सेनाध्यक्ष ने बयान दिया है. यह बयान उस भय को भी व्यक्त
कर रहा है.
पाकिस्तानी भय के पीछे दूसरा कारण है
गिलगित-बल्तिस्तान और पीओके में बढ़ता असंतोष. यह असंतोष स्थानीय मसलों को लेकर
है, पर मूल असंतोष इन इलाकों में बाहरी लोगों की बढ़ती आबादी को लेकर भी है. यूनाइटेड
कश्मीर पीपुल्स नेशनल पार्टी (यूकेपीएनपी) ने इस क्षेत्र में बढ़ती भूमि हथियाने
की कड़ी निंदा की है. इस इलाके में सेना ने जमीन पर कब्जा किया है, वहीं जमीन पर कब्जा
कर रहे हैं.
भयभीत केवल पाकिस्तान ही नहीं है.
गिलगित-बल्तिस्तान, खैबर-पख्तूनख्वा और बलोचिस्तान में सीपैक को लेकर चीन का भी
विरोध हो रहा है. आए दिन चीनी कर्मचारियों पर हमलों की खबरें आ रही हैं. इससे चीन
भी परेशान है.
भारत का बढ़ता रसूख
दो राय नहीं कि बदलती विश्व-व्यवस्था में भारत
की भूमिका क्रमशः बढ़ती जाएगी. इस दिशा में पहला कदम होगा सुरक्षा परिषद की स्थायी
सीट. हाल में ब्रिटेन ने विस्तारित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत,
जर्मनी, जापान और ब्राजील को स्थायी सदस्य बनाए
जाने का समर्थन किया है.
ब्रिटिश राजदूत बारबरा वुडवर्ड ने सुरक्षा
परिषद सुधार पर महासभा में चर्चा के दौरान कहा कि ब्रिटेन लंबे समय से स्थायी और
गैर-स्थायी दोनों श्रेणियों में सुरक्षा परिषद के विस्तार पर जोर देता रहा है. ब्रिटेन
के अलावा अमेरिका, फ्रांस और रूस भी सिद्धांततः भारत की सदस्यता का समर्थन कर चुके
हैं, पर चीन इस बात से सहमत नहीं है.
चीन और पाकिस्तान का डिप्लोमैटिक-गठजोड़ भी
स्पष्ट है. चीन ने धीरे-धीरे कश्मीर के साथ खुद को जोड़ लिया है. भारत का दबाव और
प्रभाव अब काफी कुछ आर्थिक-प्रगति पर निर्भर करेगा. अलबत्ता अगला एक वर्ष इस दिशा
में कुछ नए रास्ते खोलेगा, क्योंकि जी-20 की अध्यक्षता के साथ भारत की भूमिका बढ़
गई है. (पूर्ण)
No comments:
Post a Comment