राजनीतिक बयानबाज़ी मर्यादा रेखाओं को पार कर रही है। राफेल विमान के सौदे से जुड़े एक आदेश के संदर्भ में राहुल गांधी को अपने बयान ‘चौकीदार चोर है’ पर सुप्रीम कोर्ट से बिना किसी शर्त के माफी माँगनी पड़ी है। इस आशय का हलफनामा दाखिल करते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से प्रार्थना की है कि अब अवमानना के इस मामले को बंद कर देना चाहिए। अदालत राफेल मामले पर अपने 14 दिसम्बर, 2019 के आदेश पर पुनर्विचार की अर्जी पर भी विचार कर रही है। अब 10 मई को पता लगेगा कि अदालत का रुख क्या है। अपने माफीनामे में राहुल ने कहा है कि अदालत का अपमान करने की उनकी कोई मंशा नहीं थी। भूल से यह गलती हो गई।
इस चुनाव में कांग्रेस ने ‘चौकीदार चोर है’ को अपना प्रमुख राजनीतिक नारा बनाया है। यह नारा राफेल सौदे से जोड़कर कांग्रेस ने दिया है। अब बीजेपी ने इसपर पलटवार करते हुए ‘खानदान चोर है’ का नारा दिया है। चुनाव के अब केवल दो दौर शेष हैं। इधर झारखंड की एक रैली में मोदी ने राहुल गांधी को संबोधित करते हुए कहा, 'आपके पिताजी को आपके राज-दरबारियों ने मिस्टर क्लीन बना दिया था, लेकिन देखते ही देखते भ्रष्टाचारी नंबर वन के रूप में उनका जीवन-काल समाप्त हो गया।' कांग्रेस के नारे 'चौकीदार चोर है' के जवाब में यह सीधी चोट है।
सुप्रीम कोर्ट में राहुल गांधी की माफी का मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस पार्टी 'चौकीदार चोर है' के नारे से हट गई है। राहुल के वकील अभिषेक सिंघवी का कहना है कि यह पार्टी का राजनीतिक नारा है। और पार्टी उसपर कायम है। यह बात उन्होंने हलफनामे में भी कही है। पर अब बीजेपी ने जब राजीव गांधी को भी घेरे में ले लिया है, तब सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या दिवंगत व्यक्ति को लेकर इस प्रकार की राजनीति उचित है? बीजेपी का कहना है कि हम केवल वास्तविक स्थिति को बयान कर रहे हैं, इसमें गलत क्या है?
नरेन्द्र मोदी एक अरसे से खुद को जनता के चौकीदार के रूप में पेश करते रहे हैं। इस बीच राफेल मामले को लेकर दायर की गई कुछ याचिकाओं पर गत 14 दिसम्बर, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को क्लीन चिट दी। इसपर राहुल गांधी ने कहा कि हम साबित करके रहेंगे कि विमान-सौदे में ‘चोरी’ हुई है। अदालत में फैसले पर पुनर्विचार के लिए अर्जी दी गई। अपनी बात को पुख्ता करने के लिए कुछ ऐसे दस्तावेज अदालत में पेश किए गए, जो गोपनीय की परिभाषा में आते हैं। सरकार ने गोपनीय दस्तावेजों को इस तरह से पेश करने पर आपत्ति व्यक्त की। इसपर अदालत ने 10 अप्रैल, 2019 को कहा कि गोपनीय दस्तावेज लगाए जा सकते हैं। अदालत की इस व्याख्या के संदर्भ में राहुल गांधी ने बेसाख्ता कहा कि इससे साबित है कि ‘चौकीदार चोर है।’ राहुल का यह सार्वजनिक वक्तव्य अवमानना के दायरे में आ गया।
'चौकीदार चोर है' की प्रतिक्रिया में जब बीजेपी ने ‘खानदान चोर है’ का नारा दिया और राजीव गांधी तक का नाम घसीट लिया, तो प्रियंका गांधी भी मैदान में उतर आईं। उन्होंने मंगलवार को अम्बाला की चुनावी रैली में मोदी पर निशाना साधते हुए कहा, ऐसा अहंकार दुर्योधन में भी था। उन्होंने ‘दिनकर’ की एक कविता को उधृत किया, ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है।’
प्रियंका के हमले के जवाब में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि 23 मई को तय होगा कि कौन दुर्योधन है और अर्जुन कौन है। इन दोनों वक्तव्यों के रूपकों और मुहावरों की अनदेखी की जा सकती है, पर मर्यादा रेखाएं टूटने का खतरा अभी आगे है। प्रियंका के बयान के अगले रोज बुधवार को राजद की नेता रबड़ी देवी ने कहा, ‘उन्होंने दुर्योधन बोल कर गलत किया है। दूसरा भाषा बोलना चाहिए उनको। वो सब तो जल्लाद हैं, जल्लाद।’ उन्होंने मोदी को नाली का कीड़ा भी बताया। कहना मुश्किल है कि राबड़ी जिस ‘दूसरा भाषा’ की बात कह रही हैं, उससे उनका आशय क्या है? राजनीतिक विरोध की भाषा किस स्तर पर जाकर मर्यादा खोती है, इसे समझने की जरूरत है। बुधवार को मोदी ने अपनी एक सभा में कहा, इन्होंने अपनी प्रेम की डिक्शनरी में से मुझे कितनी गालियाँ दीं हैं। मेरी माँ को भी नहीं छोड़ा। नाली का कीड़ा कहा, पागल कुत्ता, बंदर, भस्मासुर और मेरी तुलना दाऊद इब्राहीम से की। यह सब मेरे प्रधानमंत्री बनने के बाद कहा गया। यह भी देखना चाहिए कि इसकी शुरुआत कहाँ से होती है। सितम्बर, 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक के बाद राहुल ने कहा, राहुल ने कहा था कि पीएम मोदी सैनिकों के खून की दलाली कर रहे हैं। नवम्बर 2016 में नोटबंदी के बाद उन्होंने कहा मुझे संसद में बोलने का मौका नहीं दिया जा रहा है। मैं बोलूँगा, तो भूकम्प आ जाएगा। उन्हीं दिनों सहारा डायरी की जानकारियाँ बाहर आईं थीं। फिर राफेल सौदे को लेकर पार्टी ने अपना अभियान शुरू कर दिया।
हाल में इंडिया टुडे से एक इंटरव्यू में राहुल ने कहा है कि मैं मोदी की ईमानदार छवि को ध्वस्त कर देना चाहता हूँ। ज़ाहिर है कि राजनीति अब बेहद कड़वे मोड़ पर आ गई है। दोनों तरफ की भाषा में जहर है। यह पार्टियों के उच्चतर नेतृत्व की भाषा है। निचले स्तर पर काट डालने और मार डालने की बातें हैं। चुनाव के हर दौर में बंगाल से जबर्दस्त खूंरेज़ी की खबरें आ रहीं हैं। हाल में फिल्म कलाकार अक्षय कुमार के साथ टीवी इंटरव्यू में मोदी ने कहा कि ममता दीदी साल में आज भी मेरे लिए एक-दो कुर्ते भेजती हैं। साल में एक-दो बार मिठाई जरूर भेज देती हैं। इस जवाब को सुनकर ममता बनर्जी ने कहा, हम मोदी को मिट्टी के लड्डू और पत्थर के रसगुल्ले भेजेंगे। इस बयान की कड़वाहट राजनीति के गिरते स्तर को ही बयान कर रही है।
राजनीति के साथ मीडिया का दायरा भी बढ़ रहा है। फ़ेकन्यूज़ बढ़ रही है और आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायतें भी बढ़ रहीं हैं। चुनाव आयोग की मर्यादा पर भी प्रहार हो रहे हैं। ये बातें भी सुप्रीम कोर्ट के सामने जा रही हैं या भविष्य में जाएंगी। सवाल है कि क्या राजनेताओं को कुछ भी बोलने का अधिकार है? बीजेपी के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली का कहना है कि हमारे संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है। आचार संहिता के नाम पर अभिव्यक्ति को दबाया नहीं जा सकता। पर सच यह है कि हमें अभिव्यक्ति का असीमित अधिकार प्राप्त नहीं है। उसपर विवेक-सम्मत पाबंदियाँ भी संविधान ने लगाई हैं।
2014 के चुनाव के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट में दो बार ‘हेट स्पीच’ का मामला उठा था। अदालत ने 12 मार्च, 2014 को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए विधि आयोग को निर्देश दिया था कि वह नफरत भरे बयानों, खासतौर से चुनाव के दौरान ऐसी हरकतों को रोकने के लिए दिशा निर्देश तैयार करे। ऐसे बयान देने वालों को सजा न मिल पाने का कारण यह नहीं है कि हमारे कानूनों में खामी है। कारण यह है कि कानूनों को लागू करने वाली एजेंसियाँ शिथिल हैं। अदालत की उस बात को हम पिछले चुनाव के बाद अब याद कर रहे हैं।
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