राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शनिवार सुबह दिल्ली में प्रवेश कर गई। दिल्ली के सात संसदीय क्षेत्रों में अलग-अलग पड़ाव के बाद यात्रा लालकिले पर जाकर कुछ दिन के लिए विसर्जित हो गई। अब नौ दिन के ब्रेक के बाद 3 जनवरी से यात्रा फिर शुरू होगी। दिल्ली में सोनिया गांधी, प्रियंका और रॉबर्ट वाड्रा भी यात्रा में शामिल हुए। पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने कहा कि यात्रा में शामिल होने के लिए किसी का भी स्वागत है, चाहे वह नितिन गडकरी हों, रक्षामंत्री राजनाथ हों या पूर्व वीपी वेंकैया नायडू हों। उन्होंने यह भी कहा कि यह यात्रा चुनावी यात्रा नहीं विचारधारा आधारित यात्रा है।
यात्रा के 107 दिन पूरे होने के बाद ऐसे
विवेचन-विश्लेषण होने लगे हैं कि यात्रा ने राहुल गांधी या पार्टी को कोई लाभ
पहुँचाया है या नहीं। ऐसे किसी भी विवेचन के पहले यह समझने की जरूरत है कि यात्रा
का उद्देश्य क्या था और इसके बाद पार्टी की योजना क्या है। किस उद्देश्य का कितना
हासिल हुआ वगैरह? यात्रा का एक प्रकट उद्देश्य है देश को
जोड़ना, नफरत की भावना को परास्त करना वगैरह। इसका पता लगाना बहुत मुश्किल काम है
कि इसने देश के लोगों के मन पर कितना असर डाला, कितनी नफरत कम हुई और कितना परस्पर
प्रेम बढ़ा।
इसमें दो राय नहीं कि यात्रा का अघोषित
उद्देश्य राहुल गांधी की छवि को बेहतर बनाना और लोकसभा-चुनाव में कांग्रेस पार्टी
की संभावनाओं को बेहतर बनाना है। इसके अलावा एक उद्देश्य पार्टी में जान डालना,
संगठन को चुस्त बनाना और उसे चुनाव के लिए तैयार करना है। इस मायने में मूल
उद्देश्य ही 2024 है। भले ही इसकी घोषणा नहीं की जाए। अलबत्ता जयराम रमेश का कहना
है कि 26 जनवरी से 26
मार्च तक ‘हाथ से हाथ जोड़ो’ अभियान चलाया जाएगा जो भारत जोड़ो का
संदेशा हर बूथ और ब्लॉक में पहुंचाएगा। ‘बूथ और ब्लॉक’ चुनाव
से जुड़े हैं। इस बात को पवन खेड़ा के बयान से पढ़ा जा सकता है। उन्होंने राहुल
गांधी के 2024 में प्रधानमंत्री बनने से जुड़े सवाल
पर कहा कि यह तो 2024 ही तय करेगा, लेकिन अगर आप हमसे
पूछेंगे तो निश्चित रूप से राहुल गांधी को पीएम बनना चाहिए।
बेशक इस यात्रा से देश के लोगों को आपस में
जुड़ने का मौका लगा और राहुल गांधी का व्यक्तित्व पहले से बेहतर निखर कर आया।
यात्रा के दौरान आई भीड़ से यह भी पता लगा कि राहुल गांधी की लोकप्रियता भी अच्छी
खासी है। इस लिहाज से यह यात्रा राजनीतिक-अभिव्यक्ति का अच्छा माध्यम साबित हुई। हमारा
राष्ट्रीय-आंदोलन ऐसी यात्राओं के कारण सफल हुआ था। हमारा समाज परंपरा से यात्राओं
पर यकीन करता है, भले ही वे धार्मिक-यात्राएं थीं, पर लोगों को जोड़ती थीं। पर ऐसी
यात्रा केवल राहुल गांधी या कांग्रेस की थाती ही नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी का
मंदिर आंदोलन ऐसी ही यात्रा के सहारे आगे बढ़ा था।
तमाम राजनेताओं ने समाज से जुड़ने के लिए अतीत में यात्रा के इस रास्ते को पकड़ा था, पर प्रतिफल हमेशा वही नहीं रहा जो अभीप्सित था। राहुल गांधी की यात्रा के राजनीतिक उद्देश्य की सफलता-विफलता का पूरा पता 2024 में ही लगेगा। भीड़ और कुछ फोटोऑप्स इस सफलता के मापदंड नहीं हो सकते। इसके पीछे प्रचार की योजना भी साफ दिखाई पड़ रही है। 2024 में इसका प्रतिफल क्या होगा, उसे लेकर आज सिर्फ अनुमान और अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। पर इसके राजनीतिक निहितार्थ को व्यावहारिक ज़मीन पर पढ़ने की कोशिश जरूर की जा सकती है।
इस यात्रा के योजनाकारों के मन में पार्टी का
जो भी विचार हो, पर बाहर से देखने पर यही समझ में आता है कि पूरी योजना राहुल
गांधी के इर्द-गिर्द है। चुनाव की राजनीति के लिहाज से उनकी छवि विजेता की नहीं
बनी। मोदी विरोधी राजनीति ने भी उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार नहीं
किया है। मोदी की राजनीति ने उन्हें हास्यास्पद बना दिया। वे उसमें फँसते चले गए। पार्टी-अध्यक्ष के रूप में भी वे सफल नहीं हुए। फिर उन्होंने अपने पद
का जिस तरीके से त्याग किया, उससे उनकी छवि में सुधार नहीं हुआ, बल्कि उन्हें
रणछोड़ दास की संज्ञा मिली। इसीलिए कारोबारी भाषा में उनकी यात्रा को उनकी
रिलॉन्चिंग मान सकते हैं।
राहुल गांधी की यह रिलॉन्चिंग विचारधारा के कवर
में लपेट कर की जा रही है। देखना होगा कि क्या पार्टी विचारधारा के स्तर पर कुछ
खास कर पाएगी या नहीं। उनके समर्थक मानते हैं कि हमें चुनाव की राजनीति के
तात्कालिक परिणामों के आधार पर उनकी सफलता का आकलन करने के बजाय उनकी दीर्घकालीन
छवि पर गौर करना चाहिए। यानी बात उनके इर्द-गिर्द ही रहने वाली है। कांग्रेस
पार्टी का विचार अब पूरी तरह व्यक्ति या परिवार-केंद्रित है और वह इससे हटकर कुछ
भी सोचने को तैयार नहीं है।
सवाल है कि कांग्रेस का विचार क्या है? पचास के दशक के नेहरू, सत्तर के दशक की इंदिरा गांधी, अस्सी के दशक
के राजीव गांधी या नब्बे के दशक के नरसिंह राव, 2004 के बाद के मनमोहन सिंह या
इक्कीसवीं सदी के राहुल गांधी? पार्टी ने नरसिंह राव को पहले ही नकार
दिया है। मनमोहन सिंह की ‘वफादारी’ को विचारधारा नहीं कहेंगे। गोकि उनके
दौर का राजनीतिक-आर्थिक विचार कम महत्वपूर्ण नहीं था। 2008 में वामपंथियों के हाथ
खींचने के बाद 2009 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की स्थिति बेहतर हुई थी, तो किस
विचार के आधार पर हुई थी?
लगता है कि पार्टी सत्तर के दशक के नारों पर
चलना चाहती है, जबकि इंदिरा गांधी ने अपने अंतिम वर्षों में रास्ता बदल दिया था। बीजेपी
के साथ कांग्रेस का मुकाबला केवल धर्मनिरपेक्षता बनाम हिंदुत्व का नहीं है। जिस
तरह से शाहबानो और राम मंदिर मसले पर पार्टी अपने अंतर्विरोधों में घिरी थी, वैसे
कई प्रकरण अभी सामने आने वाले हैं। ऐसा ही एक प्रकरण समान नागरिक संहिता के रूप
में सामने आएगा। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की वापसी को लेकर भी पार्टी का
दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं रहा है। सच है कि देश की एकता और बहुल संस्कृति के सामने
चुनौतियाँ हैं, पर केवल यही समस्या नहीं है।
विचारधारा के अलावा पार्टी के सामने संगठन से
जुड़े सवाल भी हैं। यह ठीक है कि परिवार के कारण पार्टी का अस्तित्व टिका हुआ है,
पर इसके साथ ही वफादारी के सवाल भी हैं। पार्टी अध्यक्ष के चुनाव के समय यह बात
शीशे की तरह साफ थी कि मल्लिकार्जुन खड़गे और शशि थरूर में से कौन परिवार की पसंद का
प्रत्याशी है। उसके पहले यह भी साफ था कि अशोक गहलोत को अध्यक्ष बनाने के पीछे
विचार क्या है। इसके पहले पंजाब में कैप्टेन अमरिंदर सिंह बनाम नवजोत सिंह सिद्धू
प्रकरण से भी काफी बातें साफ हो गई थीं। छत्तीसगढ़ में नेतृत्व का सवाल क्यों
उलझा, यह भी साफ है।
संभव है कि देश का मतदाता किसी समय बीजेपी को
हरा लेने का मन बना ले या उसे हरा ही दे, तब राष्ट्रीय-नेतृत्व को लेकर पार्टी का
दृष्टिकोण क्या होगा? यूपीए के दोनों अनुभव गवाह हैं कि कांग्रेस को
दूसरे दलों के साथ रिश्ते बनाने में दिक्कतें पेश आती हैं।
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