Thursday, August 27, 2020

खुद से लड़ती कांग्रेस


कांग्रेस पार्टी के आंतरिक विवाद का रोचक पहलू सोमवार 24 अगस्त को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सामने आया। सुधार की माँग करने वालों की बात सुनने के बजाय, उल्टे उनपर ही आरोप लगने लगे। हरियाणा के वरिष्ठ नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा उन 23 लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने पार्टी अध्यक्ष को पत्र लिखा था कि ‘फुलटाइम और प्रभावशाली नेतृत्व’ होना चाहिए। बैठक के बाद उन्होंने सोनिया गांधी का इस बात के लिए शुक्रिया अदा किया कि वे अध्यक्ष पद पर बने रहने को तैयार हो गईं हैं। फौरी तौर पर नजर आता है कि पार्टी में अब केवल एक मसला है, आप गांधी परिवार के साथ हैं या नहीं? पर ज्यादा गहराई से देखें, तो इस चिट्ठी ने तमाम परतें खोल दी हैं। पार्टी के भविष्य के लिए यह परिघटना काफी महत्वपूर्ण साबित होगी।  

पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने कहा है कि इस मौके पर पार्टी की ओवरहॉलिंग की बात करना पार्टी और देश दोनों के खिलाफ है। राहुल गांधी ने इस पत्र के समय पर सवाल उठाया और पत्र लिखने वालों की मंशा पर खुलकर प्रहार किया। साफ है कि अंतर्मंथन की माँग करने वालों के लिए पार्टी में जगह नहीं है। दूसरे ‘गांधी परिवार’ से हटकर पार्टी नेतृत्व की कल्पना भी संभव नहीं। इस पत्र पर विचार के लिए हुई बैठक में सारी बातें पीछे रह गईं, केवल पत्र की आलोचना होती रही। पत्र लिखने की मंशा पर वार होते रहे।

सवाल यह है कि अब क्या होगा? पत्र में लिखी बातें हवा में फिर भी गूँजेगी। ये पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं। उनकी मंशा क्या हो सकती है? उनमें से चार नेता इस बैठक में शामिल थे। उनकी बातों को सुना जाना चाहिए था। पर बैठक किसी दूसरी दिशा में चली गई। पर ये बातें खत्म फिर भी नहीं हुईं हैं। कपिल सिब्बल ने अपने ऊपर लगे आरोप को लेकर एक करारा सा ट्वीट जरूर किया, पर वह ट्वीट राहुल गांधी के एक फ़ोन कॉल के बाद डिलीट कर दिया। इस बैठक की गर्मागर्मी के बाद सोनिया और राहुल दोनों ने गुलाम नबी आजाद से बात भी की। इसका मतलब यह है कि संदेश ऊपर तक पहुँच गया है। अब गुलाम नबी को उस समिति का सदस्य बनाया गया, तो इस पत्र की सार्थकता और ज्यादा स्पष्ट होगी। आजाद ने कहा भी है कि मैं उस समिति में शामिल होने को तैयार हूँ। बात सिर्फ इतनी है कि किसी न किसी को जोखिम उठाकर दृढ़ता के साथ अपनी बात रखनी होगी। उसे साबित करना होगा कि हम पार्टी का हित चाहते हैं। 

फिलहाल सोनिया गांधी अध्यक्ष बनी रहेंगी, पर आने वाले समय में किसी न किसी को अध्यक्ष तो बनाना ही होगा। परिवार से ही कोई हुआ, तो दिक्कत नहीं होगी, पर कठपुतली अध्यक्ष बनाने की कोशिश हुई, तो बात बढ़ेगी। सवाल है कि क्या पत्र लिखने वालों ने इन सब बातों पर विचार नहीं किया होगा? क्या वे अपनी पार्टी के मिजाज को नहीं समझते हैं? क्या ओवरहॉलिंग के लिए कोई वक्त तय होता है? क्या यह पत्र किसी और बात की पेशबंदी है? क्या उन्हें कुछ होता नजर आ रहा है?

‘गांधी परिवार’ के चतुर्दिक जैकारे के बीच करीब दो दशक बाद पार्टी से असहमति के दृढ़ स्वर सुनाई पड़े हैं। सवाल यह नहीं है कि पत्र किसने लिखवाया, किसने लीक कराया और कौन चाहता है कि पार्टी के भीतर नीचे से ऊपर तक बदलाव किया जाए?  यह भी नजर आता है कि राहुल गांधी ने जिस तबके को किनारे किया था, वह इस पत्रांदोलन के पीछे है। पर सब कुछ इतना सीमित भी नहीं है। पत्र लिखने वाले ज्यादातर वरिष्ठ नेता हैं। वे सब किसी एक गुट से वास्ता नहीं रखते हैं। लगता यह है कि इन नेताओं के बीच लम्बे विचार-विमर्श के बाद यह पत्र लिखा गया है। इसकी प्रतिक्रिया क्या होगी, इसका उन्हें अनुमान भी होगा।  

इस पत्र को पढञने से इतना जाहिर होता है कि पार्टी के भीतर एक बड़ा तबका मानता है कि बीजेपी के सामने खड़े होने के लिए कांग्रेस को नई शक्ल अपनानी होगी। केवल परिवार ही चमत्कार नहीं कर सकेगा। इसका मतलब यह भी है कि पार्टी पूरी तरह परिवार के अधीन नहीं है। उसके वरिष्ठ नेता खुले मन से कुछ विचार कर रहे हैं। कार्यसमिति की बैठक से ज्यादा महत्वपूर्ण बैठक इसके बाद ग़ुलाम नबी आज़ाद के घर पर हुई।

सवाल है कि क्या 'असंतुष्ट' नेता, पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ेंगे? क्या वे पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक लड़ाई लड़ सकते हैं? सच है कि पार्टी में नीचे तक काफी असंतोष है, पर क्या कार्यकर्ता खुलकर सामने आ सकेंगे? और आ भी गए तो क्या ‘परिवार विहीन’ कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी हो पाएगी? पार्टी न ऐसे खड़ी हो पा रहा है और न वैसे, तब होगा क्या? वह अपने इतिहास के सबसे नाजुक दौर में आ चुकी है। उसके उठने के आसार भी नजर नहीं आ रहे हैं।

पार्टी के भीतर इस समय नेतृत्व ही सबसे बड़ा सवाल है, जो अनिश्चित है। यदि राहुल गांधी ही नेता हैं, तो वे सामने आकर कमान क्यों नहीं संभालते? बहुत से नेताओं को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि एक तरफ राहुल गांधी पार्टी के अध्यक्ष नहीं है, दूसरी तरफ वास्तविक अध्यक्ष भी वही हैं। उनकी ज्यादातर बातें मानी जाती हैं। चुनाव कराकर वे किसी नए अध्यक्ष को लाने का प्रयास भी नहीं कर रहे हैं। यह क्या रणनीति हुई?  

इस पत्र की लानत-मलामत के बाद यह तो देखा जाना ही चाहिए कि इसमें लिखा क्या था। पत्र लेखकों की सामान्य सी माँग थी। पार्टी की सत्ता का विकेंद्रीकरण हो। राज्यों की शाखाओं को अपने फैसले करने का मौका दिया जाए। नीचे से ऊपर तक पार्टी में चुनाव कराए जाएं। केंद्रीय संसदीय बोर्ड का गठन किया जाए वगैरह। पूर्णकालिक और प्रभावशाली नेतृत्व चाहिए, जो सक्रिय हो और सक्रिय दिखाई भी पड़े। उन्होंने लिखा है कि पार्टी के संसदीय दल में अब विचार-विमर्श भी नहीं होता। केवल पार्टी अध्यक्ष का औपचारिक भाषण होता है और शोक-संदेश पास होते हैं।

यह नहीं मान लेना चाहिए कि पत्र अपना उद्देश्य पूरा नहीं कर पाया। पत्र लिखने वालों को इस बात का आभास रहा होगा कि इसका तात्कालिक परिणाम क्या होगा। उनके पास अभी कुछ तीर और होने चाहिए, पर अभी इस पत्र का पूरा असर देखने में नहीं आया है। यह केवल कुछ नेताओं की व्यक्तिगत लालसा का सवाल नहीं है। इसे बीजेपी से प्रेरित गतिविधि भी नहीं मान लेना चाहिए। अभी बात दूर तक गई नहीं है। कार्यसमिति की बैठक में जो हुआ, उसे कहानी का अंत नहीं मान लेना चाहिए। वह मध्यांतर था। अब देखना होगा कि आगे होता क्या है।

संभव है कि आने वाले समय में पार्टी महासमिति की बैठक बुलाई जाए। पार्टी का नेतृत्व पत्र लिखने वालों से अलग से बात करे और समझने का प्रयास करे कि उनका मंतव्य क्या है। ऐसे नेतृत्व को उभरना या उभारना ही होगा, जो परिस्थितियों को बेहतर तरीके से समझता हो, जनता से संवाद करने की क्षमता रखता हो, अपनी पार्टी की आंतरिक और बाहरी ताकत को समझता हो वगैरह-वगैरह। यह मान लेना कि केवल परिवार ही पार्टी की धुरी बन सकता है, आत्यंतिक समझ है। चिट्ठी लिखने वालों ने भी उसे अनजाने में नहीं लिखा होगा। उसके पीछे कई तरह के दिल और दिमाग हैं। हो सकता है कि ऐसा कुछ भी न हो। तब मान लीजिएगा कि इस नाव का कोई खिवैया नहीं है।

राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

 

 

 

 

 

 

 

 

2 comments: