लोकसभा चुनाव के दौरान माओवादी हिंसा के राजनीतिक निहितार्थ हैं. बिहार, उड़ीसा, बंगाल, आंध्र, छत्तीसगढ़, आंध्र, तेलंगाना और महाराष्ट्र के कई इलाके उस लाल गलियारे में पड़ते हैं, जहाँ माओवादी प्रभाव है. माओवादी इस लोकतांत्रिक गतिविधि को विफल करना चाहते हैं. बावजूद छिटपुट हिंसा के उत्साहजनक खबरें भी मिल रहीं हैं. जनता आगे बढ़कर माओवादियों को चुनौती दे रही है. इस बीच माओवादियों ने कई जगह हमले किए हैं. सबसे बड़ा हमला गढ़चिरौली में हुआ है, जहाँ 15 कमांडो और एक ड्राइवर के शहीद होने की खबर है.
चुनाव शुरू होने के पहले ही माओवादियों ने बहिष्कार की घोषणा कर दी थी और कहा था कि जो भी मतदान के लिए जाएगा, उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. इस धमकी के बावजूद झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र और तेलंगाना में मतदाताओं ने बहिष्कार के फरमान को नकारा. छत्तीसगढ़ में निर्वाचन आयोग ने सुरक्षा की दृष्टि से अचानक 132 मतदान केंद्रों के स्थान बदल दिए. फिर भी सैकड़ों मतदाताओं ने जुलूस के रूप में 30 किलोमीटर पैदल चलकर मतदान किया. इससे जाहिर होता है कि मतदाताओं के मन में कितना उत्साह है. यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जीत है. माओवादियों ने गांवों में ही मतदाताओं को रोकने की कोशिशें कीं, जो बेअसर हो गईं.
गढ़चिरौली में माओवादियों की हिंसक कार्रवाई के बाद नक्सलवाद शब्द एकबार फिर से खबरों में है. नक्सलवाद और माओवाद को प्रायः हम एक मान लेते हैं. ऐसा नहीं है. माओवाद अपेक्षाकृत नया आंदोलन है. नक्सलवाद चीन की कम्युनिस्ट क्रांति से प्रेरित-प्रभावित आंदोलन था. उसकी रणनीति के केन्द्र में भी ग्रामीण इलाकों की बगावत थी. शहरों को गाँवों से घेरने की रणनीति. वह रणनीति विफल हुई.
माओवादी आंदोलन को ‘जल-जंगल-जमीन’ के साथ जोड़ा जाता है, पर हिंसा की उनकी रणनीति उनकी दुर्भावना को भी व्यक्त करती है. वे आदिवासियों की बदहाली का फायदा उठाते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इनकी हिंसा को देश के सामने सबसे बड़ा खतरा बताया था. यह बात सच है. पर इन दिनों ‘अर्बन नक्सली’ या शहरी नक्सली शब्द में हर तरह के वामपंथियों, बल्कि दूसरे शब्दों में बीजेपी विरोधियों को समेट लिया गया है. यह दूसरे किस्म का अतिवाद है. यह सच है कि देश के वामपंथियों का एक तबका पूर्वोत्तर और कश्मीर के आंदोलनों को इनके साथ जोड़कर देखता है. यह भी लगता है कि पाकिस्तान के आईएसआई जैसे संगठन इस आंदोलन को हवा देते हैं. देश के टुकड़े करने की योजना का भी यह हिस्सा है.
सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन उन लोगों ने खड़ा किया था, जिनका मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से मोहभंग हुआ था. उन्हें कुचलने में कांग्रेस और वाममोर्चा सरकारों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था. वह आंदोलन तमाम टुकड़ों में विभाजित हो गया. एक बड़ा धड़ा लोकतांत्रिक राजनीति में शामिल हो गया. उसके बाद आंध्र और उससे जुड़े इलाकों में पीपुल्स वॉर ग्रुप और उसी प्रकार के दूसरे समूहों ने हिंसक राजनीति शुरू की, जो आज भी जारी है.
लोकसभा चुनाव के दौरान गढ़चिरौली में हुई नक्सली हिंसा के दो संदेश हैं. एक, माओवादी यह कहना चाहते हैं कि यह लोकतंत्र सार्थक नहीं है. दूसरे वे इस इलाके में अपने प्रभुत्व को साबित करना चाहते हैं. नक्सलियों ने इसी आशय के अपने बैनर इस इलाके में लगा रखे हैं. जरूरत इस बात की है कि इन पिछड़े इलाकों के विकास पर ध्यान दिया जाए और सड़कों, स्कूलों और अस्पतालों का निर्माण किया जाए. हिंसक राजनीति के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है. बदलाव में भूमिका निभाने के लिए हमारी सांविधानिक व्यवस्था का हिस्सा बनना होगा.
कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का नेतृत्व तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में है, पर वहाँ इसका जनाधार कम होता गया है. इनका नेता नम्बला केशव राव है, जिसने हाल में गणपति से कार्यभार सँभाला है. यह आईडी विस्फोटों का विशेषज्ञ है. गढ़चिरौली में माओवादियों ने पुलिस के कमांडो दस्ते को जिस तरीके से फँसाया, उसपर भी ध्यान देने की जरूरत है. स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर की अनदेखी करते हुए सभी कमांडो एक ही गाड़ी में सवार होकर जा रहे थे. सामान्यतः या तो कमांडो पैदल मार्च करते हैं या अलग-अलग वाहनों से जाते हैं. चूक कहाँ और क्यों हुई, यह जाँच का विषय है.
यह देखने की जरूरत भी है कि माओवादियों का कहाँ से मदद मिल रही है. बेशक उनके प्रभाव क्षेत्र में कमी आई है, पर ये समाप्त नहीं हुए हैं. महाराष्ट्र की सी-60 फोर्स मामूली कमांडो दस्ता नहीं है, बल्कि माओवादियों के खिलाफ बना विशेष दस्ता है. माओवादी पिछले साल 22 अप्रैल को सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए अपने 40 साथियों की मौत की पहली बरसी मनाने के लिए एक सप्ताह से चल रहे विरोध प्रदर्शन के अंतिम चरण में थे. गढ़चिरौली में जिन वाहनों को आतंकियों ने अपना निशाना बनाया, वे सड़क-निर्माण लगे थे. ज़ाहिर है कि उनकी दिलचस्पी सड़क बनने में नहीं है. सड़क बन जाने के बाद उनकी गतिविधियों पर नकेल लग जाएगी. यह भी सच है कि पिछले एक साल में इस इलाके में आतंकी गतिविधियाँ कम हो गईं थीं. पुलिस ने भी माओवादियों के नेटवर्क में घुसपैठ कर ली है.
छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा से सटे महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में माओवादी आतंक का इतिहास काफी पुराना है. यह इलाका घने जंगल से घिरा होने कारण आतंकियों की छिपने में काफी मदद करता है. यहाँ के मुकाबले इन दिनों छत्तीसगढ़ में माओवादी ज्यादा सक्रिय हैं, जहाँ पिछले महीने माओवादियों ने एक विधायक और चार पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी थी.
शायद माओवादी बताना चाहते हैं कि हम हारे नहीं हैं. वे इस इलाके की जनजातियों को दबाव में रखना चाहते हैं. यह आदिवासी इलाका है जिसमें गोंड और माडिया समुदाय के लोगों की बड़ी संख्या है. इलाके की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि वहाँ पुलिस-प्रवेश आसान नहीं है. कोई भी हारे-जीते, चुनावों का सफल संचालन माओवाद की हार है.
चुनाव शुरू होने के पहले ही माओवादियों ने बहिष्कार की घोषणा कर दी थी और कहा था कि जो भी मतदान के लिए जाएगा, उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. इस धमकी के बावजूद झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र और तेलंगाना में मतदाताओं ने बहिष्कार के फरमान को नकारा. छत्तीसगढ़ में निर्वाचन आयोग ने सुरक्षा की दृष्टि से अचानक 132 मतदान केंद्रों के स्थान बदल दिए. फिर भी सैकड़ों मतदाताओं ने जुलूस के रूप में 30 किलोमीटर पैदल चलकर मतदान किया. इससे जाहिर होता है कि मतदाताओं के मन में कितना उत्साह है. यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जीत है. माओवादियों ने गांवों में ही मतदाताओं को रोकने की कोशिशें कीं, जो बेअसर हो गईं.
गढ़चिरौली में माओवादियों की हिंसक कार्रवाई के बाद नक्सलवाद शब्द एकबार फिर से खबरों में है. नक्सलवाद और माओवाद को प्रायः हम एक मान लेते हैं. ऐसा नहीं है. माओवाद अपेक्षाकृत नया आंदोलन है. नक्सलवाद चीन की कम्युनिस्ट क्रांति से प्रेरित-प्रभावित आंदोलन था. उसकी रणनीति के केन्द्र में भी ग्रामीण इलाकों की बगावत थी. शहरों को गाँवों से घेरने की रणनीति. वह रणनीति विफल हुई.
माओवादी आंदोलन को ‘जल-जंगल-जमीन’ के साथ जोड़ा जाता है, पर हिंसा की उनकी रणनीति उनकी दुर्भावना को भी व्यक्त करती है. वे आदिवासियों की बदहाली का फायदा उठाते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इनकी हिंसा को देश के सामने सबसे बड़ा खतरा बताया था. यह बात सच है. पर इन दिनों ‘अर्बन नक्सली’ या शहरी नक्सली शब्द में हर तरह के वामपंथियों, बल्कि दूसरे शब्दों में बीजेपी विरोधियों को समेट लिया गया है. यह दूसरे किस्म का अतिवाद है. यह सच है कि देश के वामपंथियों का एक तबका पूर्वोत्तर और कश्मीर के आंदोलनों को इनके साथ जोड़कर देखता है. यह भी लगता है कि पाकिस्तान के आईएसआई जैसे संगठन इस आंदोलन को हवा देते हैं. देश के टुकड़े करने की योजना का भी यह हिस्सा है.
सत्तर के दशक में नक्सली आंदोलन उन लोगों ने खड़ा किया था, जिनका मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से मोहभंग हुआ था. उन्हें कुचलने में कांग्रेस और वाममोर्चा सरकारों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था. वह आंदोलन तमाम टुकड़ों में विभाजित हो गया. एक बड़ा धड़ा लोकतांत्रिक राजनीति में शामिल हो गया. उसके बाद आंध्र और उससे जुड़े इलाकों में पीपुल्स वॉर ग्रुप और उसी प्रकार के दूसरे समूहों ने हिंसक राजनीति शुरू की, जो आज भी जारी है.
लोकसभा चुनाव के दौरान गढ़चिरौली में हुई नक्सली हिंसा के दो संदेश हैं. एक, माओवादी यह कहना चाहते हैं कि यह लोकतंत्र सार्थक नहीं है. दूसरे वे इस इलाके में अपने प्रभुत्व को साबित करना चाहते हैं. नक्सलियों ने इसी आशय के अपने बैनर इस इलाके में लगा रखे हैं. जरूरत इस बात की है कि इन पिछड़े इलाकों के विकास पर ध्यान दिया जाए और सड़कों, स्कूलों और अस्पतालों का निर्माण किया जाए. हिंसक राजनीति के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है. बदलाव में भूमिका निभाने के लिए हमारी सांविधानिक व्यवस्था का हिस्सा बनना होगा.
कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का नेतृत्व तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में है, पर वहाँ इसका जनाधार कम होता गया है. इनका नेता नम्बला केशव राव है, जिसने हाल में गणपति से कार्यभार सँभाला है. यह आईडी विस्फोटों का विशेषज्ञ है. गढ़चिरौली में माओवादियों ने पुलिस के कमांडो दस्ते को जिस तरीके से फँसाया, उसपर भी ध्यान देने की जरूरत है. स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर की अनदेखी करते हुए सभी कमांडो एक ही गाड़ी में सवार होकर जा रहे थे. सामान्यतः या तो कमांडो पैदल मार्च करते हैं या अलग-अलग वाहनों से जाते हैं. चूक कहाँ और क्यों हुई, यह जाँच का विषय है.
यह देखने की जरूरत भी है कि माओवादियों का कहाँ से मदद मिल रही है. बेशक उनके प्रभाव क्षेत्र में कमी आई है, पर ये समाप्त नहीं हुए हैं. महाराष्ट्र की सी-60 फोर्स मामूली कमांडो दस्ता नहीं है, बल्कि माओवादियों के खिलाफ बना विशेष दस्ता है. माओवादी पिछले साल 22 अप्रैल को सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए अपने 40 साथियों की मौत की पहली बरसी मनाने के लिए एक सप्ताह से चल रहे विरोध प्रदर्शन के अंतिम चरण में थे. गढ़चिरौली में जिन वाहनों को आतंकियों ने अपना निशाना बनाया, वे सड़क-निर्माण लगे थे. ज़ाहिर है कि उनकी दिलचस्पी सड़क बनने में नहीं है. सड़क बन जाने के बाद उनकी गतिविधियों पर नकेल लग जाएगी. यह भी सच है कि पिछले एक साल में इस इलाके में आतंकी गतिविधियाँ कम हो गईं थीं. पुलिस ने भी माओवादियों के नेटवर्क में घुसपैठ कर ली है.
छत्तीसगढ़ और तेलंगाना की सीमा से सटे महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में माओवादी आतंक का इतिहास काफी पुराना है. यह इलाका घने जंगल से घिरा होने कारण आतंकियों की छिपने में काफी मदद करता है. यहाँ के मुकाबले इन दिनों छत्तीसगढ़ में माओवादी ज्यादा सक्रिय हैं, जहाँ पिछले महीने माओवादियों ने एक विधायक और चार पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी थी.
शायद माओवादी बताना चाहते हैं कि हम हारे नहीं हैं. वे इस इलाके की जनजातियों को दबाव में रखना चाहते हैं. यह आदिवासी इलाका है जिसमें गोंड और माडिया समुदाय के लोगों की बड़ी संख्या है. इलाके की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि वहाँ पुलिस-प्रवेश आसान नहीं है. कोई भी हारे-जीते, चुनावों का सफल संचालन माओवाद की हार है.
ReplyDeleteजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-05-2019) को
"माँ कवच की तरह " (चर्चा अंक-3326) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
....
अनीता सैनी