Sunday, August 9, 2020

मंदिर से आगे की राजनीति

गत 5 अगस्त को शिलान्यास के फौरन बाद सोशल मीडिया पर यों तो कई तरह के प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, पर दो ट्वीट का जिक्र करना प्रासंगिक होगा। भूमि पूजन के पहले पर्सनल लॉ बोर्ड के अकाउंट से अंग्रेजी में ट्वीट किया गया कि बाबरी मस्जिद थी और हमेशा ही मस्जिद रहेगी। अन्यायपूर्ण, दमनकारी, शर्मनाक और बहुसंख्यक तुष्टीकरण के आधार पर किया गया फैसला इसे नहीं बदल सकता। इस ट्वीट को लेकर आपत्तियाँ उठाई गईं, तो इसे हटाकर 6 अगस्त को उर्दू में एक ट्वीट किया गया, जिसकी भाषा में कानूनी सावधानियाँ बरती गईं हैं, पर आशय वही है कि मस्जिद थी और रहेगी। अदालत ने फैसला किया है, पर न्याय को ठेस पहुँचाई गई है। पहले वाले ट्वीट में तुर्की की हागिया सोफिया मस्जिद का हवाला दिया गया था।
दूसरे जिस ट्वीट ने ध्यान खींचा वह था, पत्रकार शाहिद सिद्दीकी का। उन्होंने समान नागरिक संहिता लागू होने की तारीख़ का अनुमान लगाते हुए लिखा कि यह काम भी सरकार 5 अगस्त 2021 तक पूरा कर देगी। अब कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र के दो अहम मुद्दे पूरे कर लिए हैं। पहला-जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाना और दूसरा-राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ करना। हालांकि कई तरह की चुनौतियाँ सामने हैं, पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ समन्वय इस बात का संकेत तो दे ही रहा है कि पार्टी विचारधारा से जुड़े अपने कार्यक्रम पर दृढ़ है और अपनी सभी घोषणाओं को पूरा करना चाहती है। मंदिर कार्यक्रम मे मोहन भागवत की उपस्थिति यह भी बता रही है कि संघ अब ज्यादा सक्रिय भूमिका में है।

भारतीय जनता पार्टी के 2019 के चुनाव घोषणापत्र में जिन 75 कार्यक्रमों को पूरा करने की घोषणा की गई थी, उनमें नागरिकता कानून में संशोधन, अनुच्छेद 370 की समाप्ति, राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करना और समान नागरिकता कानून लागू करना शामिल है। इनमें समान संहिता वाली बात ही बची है। इस लिहाज से संभव है कि अगले साल 5 अगस्त को उसका रास्ता भी साफ हो जाए। नरेंद्र मोदी की कार्यशैली को देखते हुए यह बात असंभव भी नहीं लगती है। हाँ कई प्रकार के किन्तु-परन्तु इसके साथ जुड़े हैं, जो समय के साथ स्पष्ट होंगे। काशी और मथुरा के मंदिरों से लेकर पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर तक कई कार्यक्रम ऐसे हैं, जिन्हें लेकर संदेह हैं और उम्मीदें भी।

मोदी के नेतृत्व की दो बातें फिर भी स्पष्ट हैं। पहली निर्णय की दृढ़ता और दूसरी आश्चर्य में डालने की शैली। उनके ज्यादातर निर्णयों का पूर्वानुमान किसी को नहीं रहता। राम मंदिर निर्माण का फैसला काफी हद तक सुप्रीम कोर्ट केंद्रित था, पर पार्टी और सरकारी इस विषय पर क्या सोच रही है, इसका अनुमान लगा पाना काफी कठिन था। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव के छह महीने पहले से मंदिर आंदोलन फिर से जोर पकड़ने लगा था और लगता था कि सरकार अर्दब में है। नवंबर 2018 में विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या की ‘धर्मसभा’ में आंदोलन को जारी रखने का संकल्प किया। शिवसेना के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भी अयोध्या आए और उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के पास मंदिर बनाने का पूरा अधिकार है। ऐसा नहीं करेगी तो यह सरकार दोबारा नहीं बनेगी, लेकिन राम मंदिर जरूर बनेगा। नागपुर की ‘हुंकार सभा’ में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा, ‘हमारे धैर्य का समय बीता जा रहा है।’

उन दिनों चर्चा इस बात की थी कि सरकार अध्यादेश लाकर मंदिर निर्माण की घोषणा कर सकती है। वैसा होता, तो टकराव होता। कांग्रेस की ओर से तंज मारे जा रहे थे कि क्या हुआ मंदिर का वायदा? उन्हीं दिनों राहुल गांधी ने मंदिरों में दर्शन का अभियान शुरू किया था। लोकसभा परिणाम आने के बाद घटनाक्रम तेजी से बदला और मंदिर की राहें खुलती चली गईं। इस दौरान मोदी के नेतृत्व की तीन बातें नजर आने लगीं है। एक ‘दृढ़ता’, दूसरे ‘विस्मय का तत्व’ और तीसरे ‘जोखिम।’ आने वाले समय देश के भीतर और बाहर मोदी पर विरोधियों के हमले और तेज होंगे।

मंदिर के फैसले से विस्मय नहीं हुआ, पर पिछले साल अनुच्छेद 370 ने बड़े-बड़ों को हिला दिया। कश्मीर में अचानक सुरक्षा व्यवस्था में आती तेजी को लेकर तमाम बातें हवा में थीं, पर 370 को लेकर कोई अटकल नहीं थी। पहली अगस्त को नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला अपने बेटे उमर अब्दुल्ला और कुछ दूसरे नेताओं को लेकर मोदी से मिलने गए। मोदी ने इस बात की हवा तक नहीं लगने दी कि चार दिन बाद क्या होने वाला है।

इन फैसलों के पीछे हैरत और विस्मय से ज्यादा दृढ़ता का दर्शन होता है। जो तय कर लिया, वह होगा ही होगा। पिछले साल 5 अगस्त को कश्मीर का फैसला हुआ और इस साल 5 अगस्त को शिलान्यास। इसलिए अगले साल के 5 अगस्त को समान नागरिक संहिता भी एक प्रकार की अटकल है। हो सकता है कि इस मामले में भी विस्मयकारी फैसला सुनाई पड़े। चूंकि सरकार ट्रिपल तलाक पर अपनी घोषणाओं को पूरा करके दिखा चुकी है, इसलिए विस्मय की बात नहीं कि वह समान नागरिक संहिता से जुड़ा फैसला भी लागू करवा दे।

जिन बातों को राजनीति में जोखिम समझा जाता था, उन्हें जानबूझकर उठाकर मोदी ने अपना जनाधार का विस्तार किया है। अगले साल बंगाल में चुनाव हैं और वहाँ पता लगेगा कि बीजेपी की यह राजनीति सफल है या विफल। पर बीजेपी के सामने विचारधारा से जुड़े एजेंडा को लागू करने की चुनौती ही नहीं है। ज्यादा बड़ी चुनौती आर्थिक मोर्चे पर है। वोटर को रोटी, कपड़ा और मकान भी चाहिए। कोरोना के कारण यह चुनौती और बड़ा रूप ले चुकी है। दूसरी बड़ी चुनौती कश्मीर की है। वहाँ के राज्यपाल को बदला गया है, जिससे लगता है कि किसी स्तर पर राजनीतिक गतिविधियाँ चल रही हैं।

मोदी की योजना में कश्मीर सबसे विस्मयकारी तत्व साबित होता रहा है। तीसरी चुनौती चीन की है, जो एक जगह पर जाकर कश्मीरी चुनौती से मिलती है। इस चुनौती के तार वैश्विक राजनीति से जुड़े हुए हैं, जहाँ कई विस्मयकारी परिघटनाएं अपनी बारी आने का इंतजार कर रही हैं।

हरिभूमि में प्रकाशित

 

 

 

 

1 comment:

  1. विस्तारित बड़े फ्रेम में सब अच्छा है। छोटे छोटे फ्रेमों के अंदर के भ्रष्टाचारों पर बड़ी नजर वाला भी कोई दिखे तो बात है। पता नहीं हमारी छोटी सोच में क्यों नहीं घुस पाता है ये बड़ा विस्तार?

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