Monday, December 26, 2022

सवालों के घेरे के बीच प्रचंड फिर बने नेपाल के प्रधानमंत्री

 

शपथ लेते प्रचंड

नेपाल-भारत रिश्ते-1

नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी केंद्र) के नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व में अंततः नेपाल में सरकार बन गई. इसे नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) का समर्थन प्राप्त है. सरकार बनाने के समझौते के अनुसार पहले ढाई साल प्रचंड प्रधानमंत्री बनेंगे और आखिरी ढाई साल एमाले के नेता केपी शर्मा ओली. नई सरकार में प्रधानमंत्री के साथ तीन उप प्रधानमंत्री हैं. प्रचंड  ने नेपाल में राजशाही के ख़िलाफ़ एक दशक लंबा हिंसक विद्रोह का नेतृत्व किया था.

रविवार को ओली की पार्टी एमाले, प्रचंड की माओवादी सेंटर, राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, जनमत पार्टी, जनता समाजवादी पार्टी और नागरिक उन्मुक्ति पार्टी की बैठक हुई थी. इसी बैठक में फ़ैसला हुआ था कि पाँच साल के कार्यकाल में पहले ढाई साल प्रचंड प्रधानमंत्री रहेंगे और बाद के ढाई साल ओली पीएम बनेंगे. अभी तक प्रचंड की छवि जुझारू और गैर-परंपरावादी नेता की रही है, पर अब वह छवि बदली है. इस बार शपथ लेते समय उन्होंने नेपाल का परंपरागत दरबारी परिधान दौरा सुरुवाल पहना हुआ था, जो उनके बदले मिजाज को बता रहा है. 

प्रचंड के समर्थन में 169 सांसद बताए गए हैं. इनमें 78 ओली की पार्टी के हैं, 32 प्रचंड की पार्टी के, 20 राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी के,  12 जनता समाजवादी पार्टी से, छह जनमत पार्टी और चार नागरिक उन्मुक्ति पार्टी से हैं. 14 राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी से हैं. हालांकि यह पार्टी फौरन सरकार में शामिल नहीं हो रही है, पर समर्थन देगी. निर्दलीय प्रभु शाह, किरण कुमार शाह और अमरेश कुमार सिंह का भी सरकार को समर्थन मिलेगा.

ओली की जीत

पर्यवेक्षक मानते हैं कि यह केपी शर्मा ओली की जीत और नेपाल कांग्रेस के नेता देउबा की हार है. ओली ने प्रचंड को नेपाल कांग्रेस के पाले से बाहर निकाल लिया है. चूंकि उनके पास ज्यादा सांसद हैं, इसलिए उनके ज्यादा समर्थक सरकार में होंगे. राष्ट्रपति और स्पीकर के पद पर भी उनका दावा होगा.

बाक़ी जो राजनीतिक नियुक्तियां होंगी, उन पर भी उनकी चलेगी. राजदूतों की नियुक्ति में भी ओली की चलेगी. ढाई साल बाद प्रचंड आनाकानी करेंगे, तो ओली सरकार गिराकर किसी दूसरे का समर्थन कर देंगे. चूंकि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियाँ फिर से एकसाथ आ गई हैं, इसलिए चीन की भी चलेगी.

अस्थिरता को निमंत्रण

प्रचंड भले प्रधानमंत्री बन गए हैं लेकिन कहा जा रहा है कि वह स्थिर सरकार देने में कामयाब नहीं रहेंगे. 2021 में नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में प्रचंड और अन्य तीन पार्टियों का एक गठबंधन बना था. नेपाल के अंग्रेज़ी अख़बार काठमांडू पोस्ट ने लिखा है कि यह ओली की जीत से ज्यादा नेपाली कांग्रेस की हार है.

पहले माना जा रहा था कि नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ही प्रधानमंत्री रहेंगे लेकिन प्रचंड ने ऐन मौक़े पर पाला बदल लिया. प्रचंड चाहते थे कि नेपाली कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री बनाए लेकिन उनकी मांग नहीं मानी गई थी. जून 2021 में प्रचंड के समर्थन से ही देउबा प्रधानमंत्री बने थे.

इस गठबंधन के पहले तक प्रचंड नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में बने गठबंधन में शामिल थे, पर देउबा ने प्रचंड की प्रधानमंत्री बनने की माँग को स्वीकार नहीं किया. गत नवंबर में हुए चुनाव में देउबा और प्रचंड ने मिलकर प्रचार किया था और जनता से वायदा किया था कि हमारा गठबंधन वर्षों तक चलेगा.

20 नवंबर को मतदान के बाद से पार्टियाँ एक दूसरे के संपर्क में थीं. ऐसे में ओली और प्रचंड का साथ आना बहुत अप्रत्याशित नहीं है. प्रचंड तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने हैं. 239 साल लंबे राजतंत्र की समाप्ति के बाद 2008 में शुरू हुई लोकतांत्रिक-व्यवस्था के 14 साल में 10 सरकारें बन चुकी हैं.

नेपाल की 275 सदस्यों वाली संसद में सबसे ज्यादा 89 सीटें नेपाल कांग्रेस को, 78 एमाले को और 32 माओवादी सेंटर पार्टी को मिलीं. बहुमत के लिए जरूरी 138 सदस्य जुटाने के लिए कुछ छोटे समूहों को भी सरकार में शामिल किया गया है.

आर्थिक संकट

नई सरकार की स्थिरता को लेकर तो संदेह हैं ही, ज्यादा बड़ा संशय देश पर छा रहे आर्थिक संकट का है. देश में मुद्रास्फीति की दर 8 फीसदी हो गई है, जो पिछले छह साल में सबसे ज्यादा है. राजनेताओं ने खुद को भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा का विषय बना लिया है. अब जब विदेशी-मुद्रा कोष का संकट पैदा होता जा रहा है, देश को संतुलित राह पर ले जाने की चुनौती सबसे बड़ी होगी. भारत और चीन दोनों ने नेपाल में अरबों डॉलर का निवेश किया है.

नेपाल के पास पनबिजली की प्रचुर संभावना है, पर उसके लिए जिस स्तर के निवेश की जरूरत है, वह उसके पास नहीं है. देशी-विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए देश को जिस राजनीतिक स्थिरता की जरूरत है, वह हन नहीं पा रही है. राजनेता सत्ता के लिए जोड़-तोड़ करने में माहिर हो गए हैं.

मिलना और टूटना

नवंबर 2017 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की पार्टी सीपीएन-एमाले यानी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी और प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) मिलकर चुनाव लड़ी थी. फ़रवरी 2018 में ओली पीएम बने और सत्ता में आने के कुछ महीने बाद प्रचंड और ओली की पार्टी का विलय हो गया था. विलय के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनी. संसद में इनका दो तिहाई बहुमत था. लेकिन ओली और प्रचंड के बीच की यह एकता लंबे समय तक नहीं रही थी.

जब पार्टी का विलय हुआ था, तो यह बात हुई थी कि ओली ढाई साल प्रधानमंत्री रहेंगे और ढाई साल प्रचंड. लेकिन ढाई साल होने के बाद ओली ने कुर्सी छोड़ने से इनकार कर दिया था. इसके बाद प्रचंड और ओली के बीच रस्साकशी चली.

2021 में संसद भंग कर दी गई. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया था और संसद भंग करने के फ़ैसले को रद्द कर दिया. सुप्रीम कोर्ट के इसी फ़ैसले के बाद शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बने थे. अब फिर प्रचंड ने पाला बदला है. अब वे ओली के खेमे में चले गए हैं.

भारत या चीन?

यह सरकार कितने समय चलेगी और इसमें किसकी चलेगी, अब यह देखना है. इसके अलावा यह सरकार भारत के साथ किस प्रकार के रिश्ते रखेगी, यह भी देखना होगा. प्रचंड पहली बार जब 2008 में नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने पहला विदेशी दौरा चीन का किया था. नेपाल में अब तक परंपरा थी कि प्रधानमंत्री शपथ लेने के बाद पहला विदेशी दौरा भारत का करता था. प्रचंड ने यह परंपरा तोड़ी थी और इसे उनके चीन के क़रीब होने से जोड़ा गया था.

प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने के बाद सोमवार को प्रचंड के आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग की 130वीं जयंती की बधाई देते हुए लिखा गया है, ''अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के महान नेता कॉमरेड माओत्से तुंग की 130वीं जयंती पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.''

तीन लेखों की दूसरी कड़ी में पढ़ें चीन के करीब क्यों जाना चाहता है नेपाल?

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