Wednesday, May 15, 2019

लोकतंत्र को फ़ेकन्यूज़ की ललकार!

क्या झूठे का बोलबाला होगा?

पुलवामा कांड के करीब दो हफ्ते बाद एक फेसबुक यूज़र ने एक फोन कॉल की रिकॉर्डिंग पोस्ट की, जिसमें देश के गृहमंत्री, बीजेपी के अध्यक्ष और एक महिला की आवाजों का इस्तेमाल किया गया था। उद्देश्य यह साबित करना था कि पुलवामा पर हुआ हमला जान-बूझकर रची गई साजिश थी। इसका उद्देश्य लोकसभा चुनाव में वोट हासिल करने के लिए जनता को गुमराह करना था। इसमें एक जगह बीजेपी अध्यक्ष के स्वर में कहा गया, ‘देश की जनता को गुमराह किया जा सकता है। और हम मानते भी हैं चुनाव के लिए युद्ध कराने की जरूरत है।’ भारत में फेसबुक के फैक्ट-चेकर सहयोगी ‘बूम’ ने 24 घंटे के भीतर पड़ताल से पता लगा लिया कि यह ऑडियो पूरी तरह फर्जी है। पुराने साक्षात्कारों से ली गई आवाजों को जोड़कर और उनमें से कुछ को हटाकर या दबाकर इसे तैयार किया गया था।

यह एक बड़ा अपराध है। लोगों को धोखा देने की कोशिश। पता नहीं इस सिलसिले में जाँच किस जगह पहुँची है, पर सहज रूप से सवाल मन में आता है कि किसने यह ऑडियो तैयार किया और क्यों? इसे बनाने वालों के तकनीकी ज्ञान का पता नहीं, पर मीडिया तकनीक में आ रहे बदलाव को देखते हुए सम्भव है कि कुछ दिनों में ऐसे वीडियो-ऑडियो बने, जिनकी गलतियों को ढूँढना बेहद मुश्किल हो। या जबतक गलती का पता लगे, तबतक कुछ से कुछ हो चुका हो। इस ऑडियो को भी जबतक डिलीट किया गया, 25 लाख लोग इसे सुन चुके थे और इसके डेढ़ लाख शेयर हो चुके थे। ट्विटर, यूट्यूब और न जाने कहा-कहाँ इसे कॉपी करके लगाया जा चुका है और न जाने कितने लोगों के निजी संग्रह में यह अब भी मौजूद हो और गलतफहमी फैलाने का काम कर रहा हो।
फरेब की राजनीति

लोकसभा के पिछले चुनाव में फ़ेकन्यूज़ शब्द गढ़ा भी नहीं गया था। पिछले चार-पाँच साल में इस शब्द का अर्थ-विस्तार हुआ है। किसी की छवि बनाने या बिगाड़ने, तथ्यों का हेरफेर करने और झूठ का मायाजाल खड़ा करने की यह कला क्या तकनीक के विस्तार के साथ और फैलेगी? क्या वैश्विक स्तर पर इसके खिलाफ कुछ नहीं हो सकता? क्या यह वैश्वीकरण का अंतर्विरोध है या लोकतंत्र को बेहतर बनाने के रास्ते में खड़ी एक नई चुनौती?

मामूली सी गलत सूचना के कारण हम हाल के वर्षों में मॉब लिंचिंग की कई घटनाओं को होते हुए देख चुके हैं। यह तो विस्फोटक सूचना थी। लोकसभा चुनाव अब अपने आखिरी दौर में है। इसबार ‘फ़ेकन्यूज़’ सबसे बड़े खतरे के रूप में उभर कर आई है। सूचना और अभिव्यक्ति लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। इनके सहारे वोटर अपने मताधिकार का इस्तेमाल करता है। पर यदि सूचना बुनियादी तौर पर ही गलत हो, या भ्रामक हो तो परिणाम क्या होगा?

हम आदर्शों की बातें करते हैं, पर राजनीति ‘ऑब्जेक्टिव रियलिटी’ पर चलती है। कहावत है ‘सच्चे का बोलबाला और झूठे का मुँह काला’। पर सच्चाई इसके उलट होती जा रही है। इसराइली लेखक युवाल नोह हरारी ने 21वीं सदी के 21 सबक शीर्षक से अपनी किताब में लिखा है कि हम ‘उत्तर-सत्य’ दौर में हैं। बेशक ऐसा मनुष्य प्रजाति के जन्म के बाद से ही है। पर आज उसका जो रूप सामने आ रहा है, वह भयावह है।

अक्सर हम झूठ को इस आधार पर सही साबित करते आए हैं कि यह ज्यादा बड़े उद्देश्य के लिए बोला जाता है। ‘वृहत्तर सत्य’ की रणनीति के रूप में फरेब आंशिक रूप से जीवन में काम भी करता रहा है। माताएं अपने बच्चों को समझाने और भरमाने के लिए कई रास्ते अपनाती हैं। समूचे समाज को भरमाने और भड़काने के जो उदाहरण अब सामने आ रहे हैं, वे भविष्य के खौफनाक परिदृश्य को पेश कर रहे हैं। अब हमें बैठकर सोचना चाहिए कि सत्य को इस तरीके से खंडित करने की परिणति क्या है? यह केवल भारत का सवाल ही नहीं है।

यह सवाल अपनी जगह पर है कि वस्तुनिष्ठ सत्य क्या है? सत्य के साथ उसे देखने वाले के विचार भी जुड़े होते हैं। किसी धारणा को आप सही मानते हैं और दूसरा गलत। इसीलिए मीडिया की बहुलता लोकतांत्रिक समाजों में जरूरी होती है। पर सीधे-सीधे सच का गला काटकर झूठ को ही सच की तरह पेश किया जाए, तो वह अलोकतांत्रिक है। मीडिया पर शोध करने वाले संस्थानों को इस बात की जाँच करनी चाहिए कि इसबार के चुनाव में कितने तरीके से झूठ बोले गए और उनका प्रभाव क्या हुआ।

सच के साथ खिलवाड़

हाल में खबर थी कि एक जमाने में हिन्दी सिनेमा की स्टार मुमताज का निधन हो गया। यह खबर झूठी साबित हुई। पिछले एक साल में पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के निधन की खबरें कई बार आईं और गलत साबित हुईं हैं। इस किस्म की खबरें आती ही रहती हैं। ज्यादा महत्वपूर्ण खबरें राजनीतिक हैं। लोकसभा चुनाव के पाँचवें दौर में 6 मई को केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने एक वीडियो नत्थी करके ट्वीट किया कि अमेठी में एक महिला से मतदान अधिकारी ने जबरन कांग्रेस को वोट दिलवा दिया। महिला को यह कहते हुए उधृत किया गया था, ‘हाथ पकड़कर जबरदस्ती पंजा पर धर दिहिन, हम देहे जात रहिन कमल पर।’ बाद में चुनाव आयोग ने इस वीडियो को फ़ेक बताया और स्मृति ईरानी के इस दावे को भी गलत बताया कि अमेठी में बूथ कैप्चरिंग की कोई कोशिश हुई है।

फ़ेकन्यूज़ का यह उदाहरण अपनी जगह है और उसके विस्तार पर अलग से जाने की जरूरत है। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को लेकर शिकायतें है। पर खंडित-सत्य या अर्ध-सत्य के दूसरे उदाहरण भी हैं, जिन्हें पता नहीं फ़ेकन्यूज़ की परिभाषा में लोग रखना चाहेंगे या नहीं। पिछले कुछ महीने से देश में राफेल विमान के सौदे को लेकर भ्रामक बातें मीडिया में प्रसारित हुई हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अक्सर कहते हैं कि भारत सरकार ने एचएएल की जेब से 30,000 करोड़ रुपये निकाल कर अम्बानी की जेब में डाल दिए हैं। क्या वास्तव में ऐसा है? बेशक उन्हें आपत्ति करने का अधिकार है। उच्चतम न्यायालय और सीएजी जैसी संस्थाओं के निष्कर्षों से भी असहमति सम्भव है। पर इतने छोटे से तथ्य की जाँच तो कोई भी कर सकता है कि जिस सौदे में ऑफसेट की पूरी रकम भी 30,000 करोड़ रुपये नहीं है, उसका पूरा हिस्सा अम्बानी को कैसे जाएगा?

एक तथ्य अकसर वॉट्सएप मैसेजों में नत्थी होकर आता है कि भारत सरकार ने उद्योगपतियों पर बैंकों के 3.5 लाख करोड़ रुपये के कर्जे माफ कर दिए हैं। राहुल गांधी ने चुनावी रैलियों में दावा किया है कि नरेन्द्र मोदी ने 15 बड़े उद्योगपतियों के बैंक ऋण माफ़ किए हैं। यह भी कहा जाता है कि जब उद्योगपतियों के कर्ज माफ किए जा सकते हैं, तो किसानों के कर्ज माफ करने में दिक्कत क्या है? यह बात पढ़े-लिखे समझदार लोग भी कहते हैं। सच है कि सार्वजनिक बैंकों के बड़े कर्ज़दार उद्योगपति और बड़ी कंपनियां ही हैं। डिफॉल्टर्स में उनके नाम ही हैं। पर सरकार के पास क्या उनके कर्जों को माफ करने का अधिकार है? क्या उनके कर्जों को ‘वेव ऑफ’ किया गया है? कर्जों के ‘राइट ऑफ’ और ‘वेव ऑफ’ में अंतर है।

पिछले साल अप्रैल में संसद में पेश की गई एक सरकारी रिपोर्ट कहा गया था कि सरकारी बैंकों ने अप्रैल 2014 और सितंबर 2017 के बीच 2.41 लाख करोड़ रुपये के नॉन परफॉर्मिंग एसैट को खाते से बाहर (राइट ऑफ) किया था। यह राशि 2018 के अंत तक 3.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गई। गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) का लेखन-बंद बैंक अपनी बैलेंस शीट को साफ़ करने के लिए करते हैं। पर क़र्जदारों से वसूली की प्रक्रिया जारी रहती है। सच बात को इस तरीके से रखना भी एक मायने में फ़ेकन्यूज़ है।

अध-झूठ का इन्द्रजाल

सच को घुमा-फिराकर पेश करना भी एक मायने में झूठ है और इस लिहाज से हम अपने मीडिया पर नज़र डालें तो समझ में आने लगता है कि बड़ी संख्या में पत्रकार जानबूझकर या अनजाने में अर्ध-सत्य को फैलाते हैं और यह भी मानते हैं कि हम फ़ेकन्यूज़ के दायरे से बाहर हैं। मुख्यधारा के मीडिया का महत्व इसलिए है, क्योंकि वही मीडिया है, जिसपर तथ्यों की पुष्टि करने की जिम्मेदारी है। समस्या का केन्द्र सोशल मीडिया है। चुनाव के ठीक पहले फेसबुक ने कांग्रेस की आईटी सेल से जुड़े 687 पेज और नमो एप से जुड़ी कंपनी सिल्वर टच के 15 पेजों को हटाया गया। पाकिस्तानी फौज से जुड़े 103 फेसबुक और इंस्टाग्राम पेजों और अकाउंट्स को भी हटाया गया।

इस साल चुनाव के ठीक पहले देश के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग से सम्बद्ध संसदीय समिति ने ट्विटर के सीईओ जैक डोरसी को हाजिर होने का आदेश दिया था, पर वे आए नहीं। अभी सोशल मीडिया के नियमन को लेकर कई तरह के भ्रम हैं। सवाल यह भी है कि क्या ट्विटर देश की सांविधानिक संस्थाओं की अवहेलना करना चाहता है? ट्विटर विदेशी संस्था है। क्या वह हमारे नियमों को मानने पर बाध्य है? बाध्य नहीं है, तो वह हमारे बाजार में किस अधिकार से विचरण कर सकता है वगैरह। इंटरनेट के विस्तार के साथ यह सवाल भी सामने आ रहा है कि सोशल मीडिया के नियमन की क्या वैश्विक व्यवस्था-सम्भव है? क्या यह वैश्विक-व्यवस्था देशों और समाजों के सापेक्ष होगी? अलग-अलग समाजों की सांस्कृतिक-सामाजिक समझ अलग-अलग है। यह सब कैसे होगा?

सोशल मीडिया से जुड़े मसलों में फ़ेकन्यूज़ के अलावा हेट स्पीच की समस्या भी जुड़ी है। हेट स्पीच यानी किसी सम्प्रदाय, जाति, वर्ग, भाषा वगैरह के प्रति दुर्भावना। खासतौर से राजनीतिक रुझान से उपजी दुर्भावना। ये सवाल केवल भारत में ही नहीं उठे हैं। सभी देशों में ये अलग-अलग संदर्भों में उठे हैं या उठाए जा रहे हैं। भारत में संसदीय समिति के सामने मामला इन शिकायतों के आधार पर गया है कि ट्विटर इंडिया कुछ खास हैंडलों के प्रति कड़ा रुख अख्तियार करता है और कुछ के प्रति नरमी। सन 2015 में ट्विटर के तत्कालीन सीईओ डिक कोस्टोलो का एक आंतरिक मीमो लीक हुआ था, जिसमें उन्होंने स्वीकार किया था कि गाली-गलौज और ट्रॉलिंग के मामले में हम असहाय साबित हो रहे हैं और यह आज से नहीं लम्बे अरसे से चल रहा है। इसके चार साल बाद आज हालात और ज्यादा खराब हैं।

क्या यह सामाजिक सत्य है?

क्या सोशल मीडिया हमारे समाज का दर्पण है? सोशल मीडिया के दूसरे प्लेटफॉर्मों से जुड़े प्रसंगों को भी शामिल कर लेंगे, तो शायद बात करना मुश्किल हो जाएगा। इसमें काफी बातें वे हैं, जो समाज में प्रचलित रही हैं, पर सामने इसलिए नहीं आईं, क्योंकि उसका कोई मीडिया नहीं था। जिस दौर में इन प्लेटफॉर्मों का उदय हुआ है, उसके शुरूआती वर्षों में अनुमान नहीं था कि इनका विस्तार इतने बड़े स्तर पर हो जाएगा। ज्यादातर शुरुआत सामान्य सम्पर्कों को स्थापित करने के लिए थी। स्कूल या कॉलेज के छात्रों का शुरूआती संवाद आज दुनिया के सिर पर चढ़कर बोल रहा है।

ट्विटर का राजनीतिक इस्तेमाल किस तरह हो सकता है, शायद इसके संस्थापकों ने सोचा नहीं था। संयोग से सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म दुनिया में उस वक्त विकसित हुए हैं, जब लोकतांत्रिक आंदोलनों की बाढ़ आ रही है। हाल में फ्रांस के ‘पीली-कुर्ती आंदोलन’ के दौरान सोशल मीडिया की भूमिका भी उजागर हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति के पिछले चुनाव में उसकी भूमिका को लेकर सवाल हैं।

कम्पनी ने एक जाँच में स्वीकार किया कि 2016 की डेमोक्रेटिक नेशनल कमेटी ईमेल लीक प्रकरण में उसके सिस्टम ने लाखों ट्वीट की पहचान करके उन्हें दबा दिया था। ट्विटर को ईरान, चीन और उत्तरी कोरिया में पूरी तरह बैन किया गया है। इसके अलावा उसे मिस्र, इराक़, तुर्की और वेनेजुएला में कई बार ब्लॉक किया गया है। सन 2016 में उसने इसरायल सरकार के सुझाव पर कुछ ट्वीट हटाए। उसके पास ट्वीट हटाने की ज्यादातर शिकायतें तुर्की, रूस, फ्रांस और जर्मनी से आई हैं।

व्यावहारिक सत्य यह है कि सूचना के द्वार खुलने के बाद उसके निहितार्थों का पता फौरन नहीं लगता। दूसरा सत्य यह है कि जब सूचनाएं सामने आएंगी, तो हर तरह की सामने आएंगी। केवल एक तरह की या एक के पक्ष ही सूचनाएं दुनिया में नहीं हैं। अलबत्ता इस सूचना-प्रवाह को किसी एक के पक्ष में मोड़ने वाली तकनीकों और साधनों का आविष्कार भी होगा और हो रहा है। पर इस बात के भी दोनों पहलू हैं।

समाधान क्या है?

फ़ेकन्यूज़ जाँचने का फौरी समाधान है फैक्ट-चेक। भारत में ऑल्ट-न्यूज़ और बूम जैसे फैक्ट-चेकर सामने आए हैं। बीबीसी ने आंतरिक फैक्ट-चेक व्यवस्था विकसित की है। इसी तरह इंडिया टुडे की वैबसाइट पर एक कोना फैक्ट-चेक को समर्पित है। पर सच यह है झूठी सूचनाएं इतनी ज्यादा हैं कि सबकी जाँच सम्भव नहीं। दूसरे फैक्ट-चेकर की साख का सवाल भी है। किसी एक पार्टी, संगठन या विचारधारा के पक्ष या प्रतिपक्ष को लेकर काम नहीं किया जा सकता।

पिछली फरवरी में न्यूज़ वैबसाइट ऑपइंडिया ने पॉयटर इंस्टीट्यूट के इंटरनेशनल फैक्ट चेकिंग नेटवर्क (आईएफसीएन) की सदस्यता के लिए अर्जी दी तो उसे नामंजूर कर दिया गया। ऑपइंडिया भी फैक्ट चेक करता है, पर आईएफसीएन के भारतीय प्रतिनिधियों का कहना था कि वह एक खास विचारधारा से लैस है और एक खास विचारधारा की खबरों को ही निशाना बनाता है। यह एक संस्था की बात है, पर व्यावहारिक अनुभव यह है कि हम जब अलग-अलग विचारधाराओं से जुड़े लोगों के विचार सुनते हैं, तब निष्कर्ष पर पहुँचने में आसानी होती है। ऑपइंडिया ने अपनी वैबसाइट पर घोषित कर रखा है कि हम लेफ्ट-लिबरल नैरेटिव को स्वीकार नहीं करते। इस वजह से वामपंथियों के दावों की परीक्षा करने का मौका हमें वहाँ मिलता है। यदि कोई अपने विचार घोषित करता है, तो उनकी दृष्टि को समझने में आसानी होती है। इसके विपरीत ऑल्ट-न्यूज के संचालकों का वामपंथी रुझान है, पर उनके कुछ फैक्ट-चेक दक्षिणपंथ के पक्ष में भी होते हैं। इस तरह वे अपनी साख बनाते हैं। सच यह है कि साख को पढ़ने के लिए व्यक्ति और संस्था पर लगातार निगाह रखने की जरूरत होती है। साख बनाने में समय लगता है। गत 30 अप्रैल को पॉयटर इंस्टीट्यूट ने दुनिया की 515 अन-रिलायबिल (अविश्वसनीय) वैबसाइट की एक सूची जारी की थी। बाद में यह सूची हटा ली गई। यानी कि पॉयटर इंस्टीट्यूट की साख भी दाँव पर है।

बुनियादी तौर पर यह निष्पक्ष भाव से किया जाने वाला काम है। इसके लिए जरूरी तकनीक की एक कीमत है, जबकि फैक्ट-चेकिंग मीडिया का अभी तक कोई व्यावसायिक मॉडल नहीं बना है। राजनीतिक क्षेत्र में इसकी जरूरत कुछ देर से महसूस की गई है। युनिसेफ जैसे संगठन इसकी काफी पहले से इसकी जरूरत को महसूस करते आए हैं। खासतौर से टीकाकरण के खिलाफ जिस प्रकार की भ्रांतियाँ फैलाई जाती हैं, उन्हें दूर करने के लिए फैक्ट-चेक की जरूरत बहुत ज्यादा है। ज्यादातर राजनीतिक दलों ने अपने आईटी सेल बनाए हैं, जिनका काम सूचनाओं को स्पिन देना या तथ्यों को घुमाना है।

इसके लिए राजनीतिक दलों को एकसाथ बैठकर विचार करने की जरूरत है। अपने हितों की रक्षा के साथ-साथ उन्हें कुछ मर्यादाओं का पालन भी करना होगा। अंततः मजबूत लोकतंत्र ही हमारा सहारा है। झूठी सूचनाएं लोकतंत्र के बुनियादी आधार को ध्वस्त कर देंगी। हाल में सोशल मीडिया मैटर्स और इंस्टीट्यूट फॉर गवर्नेंस, पॉलिसीज़ एंड पॉलिटिक्स (आईजीपीपी) के एक सर्वे से यह बात सामने आई कि देश में हर दूसरे व्यक्ति का फ़ेकन्यूज़ से सामना हो रहा है। इस सर्वे में शामिल 53 फीसदी लोगों का कहना है कि उन्हें सोशल मीडिया पर फ़ेकन्यूज़ देखने को मिली है। इनमें वॉट्सएप और फेसबुक सबसे आगे हैं। इनमें से 41 फीसदी लोग ऐसे हैं, जिन्होंने गूगल, फेसबुक और ट्विटर पर खबर की सच्चाई को जाँचने की कोशिश भी की। इस बात को सब मानते हैं कि जब करीब 50 करोड़ लोगों की पहुँच इंटरनेट तक है, फ़ेकन्यूज़ का असर बहुत ज्यादा है। 62 फीसदी लोग मानते हैं कि चुनाव पर इस सूचना का असर होगा।

पांचजन्य में प्रकाशित

4 comments:

  1. सची बात है Fake News को हमेशा के लिए रोकना चाहिए , वर्ना येही fake News हमे एक दिन ले डूबेगा

    Harish Parmar

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (16-05-2019) को "डूब रही है नाव" (चर्चा अंक- 3337) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व दूरसंचार दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  4. सही बात। जनमानस की सोच को एक तरफ मोड़ने के लिए भी इन न्यूज़ का सहारा लिया जाता है। वीडियोस को इस तरह से एडिट किया जाता है कि बात के अर्थ का अनर्थ हो जाता है। कई बार असली विडियो में कुछ नकली चीजें ठूंसकर भी यह काम किया जाता है। जनता को भी चाहिए कि इन पर सोच विचार करके ही विश्वास करें। जरूरी नहीं अगर खबर वही है जो आप सुनना चाहते हैं तो वो सच ही हो।

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