चुनाव परिणाम आने के बाद इतिहास लेखक राम गुहा ने
ट्वीट किया कि हैरत की बात है कि राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा
नहीं दिया है। पार्टी को अब नया नेता चुनना चाहिए। परिणाम आने के पहले योगेन्द्र
यादव ने कहीं कहा कि कांग्रेस को मर
जाना चाहिए। इस चुनाव में यदि कांग्रेस आइडिया ऑफ इंडिया को बचाने के लिए बीजेपी
को रोकने में असफल रहती है, तो मान लेना चाहिए कि इस पार्टी का इतिहास में कोई
सकारात्मक रोल नहीं रहा है। आज कांग्रेस वैकल्पिक राजनीति को बनाने में एक मात्र
सबसे बड़ी बाधा है।
इस किस्म के ट्वीटों और बयानों का क्रम शुरू हो
गया है। पर ये बातें व्यावहारिक राजनीति से बाहर बैठे लोगों की हैं। वे कांग्रेस
के यथार्थ से परिचित नहीं हैं। बहरहाल यह विचार करने की बात जरूर है कि पाँच साल
की मेहनत और बहु-प्रतीक्षित नेतृत्व परिवर्तन के बाद भी पार्टी देशभर में केवल 52
सीटें हासिल कर पाई। इस विफलता या इसके विपरीत बीजेपी की सफलता पर गम्भीरता से
विचार करने की जरूरत है।
मेहनत बेकार
कांग्रेस को इसबार सन 2014 के लोकसभा परिणामों की
तुलना में केवल आठ सीटें ज्यादा मिली हैं। ये आठ सीटें केरल और तमिलनाडु में हासिल
15 अतिरिक्त सीटों के बावजूद हैं। कहा जा सकता है कि दक्षिण के इन दो राज्यों में
उसने अपनी पैठ बनाई है, पर एक सच यह भी है कि कर्नाटक में उसने आठ सीटें गँवा दी
हैं, इसलिए दक्षिण में उसकी प्राप्ति कुल जमा सात सीटों की है। अंडमान निकोबार,
लक्षद्वीप और पुदुच्चेरी में एक-एक सीट और हासिल की है, यानी कि पार्टी को उत्तर
भारत में पहले के मुकाबले नुकसान ही हुआ है। देश के 19 राज्यों और केन्द्र शासित
क्षेत्रों से उसका प्रतिनिधित्व ही नहीं है।
यह अविश्वसनीय परिणाम है। तमाम विश्लेषकों के
अनुमान गलत साबित क्यों हुए? इसके साथ ही यह भी विचार करना होगा कि उत्तर प्रदेश में सोशल
इंजीनियरी कहाँ फेल हुई। गणित के हिसाब से यदि कांग्रेस भी महागठबंधन का हिस्सा
होती, तब भी बीजेपी को सफलता मिलती। जातीय गणित और भावनाओं की रासायनिक
प्रक्रियाओं के बीच कहीं पेच जरूर है। यह बात कांग्रेस को भी समझने की जरूरत है।
पार्टी और परिवार
सन 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी
और राहुल गांधी ने इस्तीफों की पेशकश की थी, जो नामंजूर कर दी गई थी। इसबार भी ऐसा
होगा, पर यकीनन पार्टी और परिवार का रिश्ता नहीं टूटेगा। पार्टी जुड़ी ही इस आधार
पर है। गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। उसे जोड़े रखने का
एकमात्र फैवीकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती
है।
पिछले चुनाव के बाद कांग्रेस के नेताओं
ने एक स्वर से कहा कि पार्टी बाउंसबैक करेगी। 16 मई, 2014 को हार की जिम्मेदारी
लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते
रहेंगे। इसबार भी परिणाम आने के बाद राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी को उनकी जीत पर
बधाई दी और कहा कि हमारी विचारधारा की लड़ाई है, जो जारी रहेगी। उन्होंने अमेठी
में जीत के लिए स्मृति ईरानी को भी बधाई भी दी। साथ ही कहा कि कार्यकर्ताओं को
घबराने की जरूरत नहीं है, हम लड़ेंगे। साथ ही यह भी कहा कि भविष्य के कार्यक्रम पर
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में विचार होगा।
फिलहाल कांग्रेस के चुनाव परिणामों के
विश्लेषण और उनकी दिशा पर विचार करने का समय है। राहुल गांधी कहते हैं कि हमारी
विचारधारा की लड़ाई है, पर उन्हें देखना होगा कि उनकी रणनीति में कितना जोर
विचारधारा पर था और कितना हवाई बातों पर। साथ ही उन्हें अपनी संगठनात्मक शक्ति को
भी आँकना चाहिए। सन 2014 की विजय के बाद बीजेपी ने कार्यकर्ताओं की भरती का एक
वृहत कार्यक्रम चलाया। कांग्रेस ने भी चलाया होगा, पर वह बहुत प्रभावशाली नहीं था।
पार्टी के नए वोटरों पर जो ध्यान केन्द्रित करना था, वह नहीं हो पाया। निश्चित रूप
से यह पार्टी की रणनीति की पराजय है।
आंतरिक असंतोष
दूसरी तरफ पार्टी के भीतर कुछ ऐसी
घटनाएं हुईं, जिनसे लगा कि निचले स्तर के कार्यकर्ता के साथ पार्टी नेतृत्व की
संवादहीनता है। सन 2016 में असम में पार्टी की पराजय के पीछे सबसे बड़ा कारण
पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा थी। हिमंता बिश्व शर्मा के पार्टी छोड़कर जाने से
पूरे पूर्वांचल में कांग्रेस का जनाधार टूट गया। अरुणाचल में बगावत हुई। ऐसी ही
बगावत उत्तराखंड में हुई। ऐसी शिकायतें खासतौर से तब और ज्यादा मुखर होतीं है, जब
पार्टी को चुनावों में हार मिलती है।
इंतजार कीजिए कि आने वाले दिनों में
कर्ण-कटु बयान सुनाई पड़ेंगे। इसबार चुनाव परिणाम आने के पहले ही कर्नाटक कांग्रेस
में बगावत शुरू हो गई। कर्नाटक कांग्रेस के नेता रोशन बेग ने पार्टी महासचिव
वेणुगोपाल राव को जोकर करार दिया, तो कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष को फ्लॉप बताया। वे
इतने पर ही नहीं रुके और कहा, 'बीजेपी को 18 से ज्यादा सीटें मिलेंगी।
यह सिर्फ सिद्धारमैया की वजह से हुआ है। यह कांग्रेस के चेहरे पर तमाचा है।' सम्भव है कि मध्य प्रदेश और राजस्थान से भी असंतोष की खबरें सुनाई
पड़ें।
तमिलनाडु और केरल के बाद कांग्रेस ने
सबसे अच्छे परिणाम पंजाब में दिए हैं। इसके पीछे कैप्टेन अमरिंदर सिंह का कड़क
नेतृत्व भी है, पर उन्हें नवजोत सिंह सिद्धू लगातार चुनौती देते रहते हैं। बीजेपी
से कांग्रेस में आए सिद्धू की इतनी हिम्मत कैसे होती है? इसके पीछे कारण यह है कि वे हाईकमान से रिश्ता बनाकर रखते हैं।
एकबार वे कह भी चुके हैं कौन कैप्टेन अमरिंदर? मेरे
कैप्टेन राहुल गांधी हैं।
विचारधारा की लड़ाई
पहली बार देश में कोई गैर-कांग्रेसी
सरकार लगातार दूसरी बार पाँच साल के लिए चुनकर आई है। चुनकर आई ही नहीं है,
कांग्रेस को बेहद कमजोर बनाकर आई है। कुछ काम पाँच साल पहले होने चाहिए थे, जो या
तो हुए नहीं, या अधूरे रहे। जून, 2014 में पार्टी के वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने
केरल में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि हमें ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और
अल्पसंख्यकों के प्रति झुकाव रखने वाली छवि को सुधारना होगा। उनके बयान से लहरें
उठी थीं, पर जल्द थम गईं। मीडिया रिपोर्टों में कहा गया था कि पार्टी की
आंतरिक बैठकों में यह मसला कई बार उठता रहा है,
इसलिए पार्टी निचले स्तर के कार्यकर्ता
की राय लेना चाहती है।
गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले राहुल
गांधी ने कुछ मंदिरों में जाना शुरू किया। इससे उनकी छवि में बदलाव हुआ। वे कैलाश
मानसरोवर की यात्रा पर गए। उनके इन प्रयासों पर देश के कुछ प्रगतिशीलों ने इसे
सॉफ्ट हिन्दुत्व बताया। हिन्दुत्व और हिन्दू के बीच का भेद हाल के वर्षों में अब
मिट गया है। ‘राजनीतिक हिन्दुत्व’ पर हमला करने वाले अब हिन्दू प्रतीकों, परम्पराओं, संस्कारों और
भावनाओं पर खुलकर प्रहार कर रहे हैं। इनकी
चोट सामान्य व्यक्ति के मन में लगती है। वह चोट चुनाव परिणाम के रूप में सामने आ
रही है।
का बरखा जब कृषी सुखाने। हार होने के
बाद कार्यकर्ता की याद आना भी कुछ कहता है। ‘हिन्दू विरोधी’ छवि पार्टी की चिंता
का विषय है या विरोधियों के प्रचार का हिस्सा है? विरोधी तो छवि बिगाड़ना ही चाहेंगे, पर
क्या पार्टी-कार्यकर्ता की राय भी यही है? बंगाल में पार्टी का स्थानीय कार्यकर्ता ममता बनर्जी के दमन से परेशान
है, पर केन्द्रीय नेतृत्व ने ममता को विरोध से मुक्त रखा। इस चुनाव के दौरान एकबार
राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी के साथ ममता बनर्जी की भी आलोचना की तो उन्हें
प्रगतिशील खेमे की बातें सुननी पड़ीं। सच यह है कि प्रगतिशील खेमा खुद हाराकीरी कर
रहा है।
काउंटर नैरेटिव कहाँ है?
भारतीय जनता पार्टी अपने नजरिए को जनता के सामने न
केवल रखने में, बल्कि उसका अनुमोदन पाने में सफल हुई है। दूसरी तरफ कांग्रेस
पार्टी इसका काउंटर-नैरेटिव तैयार करने में बुरी तरह विफल हुई है। अमेठी में राहुल
गांधी की हार कांग्रेस के लिए अशुभ संकेत है। भले ही वे वायनाड से जीत गए, पर
अमेठी उनका पारिवारिक गढ़ रहा है। इस हार का संदेश उत्तर प्रदेश की राजनीति में
गहरे मायने रखता है। सच यह है कि पिछले पाँच साल में स्मृति ईरानी ने अमेठी से
लगातार सम्पर्क रखा। राहुल ने किसी न किसी स्तर पर अपने क्षेत्र की अनदेखी की।
अमेठी पिछड़ा इलाका है, पर ऐसे इलाके में ही अभिनव प्रयोग किए जा सकते हैं और
उन्हें प्रचारित किया जा सकता है।
कांग्रेस जिसे हिन्दू-राष्ट्रवाद और भावनाओं की
खेती बता रही थी, उसे जनता ने महत्वपूर्ण माना। वह कांग्रेस की बातें सुनने के लिए
तैयार ही नहीं है। यह कांग्रेसी साख की पराजय है। कांग्रेस ने गरीबों और किसानों
की बातें कीं, पर गरीबों और किसानों ने भी उसकी नहीं सुनी। यह बात सीटों से ही
नहीं वोट प्रतिशत से भी जाहिर है। बीजेपी को पिछली बार के 31 फीसदी से ज्यादा करीब
39 फीसदी वोट मिले हैं। एनडीए का यह प्रतिशत करीब 45 फीसदी है।
पार्टी की प्रासंगिकता
देश को कांग्रेस की जरूरत है। उसके पास सामाजिक
बहुलता और धर्म-निरपेक्षता की व्यापक छतरी होने के बावजूद व्यावहारिक जमीन पर उसका
प्रभाव लगातार क्षरण होता गया है। उसकी राजनीतिक ताकत घट गई है। बीजेपी को मिली
भारी सफलता एक नए खतरे को भी जन्म दे रही है। विपक्ष का लुप्त या बेहद कमजोर हो
जाना भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। देश के अल्पसंख्यकों और दूसरे
समुदायों को आश्वस्त करने की जरूरत है। पर कांग्रेस को जनता की भावनाओं को समझने
की कोशिश करनी चाहिए, जिसमें वह अभी तक विफल है।
पार्टी ने मोदी-विरोध की नकारात्मक राजनीति को
अपना हथियार बनाया था, जिसमें वह सफल नहीं हुई। उसे अपनी सकारात्मक राजनीति विकसित
करनी होगी। इस साल महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू कश्मीर विधानसभाओं के
चुनाव और होंगे। लोकसभा चुनाव के परिणामों से कांग्रेस के लिए कोई शुभ संकेत नहीं
हैं।
सन 2016 में पांच राज्यों के चुनाव
नतीजे आने के बाद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया था कि पार्टी को बड़ी
सर्जरी की जरूरत है। सोनिया गांधी ने आत्म-निरीक्षण की बात कही। शशि थरूर ने कहा, ‘आत्ममंथन
का समय गुजर गया, अब कुछ करने का समय है...। ऐसे बयान अभी नहीं आए हैं, पर आएंगे जरूर।
पर बड़ी सर्जरी का मतलब क्या है? कौन करेगा यह सर्जरी? हालांकि उम्मीद कोई खास नहीं है, फिर भी कांग्रेस कार्यसमिति की
बैठक का इंतजार करना चाहिए।
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