सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों को देश के नक्शे में देखें तो
पाएंगे कि अब देश के हरेक इलाके में बीजेपी की उपस्थिति है। दक्षिण के आंध्र
प्रदेश, तमिलनाडु और केरल ऐसे राज्य हैं ,जहाँ से बीजेपी का कोई प्रत्याशी नहीं
जीता, पर कर्नाटक की 28 में से 25 सीटें जीतकर पार्टी ने उसकी भरपाई कर दी है।
बीजेपी का फुटप्रिंट पूरे देश के नक्शे पर हैं। केवल उपस्थिति की बात ही नहीं है,
वोट प्रतिशत भी पार्टी के विस्तार की कहानी कह रहा है। भारतीय जनता पार्टी का वोट
प्रतिशत 31 से बढ़कर 37.5 हो गया है। वहीं एनडीए का वोट प्रतिशत 38.70 से बढ़कर
45.51 प्रतिशत हो गया है। इसके मुकाबले यूपीए का वोट प्रतिशत 27.09 प्रतिशत है। यदि
एनडीए और यूपीए दो बड़े राष्ट्रीय मोर्चों के रूप में उभरें, तो सम्भव है कि
क्षेत्रीय क्षत्रपों की भूमिका कम हो।
चुनाव परिणाम आने के पहले कहा जा रहा था कि इसबार सरकार के गठन में
क्षेत्रीय क्षत्रप महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। फिलहाल ऐसा नहीं होने वाला। चूंकि
क्षेत्रीय दलों की ताकत घटी है, इसलिए एक अनुमान लगाया जा सकता है कि भविष्य में
देश में द्विदलीय राजनीति का उभार हो सकता है। सीट की संख्याओं को देखते हुए यह
बात सही नहीं लगती। फिलहाल जो परिस्थिति है वह एकदलीय कांग्रेसी व्यवस्था की याद
दिला रही है, जो 1967 के पूर्व देश में थी। क्षेत्रीय मुद्दे इसबार ज्यादा प्रभावी
नहीं थे। तमिलनाडु में डीएमके का उभार दो कारणों से हुआ। एक तो जयललिता के निधन के
बाद से अद्रमुक अनाथ पार्टी है, दूसरे तमिलनाडु में बैटिंग रोटेट करने का चलन भी
है। इसबार बारी डीएमके की थी।
बारह राज्यों में बीजेपी को 50 फीसदी या उससे ज्यादा वोट मिले हैं। इनमें
महाराष्ट्र और बिहार को तेरहवें और चौदहवें राज्य के रूप में जोड़ा जा सकता है
जहाँ एनडीए के गठबंधन को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं। गुजरात (62.2), हिमाचल
प्रदेश (69.1) और उत्तराखंड (61) में 60 फीसदी से भी ज्यादा। हरियाणा (58), मध्य
प्रदेश (58) और राजस्थान (58.5) और दिल्ली (56.6) में 60 से कुछ कम। ये परिणाम सन
2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की याद दिला रहे हैं।
बीजेपी की सीटें तो बढ़ी ही हैं, सामाजिक आधार भी बढ़ा है। इसमें बड़ी
भूमिका बंगाल और ओडिशा के वोटर की भी है। बंगाल में बीजेपी ने पिछली बार के 17
फीसदी के वोटों को बढ़ाकर करीब 40.3 फीसदी कर लिया है। यह तृणमूल के 43.3 फीसदी के
एकदम करीब है। वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वोटों में 20 फीसदी की
गिरावट आई है। तृणमूल कांग्रेस के वोट बढ़े हैं, पर सीटें घटी हैं। इसकी वजह है
वाममोर्चे और कांग्रेस का पराभव। बंगाल में मुकाबले सीधे हो गए हैं। यह बात वहाँ
की भावी राजनीति में महत्वपूर्ण होगी। राष्ट्रीय स्तर पर वाममोर्चा को सीटों और
वोट प्रतिशत के लिहाज से सबसे बड़ा धक्का लगा है। वाम मोर्चे के वोट पिछले चुनाव
में 4.55 फीसदी थे, जिनमें इसबार सीधे-सीधे दो फीसदी की गिरावट आई है। इसबार उसे
केवल 2.55 फीसदी वोट ही मिले हैं। यूपीए का वोट प्रतिशत जो पिछले चुनाव में 26.3
फीसदी था, इसबार बढ़कर 27.09 हो गया है। डीएमके और टीआरएस जैसे दलों की बात छोड़
दें, तो क्षेत्रीय दलों के वोट में कमी आई है।
सन 2014 के चुनाव और इसबार के चुनाव की वरीयताएं और मुद्दे एकदम अलग
रहे हैं भले ही परिणाम एक जैसे हैं। बीजेपी की सीटें बढ़ी हैं और उसका प्रभाव
क्षेत्र बढ़ा है। बंगाल और ओडिशा में उसका प्रवेश जोरदार तरीके से हो गया है। पर
दक्षिण भारत में दो तरह की तस्वीरें देखने में आईं हैं। तमिलनाडु, केरल और आंध्र
ने उसे स्वीकार नहीं किया, पर कर्नाटक में उसने अबतक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया
है। केरल में सबरीमाला प्रकरण के बावजूद उसे खास सफलता नहीं मिली।
और अब कांग्रेस का क्या होगा?
शनिवार को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक होने वाली
है। शायद राहुल गांधी औपचारिक रूप से अपने इस्तीफे की पेशकश करेंगे और पार्टी की
परम्परा को देखते हुए यह अनुमान गलत नहीं था कि इस्तीफा मंजूर नहीं होगा। नहीं हुआ। सन 2014 के लोकसभा
चुनाव के बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में
सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने इस्तीफों की पेशकश की थी, जो नामंजूर कर दी गई थी।
यकीनन पार्टी और परिवार का रिश्ता नहीं टूटेगा। पार्टी जुड़ी ही इस आधार पर है। कुछ
राज्यों से पार्टी के अध्यक्षों के भी इस्तीफे आए हैं।
नेहरू-गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस
का कोई मतलब नहीं है। उसे जोड़े रखने का एकमात्र फैवीकॉल अब यह परिवार है। संयोग
से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। पर इस विषय पर कोई बहस नहीं हो सकती। 16
मई, 2014 को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी
नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। पिछले चुनाव के बाद कांग्रेस के नेताओं ने एक
स्वर से कहा था कि पार्टी बाउंसबैक करेगी। इसबार भी सन 2004 के चुनाव का हवाला
दिया जा रहा था, पर वैसा कुछ हुआ नहीं। और जो हुआ, वह अप्रत्याशित हुआ।
पार्टी को री-इनवेंट करने की जरूरत है।
23 मई को परिणाम आने के बाद राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी को उनकी जीत पर बधाई दी
और कहा कि हमारी विचारधारा की लड़ाई है, जो जारी रहेगी। उन्होंने अमेठी में जीत के
लिए स्मृति ईरानी को भी बधाई भी दी है। साथ ही कहा कि कार्यकर्ताओं को घबराने की
जरूरत नहीं है, हम लड़ेंगे। साथ ही यह भी कहा कि भविष्य के कार्यक्रम पर कांग्रेस
कार्यसमिति की बैठक में विचार होगा।
फिलहाल कांग्रेस के चुनाव परिणामों के
विश्लेषण और उनकी दिशा पर विचार करने का समय है। पार्टी को अपनी संगठनात्मक शक्ति
को भी आँकना चाहिए। सन 2014 की विजय के बाद बीजेपी ने कार्यकर्ताओं की भरती का एक
वृहत कार्यक्रम चलाया था। कांग्रेस ने भी चलाया होगा, पर वह बहुत प्रभावशाली नहीं
था। पार्टी के नए वोटरों पर ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत थी, जो शायद बहुत अच्छे
तरीके से नहीं हो पाया। पर ज्यादा बड़ी दिक्कत विचारधारा की है। बीजेपी के नैरेटिव
के मुकाबले कांग्रेस का काउंटर नैरेटिव जनता ने नहीं सुना। उसने गरीबों की, रोजगार
और भ्रष्टाचार की बातें भी कहीं, पर जनता ने उसकी अनसुनी की। यहाँ पर साख का सवाल
खड़ा होता है। पार्टी को अपनी साख कायम करनी होगी।
इस किस्म के ट्वीटों और बयानों का क्रम शुरू हो
गया है। पर ये बातें व्यावहारिक राजनीति से बाहर बैठे लोगों की हैं। वे कांग्रेस
के यथार्थ से परिचित नहीं हैं। बहरहाल यह विचार करने की बात जरूर है कि पाँच साल
की मेहनत और बहु-प्रतीक्षित नेतृत्व परिवर्तन के बाद भी पार्टी देशभर में केवल 52
सीटें हासिल कर पाई। इस विफलता या इसके विपरीत बीजेपी की सफलता पर गम्भीरता से
विचार करने की जरूरत है।
पहली बार देश में कोई गैर-कांग्रेसी
सरकार लगातार दूसरी बार पाँच साल के लिए चुनकर आई है। चुनकर आई ही नहीं है,
कांग्रेस को बेहद कमजोर बनाकर आई है। इसके पीछे संगठनात्मक कारणों से ज्यादा
विचारधारा की भूमिका है। जून, 2014 में पार्टी के वरिष्ठ नेता एके एंटनी ने केरल
में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था कि हमें ‘छद्म धर्म निरपेक्षता’ और
अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) की तरफ झुकाव रखने वाली अपनी छवि को सुधारना होगा। उनके
बयान से लहरें उठी थीं, पर जल्द थम गईं।
मीडिया रिपोर्टों में कहा गया था कि
पार्टी की आंतरिक बैठकों में यह मसला कई बार उठता रहा है। ‘हिन्दू विरोधी’ छवि
पार्टी की चिंता का विषय है या विरोधियों के प्रचार का हिस्सा है? विरोधी
तो छवि बिगाड़ना ही चाहेंगे, पर क्या पार्टी-कार्यकर्ता की राय भी यही है? बंगाल में पार्टी का
स्थानीय कार्यकर्ता ममता बनर्जी के दमन से परेशान है, पर केन्द्रीय नेतृत्व ने चुनाव
के दौरान ममता की आलोचना नहीं की। ऐसी बहुत सी बातें पार्टी के मंच से उठेंगी।
फिलहाल कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सरकारों के सामने कुछ सवाल खड़े हुए
हैं, उनका जवाब पार्टी को देना है।
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