अयोध्या के मंदिर-मस्जिद विवाद ने देश को बहुत कुछ सोचने समझने का मौका दिया है और आज हम ठंडे दिमाग से देश की एकता और संस्कृति की बहुलता पर विचार कर सकते हैं। दो साल पहले 2020 में स्वतंत्रता दिवस के ठीक दस दिन पहले अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू होने के साथ एक नए युग की शुरुआत हुई थी। आशा है कि मंदिर की छत और गुंबद का काम अगस्त 2023 में पूरा हो जाएगा और हाल में श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने मंदिर का निर्माण दिसंबर 2023 तक पूरा हो जाने की बात कही है।
संभवतः जनवरी 2024 में मकर संक्रांति के बाद
मंदिर में विधिवत दर्शन-पूजन शुरू कर हो जाएंगे। मंदिर के प्रथम तल का निर्माण
कार्य पूरा हो जाएगा और सूर्य के उत्तरायण होते ही शुभ मुहूर्त में मंदिर की
प्राण-प्रतिष्ठा हो जाएगी। संभावना है कि उसी समय मंदिर से करीब 25 किलोमीटर दूर
प्रस्तावित मस्जिद के पहले चरण का निर्माण भी पूरा हो जाएगा।
2019 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आया तब एक
बात कही जा रही थी कि भारतीय ‘राष्ट्र-राज्य के मंदिर’ का
निर्माण सर्वोपरि है और इसमें सभी धर्मों और समुदायों की भूमिका है। हमें इस देश
को सुंदर और सुखद बनाना है। मंदिर आंदोलन के कारण गाड़ी ऐसी जगह फँसी, जहाँ से
बाहर निकालने रास्ता सुझाई नहीं देता था। अदालत ने उस जटिल गुत्थी को सुलझाया, जिस
काम से वह पहले बचती रही थी। यह फैसला दो कारणों से उल्लेखनीय था। एक तो इसमें सभी
जजों ने एकमत से फैसला किया और केवल एक फैसला किया। उसमें कॉमा-फुलस्टॉप का भी
फर्क नहीं रखा। यह बात बहुत से लोगों को अच्छी लगी और कुछ लोगों को खराब भी लगी।
सुप्रीम कोर्ट के सामने कई तरह के सवाल थे और
बहुत सी ऐसी बातें, जिनपर न्यायिक दृष्टि से विचार करना बेहद मुश्किल काम था। पर
उसने एक जटिल समस्या के समाधान का रास्ता निकाला। और अब इस सवाल को हिन्दू-मुस्लिम
समस्या के रूप में देखने के बजाय राष्ट्र-निर्माण के नजरिए से देखा जाना चाहिए।
सदियों की कड़वाहट को दूर करने की यह कोशिश हमें सही रास्ते पर ले जाए, तो इससे
अच्छा कुछ नहीं होगा।
अदालत ने इस मामले की सुनवाई पूरी होने के बाद सभी पक्षों से एकबार फिर से पूछा था कि आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है। इसके पहले अदालत ने कोशिश की थी कि मध्यस्थता समिति के मार्फत सभी पक्षों को मान्य कोई हल निकल जाए। ऐसा होता, तो और अच्छा होता। पर इसके साथ ही कुछ सवाल भी खड़े हुए। क्या यह राष्ट्र-निर्माण का मंदिर बन पाएगा? क्या यह एक नए युग की शुरुआत है? ये बड़े जटिल प्रश्न हैं।
नवंबर 2019 में सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद
समस्या के रूप में इस मसले का पटाक्षेप जरूर हो गया, पर तीन तरह की प्रतिक्रियाएं
दिखाई और सुनाई पड़ीं। सबसे आगे है मंदिर समर्थकों का विजय-रथ, उसके पीछे है कथित
लिबरल-सेक्युलरवादियों की निराश सेना। उन्हें लगता है कि हार्डकोर हिन्दुत्व के
पहियों के नीचे देश की बहुलवादी, उदार संस्कृति ने दम तोड़ दिया है। इन दोनों
शिखरों के बीच मौन-बहुमत खड़ा है, जो कट्टरवाद का विरोधी है, पर राम मंदिर को
कट्टरता का प्रतीक भी नहीं मानता। बीच वाले इस समूह में हिंदू और मुसलमान दोनों शामिल
हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन के पहले से भारत
राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की भूमिका है। आने वाले दौर की राजनीति और सामाजिक व्यवस्था व्यापक सामाजिक
विमर्श के दरवाजे खोलेगी और जरूर खोलेगी। यह विमर्श एकतरफा नहीं हो सकता। इसमें
सभी वर्गों की भूमिका जरूरी है। भारतीय समाज में तमाम अंतर्विरोध हैं, टकराहटें
हैं, पर एक धरातल पर अनेकता और विविधता को जोड़कर चलने की सामर्थ्य भी है। फिलहाल
सवाल यह है कि क्या हमारी यह विशेषता खत्म होने जा रही है?
बहुत से लोग राम मंदिर के निर्माण को भारत में उदारवाद की पराजय के रूप में देखते हैं। पराजय है भी तो उदारवाद की नहीं उदारवादियों
की है। हमारे समाज की बुनियाद ही उदारता पर टिकी है, उससे
वह हट नहीं सकता। हिंदू मानस भारत को धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में ही देखता
है और इसकी रक्षा भी उसे ही करनी है। पर राजनीतिक हिंदुत्व का विरोध करने की हड़बड़ी
में लिबरल तबके ने भी कुछ बातों की अनदेखी की।
सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवंबर 2019 को अयोध्या के
अरसे पुराने मामले में फैसला सुनाते हुए विवादित स्थल की 2.77 एकड़ जमीन मंदिर
बनाने के लिए हिंदू पक्ष को देने का आदेश दिया था। साथ ही मुसलमानों को अयोध्या
में ही किसी प्रमुख स्थान पर मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन देने का आदेश
दिया था। यह ज़मीन अयोध्या शहर से 26 किलोमीटर दूर धन्नीपुर नाम के गांव में दी गई
थी।
मंदिर निर्माण के बारे में हमें जानकारी मिलती
रहती है। क्या हमने जानने का प्रयास किया है कि मस्जिद निर्माण की स्थिति क्या है? उसकी योजना क्या है, उसके लिए साधनों की व्यवस्था क्या है और कौन लोग
उसके लिए प्रयास कर रहे हैं? वस्तुतः इन सवालों की प्रकृति राजनीतिक
नहीं है, इसलिए बहुत कम लोगों की दिलचस्पी इन बातों में रह गई है। शायद मुसलमानों
के बीच भी इस योजना को लेकर विशेष उत्साह नहीं है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार संभवतः 26 जनवरी,
2023 से मस्जिद का निर्माण शुरू हो जाएगा। उम्मीद है कि दिसंबर में जब मंदिर
निर्माण अपनी पूर्णता के चरण में होगा, मस्जिद का शुरुआती चरण भी तैयार होगा। इस
कार्य देरी होने के अनेक कारण हैं। एक तो जमीन तय करने में समय लगा और फिर उसके
बाद नक्शा पास करना वगैरह में। इस योजना का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इस काम
में बड़ी संख्या में हिंदू योगदान कर रहे हैं। इस योजना के पहले 11 दानदाता हिंदू
हैं। यह गुप्तदान है, इसलिए इनके नाम बताए नहीं गए हैं।
इस सिलसिले में इस साल अक्तूबर-नवंबर में
प्रकाशित रिपोर्टों के अनुसार अनुसार जो परियोजना तैयार की गई है उसके मुताबिक़
23507 वर्ग मीटर की ज़मीन में एक मस्जिद, एक अस्पताल,
उसका बेसमेंट, एक म्यूज़ियम और एक सर्विस ब्लॉक बनना
है। अस्पताल 200 बेड का होगा, मस्जिद में 2000 नमाज़ियों की व्यवस्था
होगी और संग्रहालय 1857 के स्वतंत्रता-संग्राम की थीम पर बनाया जाएगा और वह मौलवी अहमदुल्ला
शाह को समर्पित होगा, जिन्होंने लखनऊ के चिनहट इलाके में अंग्रेजों की सेना के
खिलाफ हुई लड़ाई का नेतृत्व किया था।
म्यूज़ियम इस परियोजना का अहम हिस्सा होगा। ट्रस्ट
मानता है कि मंदिर आंदोलन और उससे जुड़ी घटनाओं की वजह से समाज में बँटवारे का
माहौल था। यह मस्जिद 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की याद दिलाएगी जो हिन्दू-मुस्लिम
साझा संघर्ष की मिसाल था। अवध का इलाका इस संघर्ष का केंद्र था। यह परियोजना
हिंदू-मुस्लिम एकता की थीम पर आधारित है।
यह निर्माण इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन
मस्जिद ट्रस्ट की देखरेख में होगा। उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने इस ट्रस्ट
का गठन किया है। यह निर्माण दो चरणों में प्रस्तावित है जिसकी लागत 300 करोड़
रुपये है। पहले चरण में हॉस्पिटल का एक हिस्सा, मस्जिद
और कल्चरल सेंटर और क्लाइमेट चेंज को ध्यान में रखते हुए एक ग्रीन बेल्ट शामिल हैं।
दूसरे चरण में सिर्फ़ हॉस्पिटल के विस्तार का काम होगा जिस पर 200 करोड़ ख़र्च
करने की योजना है। इस पूरे प्रकरण के विस्तार को हमें इन दोनों योजनाओं के साथ
देखना और समझना होगा। भविष्य में दोनों राष्ट्र-राज्य के महत्वपूर्ण प्रतीक साबित
होंगे।
कोलकाता के दैनिक वर्तमान में प्रकाशित
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