नवभारत टाइम्स, दिल्ली के 3 नवम्बर के अंक में विज्ञापनदाता का जैकेट है।
जैकेट इस तरह डिजाइन किया गया है, जिससे बाहर से देखने पर अख़बार का नाम ‘न्यूट्रीचार्ज टाइम्स’ नजर आता है। अखबारों
के चलन को देखते हुए यह बात विस्मयकारी नहीं लगती, पर अखबारों की बिगड़ती साख पर
यह प्रतीकात्मक टिप्पणी जरूर है। यह कारोबार का मामला है। अखबारों में इनोवेटिव विज्ञापनों के नाम पर ऐसे
विज्ञापनों की भरमार है। इनमें कभी-कभार इनोवेशन नजर आता है, पर जो बात सबसे
ज्यादा दिखाई पड़ती है वह है विज्ञापनों को वहाँ जगह दिलाना जहाँ पहले वे नजर नहीं
आते थे। भारतीय भाषाओं के कुछ अखबारों ने अब सम्पादकीय पेज पर विज्ञापन देने शुरू
कर दिए हैं।
मान लिया कि अखबारों के सामने अपने आर्थिक आधार को
मजबूत करने की चुनौती है। पर उन्हें अपनी साख को भी तो बचाना है। साख भी कमाई है। कहा
जा सकता है कि मास्टहैड पर विज्ञापन जाने से अख़बार की साख नहीं बिगड़ती। एक जमाने
में ईयर पैनल पर विज्ञापन होते ही थे। नब्बे के दशक में टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले
सफे पर मास्टहैड के फांट से ही एक तरफ अंग्रेजी में LET और मास्टहैड के बाद WAIT ईयर पैनल की जगह लगा
दिए। इससे मास्टहैड बना “LET THE TIMES OF INDIA
WAIT। यह अख़बार पर ही टिप्पणी थी। विज्ञापन की यह परम्परा आज की नहीं है। सन 1948
में मद्रास के हिन्दू में महात्मा गांधी की हत्या की खबर आखिरी सफे पर थी, क्योंकि
पहले सफे पर विज्ञापन था।
क्या नवभारत टाइम्स को, आभासी रूप में ही सही ‘न्यूट्रीचार्ज टाइम्स’ नजर आना ठीक लगता है?
सच है कि विज्ञापन को लेकर अखबारों के बीच भारी मारामारी है। एक समय ऐसा भी
था जब कम से कम कुछ प्रतिष्ठित अख़बार पहले पेज पर ‘सोलस’
विज्ञापन लेते थे, जिनका अधिकतम आकार तय था। अब शायद ही कोई अख़बार केवल एक
विज्ञापन पहले पेज पर लेने की शर्त लगाता हो। न्यूयॉर्क टाइम्स पहले पेज के
विज्ञापन नहीं लेता था। अब लेने लगा है।
सोलस विज्ञापन भी कारोबारी रणनीति थी। केवल एक विज्ञापन के लिए विज्ञापनदाता
दुगनी-तिगुनी राशि देता था। अब चूंकि अखबारों को भारी डिस्काउंट देना पड़ता है,
इसलिए सोलस का वक्त नहीं रहा। पर अख़बार की प्रतिष्ठा तो बनानी ही होगी। सवाल है
कि आप इनोवेशन के चक्कर में किस हद तक जाएंगे? अखबारों में सरकारों के प्रायोजित परिशिष्ट इस रूप में
प्रकाशित होते हैं जैसे सम्पादकीय विभाग सरकारों की तारीफ कर रहा है। उनके आलेखों
का फांट अलग होना चाहिए, साथ ही साफ लिखा जाना चाहिए कि यह विज्ञापन का पेज है।
विज्ञापनों को खबरों की तरह पेश करना खबरों की प्रतिष्ठा कम करता है। पेड़ न्यूज
का विकास इसी तरह हुआ था। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के स्वामी विनीत जैन ने कहीं कहा
था, हम विज्ञापन के कारोबार में हैं। सच है, पर इसका आधार सम्पादकीय साख ही तो
है।
6 नवम्बर 2013 की मेरी एक फेसबुक पोस्ट हैः-
6 नवम्बर 2013 की मेरी एक फेसबुक पोस्ट हैः-
विज्ञापनदाता किस तरह अखबारों को अपनी उंगलियों पर नचा रहे हैं यह आज के कुछ अखबारों को देखकर समझा जा सकता है। जिन अखबारों में आज स्टार स्पोर्ट्स का जैकेट छपा है उन्होंने खबरों के अपने पहले पेज को सचिन तेन्दुलकर के नाम समर्पित कर दिया है। यहाँ कुछ अखबारों ने समझदारी दिखाई और तेन्दुलकर-सामग्री के ऊपर मास्टहैड नहीं लगाया। दैनिक जागरण ने उसपर मास्टहैड भी लगाया और पेज 5 पर मंगलयान के प्रक्षेपण की खबर छापी।
8 नवम्बर 2016 का दिल्ली का टाइम्स ऑफ इंडिया NUTRICHARGE INDIA था |
bahut khoob sir, ye chalan lagbhag sabhi akhbaro me dekhne ko mil raha hain... agar aap dekhe to ye chalan internet par bhi kam nahi hai... jaha par kisi website par ekka dukka ad dekhne ko milte the... wahi par in news websites par dozen ke hisaab se ad bhare pade milte hai... iska hal bhi hai... magar bhautikvaad me wah hal kisi ko shayad dikhayi nahi padta...
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