गुजरात, हिमाचल प्रदेश विधानसभा और दिल्ली नगर महापालिका के चुनाव परिणामों ने इसमें शामिल तीन पार्टियों को किसी न किसी रूप में दिलासा दी है, पर फौरी तौर पर इनका राष्ट्रीय राजनीति पर कोई बड़ा प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। फिर भी कुछ संकेत खोजे जा सकते हैं। इन चुनावों के साथ तीन सवाल जुड़े थे। पहला यह कि नरेंद्र मोदी का जादू कितना बरकरार है। दूसरे, क्या कांग्रेस फिर से अपने पैरों पर खड़े होने की स्थिति में है? और तीसरे क्या केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के मुकाबले विरोधी दलों के नेता बनकर उभरेंगे? बेशक बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तीनों ने किसी न किसी रूप में अपनी सफलता का दावा किया है, पर बीजेपी और आम आदमी पार्टी की सफलताएं कांग्रेस की तुलना में भारी हैं। वोट प्रतिशत को देखें, तो सबसे सफल पार्टी बीजेपी रही है और उसके बाद आम आदमी पार्टी। कुल राजनीति के लिहाज से देखें, तो कुछ दीर्घकालीन सवाल बनते हैं कि बीजेपी कब तक मोदी के मैजिक के सहारे चलेगी? पार्टी ने उत्तराधिकार की क्या व्यवस्था की है? भारतीय राजनीति में नेता का महत्व क्या हमेशा रहेगा? पार्टी संगठन, वैचारिक आधार और कार्यक्रमों का क्यों महत्व नहीं?
मोदी का जादू
हिमाचल में पराजय के बावजूद गुजरात में बीजेपी
की जीत ने ‘मोदी के जादू’ की पुष्टि की है। फिलहाल राष्ट्रीय
राजनीति में ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जो उनका मुकाबला कर सके। गुजरात का चुनाव
परिणाम आने के बाद बीजेपी कार्यकर्ताओं और आम जनता को संबोधित करते हुए नरेंद्र
मोदी ने कहा, ‘युवा भाजपा की विकास की राजनीति चाहते हैं। वे न जातिवाद के बहकावे
में आते हैं न परिवारवाद के। युवाओं का दिल सिर्फ़ विज़न और विकास से जीता जा सकता
है।… मैं बड़े-बड़े एक्सपर्ट को याद
दिलाना चाहता हूं कि गुजरात के इस चुनाव में भाजपा का आह्वान था विकसित गुजरात से
विकसित भारत का निर्माण।’ यह वक्तव्य 2024 के चुनाव का प्रस्थान-बिंदु है। इस साल
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के फौरन बाद नरेंद्र मोदी ने गुजरात की
रुख किया था। उनकी विशेषता है एक जीत से दूसरे रणक्षेत्र की ओर देखना।
ऐतिहासिक जीत
गुजरात में लगातार सातवीं बार बीजेपी सत्ता में
आई है, और रिकॉर्डतोड़ विजय के साथ आई है। इससे पहले 1985
में माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 149 सीटें जीती थीं। बीजेपी का
सबसे अच्छा प्रदर्शन 2002 में 127 सीटों का था। उसने जिस तरह से एंटी-इनकंबैंसी की
परिभाषा को बदला है, वह विस्मयकारी है। उसका मत प्रतिशत बढ़ कर 52.5 फीसदी हो गया
है। राज्यसभा में गुजरात से बीजेपी के आठ और कांग्रेस के तीन सांसद हैं। अब इस जीत
से 2026 के मध्य तक यहां की सभी 11 राज्यसभा सीटें इसके खाते में होंगी। अप्रैल
2024 में दो सीटों पर बीजेपी अपने और उम्मीदवार भेज सकेगी, वहीं
जून 2026 में आख़िरी बची तीसरी सीट पर भी उसके प्रतिनिधि राज्यसभा में होंगे। यह
जीत विजेता के रूप में मोदी की पहचान को और मज़बूत करेगी।
मत-प्रतिशत में सुधार
एमसीडी में भाजपा की पराजय हुई है, पर उसका मत प्रतिशत सुधरा है। उसे इस बार 39.09 फीसदी वोट मिले हैं, जबकि 2017 में 36.08 प्रतिशत मिले थे। इस चुनाव से आंशिक निष्कर्ष ही निकाले जा सकते हैं। नगरपालिका के काफी मसले स्थानीय होते हैं। लोकसभा चुनाव के मसले राष्ट्रीय होते हैं। यह बात हम 2014 और 2015 के लोकसभा और 2015 और 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में देख चुके हैं। दिल्ली विधानसभा और दिल्ली से लोकसभा सदस्यों की संरचना को देखें, तो अभी तक कहानी एकदम उलट है। 2024 की बातें तभी की जा सकेंगी, पर एक बात स्पष्ट है कि दिल्ली नगरपालिका और विधानसभा में बीजेपी के कोर-वोटर का प्रतिशत बढ़ा है। एमसीडी के चुनाव में फीका मत-प्रतिशत बता रहा है कि बीजेपी के कोर-वोटर की दिलचस्पी स्थानीय मसलों में उतनी नहीं है, जितनी आम आदमी पार्टी के वोटर की है। बीजेपी ने गुजरात और दिल्ली में अपना मत-प्रतिशत बढ़ाया है। हिमाचल में उसका मत प्रतिशत कम हुआ है, पर इस चुनाव में भी वह कांग्रेस के एकदम करीब रही है। भाजपा और कांग्रेस दोनों का मत-प्रतिशत करीब-करीब बराबर है। हिमाचल की परंपरा है कि वहाँ सत्ताधारी दल की वापसी नहीं होती है। बीजेपी की आंतरिक फूट का भी इसमें योगदान रहा होगा। कांग्रेस की जीत का आंशिक श्रेय पुरानी पेंशन योजना को वापस लाने के वादे को भी दिया जा सकता है। हिमाचल में यह बड़ा मुद्दा था।
आम आदमी पार्टी
इन चुनावों का एक और बड़ा परिणाम है ‘आप’ का राष्ट्रीय मंच पर प्रवेश। गुजरात चुनावों में 12.9 प्रतिशत मत
पाकर वह अब राष्ट्रीय पार्टी बनने की हकदार हो गई है। राष्ट्रीय पार्टी बनने के
लिए किसी दल को कुछ अन्य शर्तों के अलावा कम से कम चार राज्यों में अच्छी
उपस्थिति दर्शानी होती है तथा वहां के विधानसभा चुनाव में कम से कम दो सीट और छह
फीसदी मत हासिल करने होते हैं। पार्टी दिल्ली और पंजाब में सत्ता में है और गोवा
विधानसभा में उसे दो सीट पर जीत मिली थी। पार्टी ने अपनी स्थापना के 10 साल से कम समय
में यह मुकाम हासिल किया है। 2024 के लोकसभा चुनाव में वह प्रमुख विरोधी दल बनने
की तरफ कदम बढ़ा सकती है। कांग्रेस के क्षय के कारण देश में वैकल्पिक राजनीति के
लिए जगह खाली हो रही है। 2017 में कांग्रेस का वोट शेयर 41.44 फ़ीसदी था, जो इसबार
14.14 फ़ीसदी गिरकर 27.30 हो गया, जो करीब पूरा का पूरा आम आदमी पार्टी के पास चला
गया है। 2017 में आप केवल 0.6 फ़ीसदी वोट हासिल कर सकी थी, और इस बार उसे 12.0 फ़ीसदी
वोट मिले हैं। एमसीडी में भी कांग्रेस का वोट प्रतिशत 31 से
घटकर 9 पर आ गया है। कांग्रेस के क्षय में आम आदमी पार्टी की भूमिका साफ है।
कांग्रेस की राह
गुजरात में बीजेपी को जहाँ इतिहास की सबसे बड़ी
विजय मिली है, वहीं कांग्रेस को केवल 17 सीटों के साथ सबसे बड़ी पराजय का सामना
करना पड़ा है। इसके बरक्स हिमाचल प्रदेश में मिली जीत से पार्टी को दिलासा मिली
है। यानी कि गुजरात में खराब प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस पूरी तरह निराश नहीं है।
पर उस हार और इस जीत में बराबरी संभव नहीं है। हिमाचल की जीत भी महत्वपूर्ण है,
क्योंकि एक अर्से बाद किसी हिंदी राज्य में पार्टी को जीत मिली है। बीजेपी के
राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के गृहराज्य में कांग्रेस की यह जीत उसके
कार्यकर्ताओं के उत्साह को वापस लाने में सहायक होगी। फिर भी गुजरात की शोचनीय
स्थिति कांग्रेस के लिए खतरे का संकेत है। कांग्रेस के लिए गुजरात की हार का संदेश
बहुत बड़ा है। इस हार ने पार्टी के नेतृत्व की नाकामी और संगठनात्मक कमज़ोरी को साबित
किया है। हिमाचल की जीत से पार्टी की राष्ट्रीय छवि में कोई इज़ाफी होने वाला नहीं
है। गुजरात की पराजय का असर पड़ोसी राज्य राजस्थान पर पड़ेगा, जहाँ नवंबर 2023 में
विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इस राज्य में कांग्रेस पार्टी बुरी तरह से विभाजित
है।
खड़गे की प्रतिष्ठा
इन परिणामों का असर पार्टी के नव-निर्वाचित
अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की प्रतिष्ठा पर भी पड़ेगा। उनके सामने खड़ी चुनौतियों
की संख्या बढ़ेगी। यह भी कहा जा सकता है कि उनके नेतृत्व में ही पार्टी ने हिमाचल
का चुनाव जीता है। अलबत्ता उन्होंने इस विजय के लिए राहुल गांधी की पदयात्रा को
श्रेय दिया है। इस चुनाव में प्रियंका गांधी की भूमिका का उल्लेख जरूर किया जाना
चाहिए, जिन्होंने राज्य में पाँच रैलियों को संबोधित किया और चुनाव-प्रचार पर उनकी
नजर थी। बहरहाल इन दोनों चुनावों के बाद पार्टी को भविष्य की योजनाओं की तरफ देखना
होगा। खासतौर से विरोधी दलों के साथ सहयोग की तमाम बातें इसके साथ नत्थी हैं।
पार्टी को राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से उम्मीदें
हैं। पर समझ में नहीं आता कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसका कितना
फायदा मिलेगा। उसमें पार्टी किस तैयारी से उतरेगी, इसे देखना और समझना है। लोकसभा चुनाव
के पहले 11 राज्यों के और उसके फौरन बाद के चुनावों को भी जोड़ लें, तो कुल 18
विधानसभाओं के चुनाव होने हैं।
चुनाव के मुद्दे
2024 के चुनाव के पहले अगले डेढ़ साल में
पार्टियाँ अपने मुद्दों और रणनीतियाँ तैयार करेंगी। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ वस्तुतः
चुनावी रणनीति का ही एक हिस्सा है। एक तरफ राहुल गांधी की छवि के मेक-ओवर का यह
प्रयास है, वहीं नेहरू-गांधी के ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को बीजेपी के हिंदू-राष्ट्रवाद के मुकाबले
रखने की कोशिश है। 2019 के चुनाव में कांग्रेस सामाजिक-कल्याण के जिन कार्यक्रमों
को लेकर उतरी थी, उन्हें अगले चुनाव में भी आजमाया जाएगा। कांग्रेस खुद को देश
जोड़ने वाली और बीजेपी को देश-तोड़ने वाली पार्टी साबित कर पाएगी या नहीं, अभी
नहीं कह सकते। फिलहाल लगता नहीं कि पार्टी अकेले अपने बूते बीजेपी को परास्त कर
पाएगी। वह विरोधी दलों का मोर्चा बनाने में भी अभी तक सफल नहीं हुई है। बीजेपी की
रणनीति केवल हिंदुत्व तक सीमित नहीं है। वह बिजली-पानी जैसे मुद्दे भी उठाती है।
गरीबों, ग्रामीण इलाकों और स्त्रियों के कल्याण के अलावा युवा वर्ग के रोज़गार और
कौशल-विकास योजनाओं से एक बड़ा लाभार्थी वर्ग तैयार हो गया है, जो खुद को बीजेपी
से जोड़ता है। पार्टी ने सोशल इंजीनियरी में भी महारत हासिल की है। लोकसभा चुनाव
से पहले कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान,
छत्तीसगढ़ तेलंगाना जैसे महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव-परिणाम
राजनीतिक-दृष्टि से महत्वपूर्ण साबित होंगे।
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