Wednesday, May 29, 2019

'रणछोड़दास' न बनें राहुल

कांग्रेस अपने नेतृत्व-संकट से बाहर निकल भी आए, तब भी संकट बना रहेगा। संकट नेतृत्व का नहीं पार्टी की साख का है। राहुल गांधी के इस्तीफे की चर्चा के कारण पार्टी कार्यकर्ता का ध्यान असली सवालों से हट जाएगा। राहुल ने फिलहाल पद पर बने रहना मंजूर कर लिया है, पर वे चाहते हैं कि उनके विकल्प की तलाश जारी रहे। उनका विकल्प क्या होगा? विकल्प तब खोजा जा सकता है, जब पार्टी में विकल्प खोजने की कोई संरचनात्मक व्यवस्था हो। अब उनका अध्यक्ष बने रहना ही सबसे बड़ा विकल्प है।
पार्टी को अब अपनी राजनीति को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहिए। राहुल गांधी चाहते हैं कि पार्टी का नेतृत्व लोकतांत्रिक तरीके से तय हो, तो उन्हें लम्बा समय देकर पार्टी की आंतरिक संरचना को बदलना होगा। उसे वे ही बदल सकते हैं। व्यावहारिक सत्य यह है कि पार्टी की कार्यसमिति भी मनोनीत होती है। वे अच्छी तरह जानते हैं कि लोकतांत्रिक संरचना इतनी आसान नहीं है। पर यदि वे इसे बदलने में सफल हुए तो भारतीय राजनीति में उनका अपूर्व योगदान होगा। सच यह भी है कि उनके अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ा है। चुनावी सफलताएं भी मिली हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि वे पूरी तरह विफल हुए हैं।
संसद में किन सवालों को उठाया गया और बहस में किसने क्या कहाये बातें आज की राजनीति में अप्रासंगिक होती जा रहीं हैं। पर राहुल गांधी के बयानों से लगता है कि वे संजीदा राजनीति में दिलचस्पी रखते हैंइसलिए देखना होगा कि उनकी संजीदा राजनीति’ क्या शक्ल लेगी। सन 2017 के गुजरात विधानसभा के चुनाव के दौरान उन्होंने इस बात को कई बार कहा कि हम अनर्गल बातों के खिलाफ हैं। संयोग से उन्हीं दिनों मणिशंकर अय्यर वाला प्रसंग हुआ और राहुल ने उन्हें मुअत्तल कर दिया। यानी वे साफ-सुथरी राजनीति के पक्षधर है। इस बात को उन्हें अब स्थापित करना चाहिए।

राहुल गांधी की जिम्मेदारी बनती है कि वे लोकसभा की बहसों में शामिल हों और राष्ट्रीय राजनीति में सकारात्मक भूमिका निभाएं। राजनीतिक सफलता केवल चुनावों की हार-जीत से तय नहीं होती। देश को नया विचार देने और रास्ते दिखाना राजनेताओं का काम है। उन्हें एक श्रेष्ठ राजपुरुष (स्टेट्समैन) के रूप में सामने आना चाहिए। देश की राजनीति में प्रधानमंत्री की भूमिका है, तो विरोधी नेताओं की भी भूमिका है। इस भूमिका को वे किसी नए रूप में परिभाषित क्य़ों नहीं करते?
सही या गलत नेहरू-गांधी परिवार का नेतृत्व अब पार्टी की विचारधारा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। राहुल गांधी चुनाव जीतकर नहीं आए थे। उन्हें यह पद एक राजनीतिक विरासत के रूप में मिला है, उन्हें इसका निर्वाह करना चाहिए। उनका इस मौके पर पद छोड़ना मैदान छोड़कर भागना माना जाएगा। पार्टी के पास विकल्प तलाशने की कोई व्यवस्था नहीं है। उसकी परम्परा रही है कि नेतृत्व पर जब भी संकट आता है, सब मिलकर उसके समर्थन में आते हैं। नेता को शक्ति-सम्पन्न बनाते हैं।
पार्टी को दो अलग-अलग मसलों पर विचार करना चाहिए। पहला यह कि क्या राहुल गांधी जो चाहते हैं, वैसा कर पा रहे हैं या नहीं? दूसरा यह कि पार्टी जिस विचारधारा पर चल रही है और जिन मुद्दों को उठा रही है, क्या वे प्रासंगिक हैं? पार्टी अपने मुद्दों को जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं से जोड़ पाने में सफल रही है या विफल? उसकी पराजय के कारण क्या कहीं और हैं? इधर-उधर से जो बातें छनकर आ रही हैं, उनसे लगता है कि राहुल गांधी को भी कुछ शिकायतें हैं।
कहा जाता है कि वे खुलकर फैसले नहीं कर पा रहे हैं। राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्रियों तय करते वक्त यह बात सामने आई। लोकसभा के लिए प्रत्याशी तय करते समय भी उन्हें ऐसा लगा कि पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं और उनके बीच सहमति नहीं है। राहुल को सम्भवतः यह भी लगता है कि उनका आक्रामक अंदाज पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को पसंद नहीं आया। खासतौर से चौकीदार चोर है के नारे को लेकर बहस है। पता नहीं यह बहस पार्टी के भीतर है या नहीं, पर मीडिया में इस बात का जिक्र जरूर हो रहा है।
कांग्रेस के वर्तमान संकट को लेकर काफी कयास हैं, पर एकबारगी सबको गलत कहना भी उचित नहीं है। तीन बड़े नेताओं के बेटों के बारे में कही गई बातें पूरी तरह बेबुनियाद भी नहीं हैं। पर कांग्रेस का वर्तमान संकट इन सब बातों से परे है। राहुल गांधी के हटने से इस संकट का समाधान होने वाला नहीं है। अलबत्ता हटने से यह संकट बढ़ेगा। पार्टी में बड़े बदलावों की बातें हो रही हैं। बदलाव क्या होंगे? पिछले पाँच साल के अनुभव के बाद जो बदलाव हो सकते थे, वे तो हो गए।
राहुल गांधी कांग्रेस के बदलाव का हिस्सा हैं। उन्हें पूरा नेतृत्व संभाले अभी एक साल से कुछ ज्यादा समय ही बीता है। देश की राजनीति को समझने और उसके अनुरूप सही रणनीति को अपनाने के लिए इतने साल पर्याप्त नहीं हैं। दूसरे विजय और पराजय अनुभवों का हिस्सा है। राहुल को पद क्यों छोड़ना चाहिए? क्योंकि वे पार्टी को विजय नहीं दिला पाए। इसे एकाउंटेबिलिटी कहा जाता है। पर हरेक पार्टी की अपनी कार्य-संस्कृति होती है। सन 1977 में हारने के बाद इंदिरा गांधी क्या कांग्रेस की नेता नहीं रहीं थीं?
राहुल ही क्यों ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती, तेजस्वी यादव और चंद्रबाबू नायडू क्या नेतृत्व छोड़ देंगे? हमारे राजनीतिक दलों की संरचना वैसी है ही नहीं, जिसमें नेतृत्व परिवर्तन ऑटोमेटिक हो। हार या जीत राजनीति का हिस्सा है। उन्हें अब बैठकर पहले यह देखना चाहिए कि सफलता क्यों नहीं मिली। पर रास्ता खोजना चाहिए। रणदीप सुरजेवाला ने कहा है कि पार्टी इस हार को बड़े अवसर के रूप में ले रही है। बेशक यह चुनौती है। राहुल को जल्द से जल्द अपने काम पर वापस आना चाहिए और पार्टी को नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। ऐसा नहीं करेंगे, तो छोटे शहरों और कस्बों के कार्यकर्ता पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस की साझा सरकार संकट में है। मध्य प्रदेश में भी सुगबुगाहट है। राजस्थान सरकार पर संकट नहीं हैपर सरकार के भीतर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ कई मंत्रियों ने आवाज उठानी शुरू कर दी है। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री कमलनाथ कार्यमिति की बैठक में इसलिए शामिल नहीं हुए, क्योंकि भी शामिल नहीं हुए। राहुल गांधी की जिम्मेदारी बनती है कि वे स्वयं समस्या नहीं बनें। इस पराजय को वे संकट और विफलता मान सकते हैं, पर यह एक मौका भी है, जब वे अपनी समझदारी से पार्टी को फिर से मुख्यधारा में वापस ला सकते हैं।
राहुल गांधी के सामने चुनौती है नई चमकदार कांग्रेस पार्टी’ को बनाना। उनके पास ऊर्जा है। कुछ महीनों बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली में चुनाव होंगे। उन्हें उत्तर प्रदेश में समय देना चाहिए, जहाँ पार्टी का आधार खत्म हो गया है। कम से कम उन्हें इस वक्त रणछोड़ राजनीति से बचना चाहिए। 


No comments:

Post a Comment