कोलकाता में बीजेपी रैली के दौरान हुए उत्पात और ईश्वर चंद्र विद्यासागर कॉलेज में हुई हिंसा के लिए कौन जिम्मेदार है और प्रतिमा किसने तोड़ी, ऐसे सवालों पर बहस किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने वाली है। इस प्रकरण से दो बातें स्पष्ट हुई हैं कि पश्चिम बंगाल में बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस का काफी कुछ दाँव पर लगा है। दूसरे यह कि पिछले कुछ वर्षों से राज्य में चल रही तृणमूल की बाहुबली राजनीति का जवाब बीजेपी ही दे सकती है। यों मोदी विरोधी मानते हैं कि बीजेपी को रोकने की सामर्थ्य ममता बनर्जी में ही है। किसमें कितनी सामर्थ्य है, इसका पता 23 मई को लगेगा। पर ममता को भी अपने व्यक्तित्व को लेकर आत्ममंथन करना चाहिए।
ममता बनर्जी पिछले दो वर्षों से राष्ट्रीय क्षितिज पर आगे आने का प्रयत्न कर रही हैं। सन 2016 में उन्होंने ही सबसे पहले नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया था। कांग्रेस ने उनका अनुगमन ही किया। राष्ट्रीय परिघटनाओं पर सबसे पहले उनकी प्रतिक्रिया आती है। दिल्ली की रैलियों में वे शामिल होती हैं, पर सावधानी के साथ। व्यक्तिगत रूप से वे उन आंदोलनों में शामिल होती है, जिनका नेतृत्व उनके पास होता है। कांग्रेसी नेतृत्व वाले आंदोलनों में खुद जाने के बजाय अपने किसी सहयोगी को भेजती हैं।
राष्ट्रीय नेतृत्व की उनकी महत्वाकांक्षा को पिछले लोकसभा चुनाव से पंख लगे हैं, जब उनकी पार्टी ने बंगाल में 34 सीटें जीतीं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की 44 और अन्नाद्रमुक की 37 सीटों के बाद वे तीसरे नम्बर के सबसे बड़े विरोधी दल के रूप में उभरीं थीं। पार्टी की खिल भारतीयता को स्थापित करने के लिए उन्होंने बंगाल के बाहर जाकर भी चुनाव लड़े। सन 2017 में उनकी पार्टी को चुनाव आयोग ने राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दे दी। वह राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त सातवीं पार्टी बनी।
एक सवाल है कि हिंसा बंगाल में ही क्यों होती है? और इसबार हुई हिंसा की जिम्मेदारी किसकी है? बीजेपी की संगठन-क्षमता में दो राय नहीं, पर उसके लिए तो उत्तर प्रदेश भी महत्वपूर्ण राज्य था। वहाँ ऐसी हिंसा नहीं हुईं, जैसी बंगाल में हुईं। यह बात पहले से कही जा रही थी कि बंगाल में हिंसा होगी। चुनाव आयोग ने इस बार वहाँ सात चरणों में चुनाव कराने का फैसला सोच-समझकर किया था। तृणमूल कांग्रेस पर हिंसा के आरोप केवल बीजेपी के ही नहीं हैं। कांग्रेस और वाममोर्चा की स्थानीय यूनिटों ने भी आरोप लगाए हैं।
पिछले साल इन्हीं दिनों बंगाल में हुए ग्राम पंचायतों के चुनाव के दौरान भारी खून-खराबा हुआ। 60,000 से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के बावजूद उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, पूर्वी मिदनापुर, बर्दवान, नदिया, मुर्शिदाबाद और दक्षिणी दिनाजपुर जिलों में हिंसक झड़पें हुई। इनमें कम से कम एक दर्जन लोग मरे। इस चुनाव में मतदान से पहले ही तृणमूल कांग्रेस के एक तिहाई प्रत्याशियों का निर्विरोध चुनाव हो गया। 58 हजार 692 सीटों में से 20,076 पर टीएमसी ने बगैर चुनाव लड़े ही कब्जा कर लिया।
पिछले 40 साल में पंचायत चुनाव में निर्विरोध चुने जाने का यह सबसे बड़ा रिकॉर्ड था। बंगाल में हिंसा का बोलबाला पहले से रहा है, पर तृणमूल ने इसे रोका नहीं बल्कि बढ़ाया है। ऊपर से ममता बनर्जी का नेतृत्व। हाल के वर्षों में बीजेपी के प्रवेश के बाद यह हिंसा और बढ़ गई है। शायद ममता बनर्जी को पहली बार लग रहा है कि उन्हें कोई चुनौती दे रहा है। इस चुनाव में बीजेपी ने उनके गढ़ में जाकर चुनौती दी है, जिससे ममता के भीतर असुरक्षा की भावना भी पैदा हुई है।
ममता बनर्जी के राजनीतिक मिज़ाज पर भी नजर डालने की जरूरत है। ईश्वर चंद्र विद्यासागर के प्रतिमा-प्रसंग के अलावा इन दिनों बीजेपी कार्यकर्ता प्रियंका शर्मा की गिरफ्तारी का प्रसंग भी हवा में है। उन्हें सोशल मीडिया पर ममता बनर्जी की एक मॉर्फ्ड तस्वीर शेयर करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उनकी रिहाई सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई। बंगाल में यह पहली घटना नहीं है। इसी तरह कुछ साल पहले जादवपुर विश्वविद्यालय के एक अध्यापक को गिरफ्तार किया गया था।
जून 2012 की बात है, ममता सरकार का पहला साल पूरा होने पर अंग्रेजी के एक चैनल ने एक ओपन हाउस सेशन आयोजित किया, जिसमें नौजवानों को बुलाया गया था। उद्देश्य था कि ममता बनर्जी इनसे बात करें और उनके द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब दें। ममता बनर्जी शुरूआती एक-दो सवालों पर सामान्य रहीं, पर जैसे ही कुछ आलोचनात्मक सवाल सामने आए वे नाराज होने लगीं। उन्होंने कार्यक्रम के दौरान ही आरोप लगाया कि इसमें बुलाए गए लोग वाममोर्चा से जुड़े हैं और माओवादी हैं। वे जानबूझकर ऐसे सवाल कर रहे हैं। देखते ही देखते वे उठीं और कार्यक्रम छोड़कर चल दीं।
बंगाल की हिंसक प्रवृत्ति के साथ ममता की तुनक मिज़ाजी ने माहौल को और ज्यादा हिंसक बनाया है। देश में सबसे ज्यादा राजनीतिक हिंसा की घटनाएं बंगाल में हो रही हैं। इस हिंसा के पीछे तीन बड़ी वजहें मानी जा रही हैं- बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था पर सत्ताधारी दल का वर्चस्व और नई राजनीतिक शक्तियों का प्रवेश। बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टियों से जुड़ रहे हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर होने वाले विकास कार्यों के ठेके मिल सकें। हफ़्ता-वसूली भी उनकी कमाई का जरिया है।
इस हिंसा के पीछे कोई विचारधारा नहीं है। यहाँ की वामपंथी सरकारें तमाम सैद्धांतिक बातें करती रहीं, पर उन्होंने नौजवानों को रोजगार दिलाने के रास्ते नहीं खोजे। जैसे ही बुद्धदेव भट्टाचार्य की वाममोर्चा सरकार ने इस दिशा में काम शुरू किया, तो ममता बनर्जी तकरीबन वैसी ही राजनीति लेकर सामने आईं, जैसी पूर्ववर्ती वामपंथी सरकारें चला रहीं थीं। ममता ने अपनी राजनीति की शुरुआत ही लड़ते-झगड़ते की थी। सन 1991 में वे पहली बार मानव संसाधन विकास, युवा और खेल तथा महिला और बाल कल्याण राज्य मंत्री बनाई गईं। खेल नीतियों को लेकर मंत्री रहते हुए भी कोलकाता की एक रैली में सरकार पर तमाम लानतें भेजीं और इस्तीफे की घोषणा कर दी।
वे मूलतः विपक्ष की राजनेता हैं। उनकी राजनीति की शुरुआत शहरों से हुई थी। बंगाल के शहरों में उनके समर्थकों ने माहौल बनाया था। बंगाल का मध्य वर्ग वामपंथी राजनीति से आजिज़ आ गया था। वही मध्यवर्ग अब ममता से नाराज़ है। बंगाल में बीजेपी के हिन्दुत्व की राजनीति का विस्तार हो रहा है। पर इसमें केवल हिन्दुत्व को ही न खोजें। वहाँ नीचे के स्तर पर सीपीएम के काफी कार्यकर्ता अब बीजेपी के साथ हैं। प्रताड़ना से बचने के लिए उन्हें संरक्षक चाहिए। फिलहाल सवाल यह है कि राज्य के मध्यवर्ग की नाराजगी का फायदा बीजेपी उठा पाएगी या नहीं? इसका पता अब लगेगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
ममता बनर्जी पिछले दो वर्षों से राष्ट्रीय क्षितिज पर आगे आने का प्रयत्न कर रही हैं। सन 2016 में उन्होंने ही सबसे पहले नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया था। कांग्रेस ने उनका अनुगमन ही किया। राष्ट्रीय परिघटनाओं पर सबसे पहले उनकी प्रतिक्रिया आती है। दिल्ली की रैलियों में वे शामिल होती हैं, पर सावधानी के साथ। व्यक्तिगत रूप से वे उन आंदोलनों में शामिल होती है, जिनका नेतृत्व उनके पास होता है। कांग्रेसी नेतृत्व वाले आंदोलनों में खुद जाने के बजाय अपने किसी सहयोगी को भेजती हैं।
राष्ट्रीय नेतृत्व की उनकी महत्वाकांक्षा को पिछले लोकसभा चुनाव से पंख लगे हैं, जब उनकी पार्टी ने बंगाल में 34 सीटें जीतीं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की 44 और अन्नाद्रमुक की 37 सीटों के बाद वे तीसरे नम्बर के सबसे बड़े विरोधी दल के रूप में उभरीं थीं। पार्टी की खिल भारतीयता को स्थापित करने के लिए उन्होंने बंगाल के बाहर जाकर भी चुनाव लड़े। सन 2017 में उनकी पार्टी को चुनाव आयोग ने राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता दे दी। वह राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त सातवीं पार्टी बनी।
एक सवाल है कि हिंसा बंगाल में ही क्यों होती है? और इसबार हुई हिंसा की जिम्मेदारी किसकी है? बीजेपी की संगठन-क्षमता में दो राय नहीं, पर उसके लिए तो उत्तर प्रदेश भी महत्वपूर्ण राज्य था। वहाँ ऐसी हिंसा नहीं हुईं, जैसी बंगाल में हुईं। यह बात पहले से कही जा रही थी कि बंगाल में हिंसा होगी। चुनाव आयोग ने इस बार वहाँ सात चरणों में चुनाव कराने का फैसला सोच-समझकर किया था। तृणमूल कांग्रेस पर हिंसा के आरोप केवल बीजेपी के ही नहीं हैं। कांग्रेस और वाममोर्चा की स्थानीय यूनिटों ने भी आरोप लगाए हैं।
पिछले साल इन्हीं दिनों बंगाल में हुए ग्राम पंचायतों के चुनाव के दौरान भारी खून-खराबा हुआ। 60,000 से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के बावजूद उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, पूर्वी मिदनापुर, बर्दवान, नदिया, मुर्शिदाबाद और दक्षिणी दिनाजपुर जिलों में हिंसक झड़पें हुई। इनमें कम से कम एक दर्जन लोग मरे। इस चुनाव में मतदान से पहले ही तृणमूल कांग्रेस के एक तिहाई प्रत्याशियों का निर्विरोध चुनाव हो गया। 58 हजार 692 सीटों में से 20,076 पर टीएमसी ने बगैर चुनाव लड़े ही कब्जा कर लिया।
पिछले 40 साल में पंचायत चुनाव में निर्विरोध चुने जाने का यह सबसे बड़ा रिकॉर्ड था। बंगाल में हिंसा का बोलबाला पहले से रहा है, पर तृणमूल ने इसे रोका नहीं बल्कि बढ़ाया है। ऊपर से ममता बनर्जी का नेतृत्व। हाल के वर्षों में बीजेपी के प्रवेश के बाद यह हिंसा और बढ़ गई है। शायद ममता बनर्जी को पहली बार लग रहा है कि उन्हें कोई चुनौती दे रहा है। इस चुनाव में बीजेपी ने उनके गढ़ में जाकर चुनौती दी है, जिससे ममता के भीतर असुरक्षा की भावना भी पैदा हुई है।
ममता बनर्जी के राजनीतिक मिज़ाज पर भी नजर डालने की जरूरत है। ईश्वर चंद्र विद्यासागर के प्रतिमा-प्रसंग के अलावा इन दिनों बीजेपी कार्यकर्ता प्रियंका शर्मा की गिरफ्तारी का प्रसंग भी हवा में है। उन्हें सोशल मीडिया पर ममता बनर्जी की एक मॉर्फ्ड तस्वीर शेयर करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उनकी रिहाई सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई। बंगाल में यह पहली घटना नहीं है। इसी तरह कुछ साल पहले जादवपुर विश्वविद्यालय के एक अध्यापक को गिरफ्तार किया गया था।
जून 2012 की बात है, ममता सरकार का पहला साल पूरा होने पर अंग्रेजी के एक चैनल ने एक ओपन हाउस सेशन आयोजित किया, जिसमें नौजवानों को बुलाया गया था। उद्देश्य था कि ममता बनर्जी इनसे बात करें और उनके द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब दें। ममता बनर्जी शुरूआती एक-दो सवालों पर सामान्य रहीं, पर जैसे ही कुछ आलोचनात्मक सवाल सामने आए वे नाराज होने लगीं। उन्होंने कार्यक्रम के दौरान ही आरोप लगाया कि इसमें बुलाए गए लोग वाममोर्चा से जुड़े हैं और माओवादी हैं। वे जानबूझकर ऐसे सवाल कर रहे हैं। देखते ही देखते वे उठीं और कार्यक्रम छोड़कर चल दीं।
बंगाल की हिंसक प्रवृत्ति के साथ ममता की तुनक मिज़ाजी ने माहौल को और ज्यादा हिंसक बनाया है। देश में सबसे ज्यादा राजनीतिक हिंसा की घटनाएं बंगाल में हो रही हैं। इस हिंसा के पीछे तीन बड़ी वजहें मानी जा रही हैं- बेरोजगारी, कानून-व्यवस्था पर सत्ताधारी दल का वर्चस्व और नई राजनीतिक शक्तियों का प्रवेश। बेरोजगार युवक कमाई के लिए राजनीतिक पार्टियों से जुड़ रहे हैं ताकि पंचायत व नगरपालिका स्तर पर होने वाले विकास कार्यों के ठेके मिल सकें। हफ़्ता-वसूली भी उनकी कमाई का जरिया है।
इस हिंसा के पीछे कोई विचारधारा नहीं है। यहाँ की वामपंथी सरकारें तमाम सैद्धांतिक बातें करती रहीं, पर उन्होंने नौजवानों को रोजगार दिलाने के रास्ते नहीं खोजे। जैसे ही बुद्धदेव भट्टाचार्य की वाममोर्चा सरकार ने इस दिशा में काम शुरू किया, तो ममता बनर्जी तकरीबन वैसी ही राजनीति लेकर सामने आईं, जैसी पूर्ववर्ती वामपंथी सरकारें चला रहीं थीं। ममता ने अपनी राजनीति की शुरुआत ही लड़ते-झगड़ते की थी। सन 1991 में वे पहली बार मानव संसाधन विकास, युवा और खेल तथा महिला और बाल कल्याण राज्य मंत्री बनाई गईं। खेल नीतियों को लेकर मंत्री रहते हुए भी कोलकाता की एक रैली में सरकार पर तमाम लानतें भेजीं और इस्तीफे की घोषणा कर दी।
वे मूलतः विपक्ष की राजनेता हैं। उनकी राजनीति की शुरुआत शहरों से हुई थी। बंगाल के शहरों में उनके समर्थकों ने माहौल बनाया था। बंगाल का मध्य वर्ग वामपंथी राजनीति से आजिज़ आ गया था। वही मध्यवर्ग अब ममता से नाराज़ है। बंगाल में बीजेपी के हिन्दुत्व की राजनीति का विस्तार हो रहा है। पर इसमें केवल हिन्दुत्व को ही न खोजें। वहाँ नीचे के स्तर पर सीपीएम के काफी कार्यकर्ता अब बीजेपी के साथ हैं। प्रताड़ना से बचने के लिए उन्हें संरक्षक चाहिए। फिलहाल सवाल यह है कि राज्य के मध्यवर्ग की नाराजगी का फायदा बीजेपी उठा पाएगी या नहीं? इसका पता अब लगेगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
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