संसद का शीतकालीन सत्र इस साल पूर्व निर्धारित समय से छह दिन पहले पूरा हो गया। पूर्व निर्धारित समय 29 दिसंबर था, पर वह 23 को ही पूरा हो गया। सत्र के दौरान दोनों सदनों से नौ विधेयक पास हुए। संसदीय कार्य मंत्रालय के अनुसार इस सत्र में लोकसभा में 97 प्रतिशत और राज्यसभा में 103 प्रतिशत उत्पादकता रही। यानी कई मायनों में यह सत्र उल्लेखनीय रहा, जिसमें कम समय में ज्यादा काम हो गया। तवांग में भारत-चीन मुठभेड़, कोविड-19 के नए खतरे, जजों की नियुक्ति और राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में अड़ंगों की खबरों के बावजूद इस सत्र में उत्पादकता अच्छी रही। बीच में हंगामा भी हुआ, पर संसदीय कर्म चलता रहा। अलबत्ता एक बात रह-रहकर परेशान करती है। असहमतियाँ जीवंत लोकतंत्र की निशानी हैं, पर कुछ सवालों पर राष्ट्रीय आमराय भी होनी चाहिए। कुछ मामलों पर आमराय बनाने में हमारी राजनीति विफल क्यों है?
श्रेष्ठ परंपराएं
संसदीय गतिविधियों को देखते हुए कुछ सवाल मन में आते हैं। श्रेष्ठ संसदीय कर्म क्या है और ‘गुड-गवर्नेंस’ यानी सुशासन की संज्ञा किसे दें? समय से पहले सत्र का समापन होने पर चलते-चलाते कांग्रेस ने कहा कि यह सब राहुल गांधी की यात्रा को रोकने की कोशिश है। और यह भी कि सरकार चर्चा से भागना चाहती है, जबकि सरकार का कहना है कि दोनों सदनों की बिजनेस एडवाइज़री कमेटी की बैठक में सर्वसम्मति से सत्र जल्दी खत्म करने का फैसला किया गया। क्या इस सर्वसम्मति में कांग्रेस पार्टी शामिल नहीं थी? बहरहाल यह राजनीति है, जिसमें कहने और करने के बीच फर्क होता है। दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों ने एकबार फिर से याद दिलाया कि मसलों पर असहमतियों और सहमतियों की अभिव्यक्ति चर्चा की गुणवत्ता के रूप में व्यक्त होनी चाहिए न कि गतिरोध के रूप में। पर व्यावहारिक राजनीति को ये बातें भी औपचारिकता ही लगता ही लगती हैं।
सुशासन दिवस
संविधान, संसद और सुशासन का करीबी रिश्ता है। तीनों साथ-साथ चलते हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से नवंबर और दिसंबर के महीनों में दो महत्वपूर्ण कार्यक्रम शुरू किए गए। एक है 26 नवंबर को संविधान दिवस और दूसरा है 25 दिसंबर को सुशासन दिवस। 1949 की 26 नवंबर को हमारे संविधान को स्वीकार किया गया था। 2015 से ‘संविधान दिवस’ मनाने की परंपरा शुरू की गई। उस साल संसद में दो दिन का विशेष अधिवेशन रखा गया, जिसमें सदस्यों ने जो विचार व्यक्त किए थे, उनपर गौर करने की जरूरत है। इसके एक साल पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 23 दिसंबर 2014 को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, और पंडित मदन मोहन मालवीय (मरणोपरांत) को भारत-रत्न से अलंकृत किया। उसके साथ ही यह घोषणा की गई कि अटल जी की जयंती को प्रतिवर्ष ‘सुशासन-दिवस’ मनाया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में अटल बिहारी वाजपेयी के दृष्टिकोण 'अधिकतम शासन, न्यूनतम सरकार' को कार्यान्वित करने का वायदा किया था।
व्याकुल भारत
ये दोनों कार्यक्रम श्रेष्ठ परंपराओं और
कार्यक्रमों की ओर इशारा करते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन को ‘सुशासन’ से जोड़कर इसे जो महत्व प्रदान किया है, वह उल्लेखनीय है। इस वर्ष 19
से 25 दिसंबर तक ‘सुशासन सप्ताह’ मनाया जा रहा है। 'प्रशासन गांव की ओर' 2022 जन शिकायतों के निवारण और सेवा वितरण में सुधार के लिए एक राष्ट्रव्यापी
अभियान है, जो भारत के सभी जिलों, राज्यों और केंद्र
शासित प्रदेशों में आयोजित किया जा रहा है। ग्रामीण उत्थान की परिकल्पना जमीनी
स्तर पर सुशासन के बगैर संभव नहीं। देश के पास अंतिम कतार में खड़े व्यक्ति को लाभ
पहुंचाने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं, पर उनका इस्तेमाल सुशासन के माध्यम से ही
संभव है। इसका असली परीक्षण यह है कि इसका लाभ भारत के सबसे दूरस्थ गांव में रहने
वाले हर एक नागरिक तक पहुंचे। हमें नया भारत बनाना है, तो कतार में सबसे पीछे खड़े
व्यक्ति तक पहुँचना होगा। यही भारत है। अपने हालात को
सुधारने को व्याकुल भारत। यह व्याकुलता जैसे-जैसे बढ़ेगी वैसे-वैसे हमें दोष भी
दिखाई पड़ेंगे। इनका निराकरण व्याकुलता के बढ़ते जाने में है।
उम्मीदों की किताबें
दो राय नहीं कि देश नेतृत्व और प्रशासनिक
नीतियों से बनता है। पर देश उसके लोगों से भी बनता है। छोटे-छोटे गाँवों और कस्बों
के छोटे-छोटे लोगों की उम्मीदों, सपनों और दुश्वारियों की किताबें खुल
रहीं हैं। यह भारत अपना पक्का घर बनाना चाहता है, लेकिन
उसके कच्चे घर ने उसके इरादों को कच्चा नहीं होने दिया…यह
हिन्दुस्तान कपड़े सीता है, ट्यूशन करता है, दुकान पर सब्जियाँ
तोलता है…इसके बावजूद वह अपनी कीमत जानता है। उसका मनोबल ऊँचा और लगन बुलंद है। इस
लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि देश को पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना
गाँवों को शामिल किए बिना पूरा नहीं किया जा सकता। सपना केवल अर्थव्यवस्था की
नहीं, देश की जनता है। इस सपने को पूरा करने की जिम्मेदारी देश की व्यवस्था और
उसके संचालकों पर है। संचालक हैं हमारे राजनेता और उनके विमर्श का मंच है संसद।
राजनीति और
संसद
हमारी बात की शुरुआत संसद के सत्र से हुई थी। संसद हमारे विमर्श का
सर्वोच्च मंच है। 13 मई,
2012 को उसके 60 वर्ष
पूरे होने पर उसकी विशेष सभा हुई थी। इस सभा में सांसदों ने आत्म-निरीक्षण किया। उन्होंने
संसदीय गरिमा को बनाए रखने और कुछ सदस्यों के असंयमित व्यवहार पर और संसद का समय
बर्बाद होने पर चिंता जताई और यह संकल्प किया था कि यह गरिमा बनाए रखेंगे। बहस के
दौरान ऐसा मंतव्य व्यक्त किया गया कि हर साल कम से कम 100 बैठकें अवश्य हों। यह
संकल्प उस साल ही टूट गया और लगातार टूटता रहा है। यह हमारे लोकतंत्र का बड़ा
अंतर्विरोध है। शोर भी संसदीय कर्म का हिस्सा है, पर वह कितना
हो, कब हो और किस तरह हो इसे लेकर भिन्न-भिन्न
राय हैं। अलबत्ता इतना समझ में आता है कि राजनीति अच्छे वक्ताओं को तैयार नहीं कर
रही है, क्योंकि उसे लगता है कि संजीदा बहस उपयोगी
नहीं रही।
समावेशी-न्याय
चुनाव और संसदीय सत्र
दो परिघटनाएं राजनीतिक सरगर्मियों से भरी रहती हैं। दोनों गतिविधियाँ देश के जीवन
और स्वास्थ्य के साथ गहरा वास्ता रखती हैं। दोनों ठीक रहे तो काया पलटते देर नहीं
लगेगी, पर दुर्भाग्य से देश की जनता को दोनों मामलों में शिकायत रही है। चुनाव के
दौरान सामाजिक अंतर्विरोध और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप चरम सीमा पर होते हैं और
संसदीय सत्र के दौरान स्वस्थ बहस पर शोर-शराबा हावी रहता है। 2015 में संविधान
दिवस पर आयोजित विशेष सत्र में दो दिन की चर्चा में धर्म निरपेक्षता, मौलिक अधिकार, संघवाद और संवैधानिकता से जुड़े अनेक
प्रश्न उठे। इस सत्र का सबसे महत्वपूर्ण पहलू था प्रधानमंत्री मोदी का वक्तव्य,
जिसमें उन्होंने समावेशी, समन्वयकारी, न्याय
की राह पर चलने की बात कही है। देश को इसकी सख्त जरूरत है। हम ‘सुशासन-सप्ताह’ मना रहे हैं, तब यह बात
महत्वपूर्ण हो जाती है।
No comments:
Post a Comment