कांग्रेस पार्टी अपने अस्तित्व के सबसे महत्वपूर्ण मोड़ पर है। फिलहाल उसे तीन बातों को स्पष्ट करना है:-
1.उसकी फौरी रणनीति क्या है? मसलन दिल्ली में एनडीए सरकार के स्थान पर महागठबंधन की सरकार बन भी जाए, तब क्या होगा? कांग्रेस इस एकता के केन्द्र में होगी या परिधि में? वह इन्हें चलाएगी या वे इसे चलाएंगे? लोकसभा और राज्यसभा में समीकरण किस प्रकार के होंगे? क्या ऐसी सरकार लम्बे समय तक चलेगी? नहीं चली तो पार्टी को उसका नफा-नुकसान किस प्रकार का होगा?
2.उसकी दीर्घकालीन रणनीति क्या है? क्या वह उत्तर भारत के राज्यों में फिर से महत्वपूर्ण ताकत बनकर वापस आना चाहती है? पिछले तीन दशक में वह लगातार कमजोर हुई है। यह बात उसके वोट प्रतिशत से जाहिर है। सवाल केवल वोट प्रतिशत का नहीं, लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों का है।
3.कांग्रेस की दीर्घकालीन राजनीतिक दृष्टि क्या है? क्या वह 1991 के आर्थिक उदारीकरण के रास्ते से हट चुकी है? यदि ऐसा है तो उसका नया रास्ता क्या है? उसके संगठन की दशा कैसी है? पार्टी जल्दबाजी में फैसले करेगी या अच्छी तरह सोच-विचार की संरचना का विकास करेगी?
मोदी को रोकने की रणनीति
दिल्ली में बीजेपी को सरकार बनाने से रोकना उसकी फौरी रणनीति है। पर उसे यह भी तो देखना होगा कि बीजेपी का जनाधार क्यों बढ़ा? सन 1999 में कांग्रेस ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को एक वोट से हराने में सफलता जरूर प्राप्त कर ली थी, पर उसी दौरान बीजेपी ने दूसरे अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर एनडीए के आधार को मजबूत कर लिया। गठबंधन राजनीति को लेकर कांग्रेस का द्वंद्व आज भी कायम है। कांग्रेस को अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को भी धार देनी पड़ेगी। नरेन्द्र मोदी या बीजेपी को सरकार बनाने से रोकने में उसे सफलता मिल भी जाएगी, तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसकी अंतिम विजय हो गई है। उसकी दीर्घकालीन रणनीति तभी सफल होगी, जब उत्तर भारत में उसकी वापसी हो। इसका मतलब है कि उसका उस सपा-बसपा गठबंधन से भी टकराव होगा, जिसे वह समर्थन देने पर विचार कर रही है। खबर है कि सोनिया जी, अखिलेश और मायावती के सम्पर्क में भी हैं।
कुछ सवालों के उत्तर 23 को ही मिलेंगे। कांग्रेसी नेतृत्व और उसके साथ खड़े विरोधी दलों के नेता बेशक बीजेपी को किसी भी हद तक जाकर रोकेंगे, पर तभी जब परिणाम उन्हें ऐसा करने का मौका देंगे। भले ही इन पार्टियों ने चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं किया, पर भीतरी तौर पर एक प्रकार की सहमति जरूर है। यह स्पष्ट नहीं है इस सहमति में कितने नेता शामिल हैं। और क्या बीजेपी ने कोई जवाबी-रणनीति नहीं बनाई है? क्या उसने विरोधी दलों के नेताओं से बात नहीं की है? क्या वह अपने विरोधियों को एकताबद्ध होने का पूरा मौका देगी?
विरोधी नेताओं का जमावड़ा
चुनाव का आखिरी दौर खत्म होने के पहले के घटनाक्रम पर गौर करें, तो कुछ संकेत मिलते हैं। परिणाम वाले दिन यानी 23 मई को सोनिया गांधी के नेतृत्व में विरोधी दलों की बैठक होने वाली है। पहले खबरें थी कि 21 मई को बैठक होगी। फिर खबरें आईं कि बैठक नहीं होगी। पर अब डीएमके के नेता स्टालिन ने इस बात की पुष्टि की है कि उन्हें 23 की बैठक का निमंत्रण मिला है। इस बैठक में चंद्रबाबू नायडू और शरद पवार हाजिर होंगे। एचडी देवेगौड़ा भी शायद आएं। अनुमान है कि विरोधी दलों के नेता राष्ट्रपति से मिलकर उन्हें इस आशय का पत्र दे सकते हैं कि वे सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का निमंत्रण न दें। ये नेता ईवीएम और चुनाव आयोग की शिकायतें भी कर सकते हैं।
कांग्रेस पार्टी ने सम्पूर्ण विपक्षी नेतृत्व को 23 को दिल्ली में आने का निमंत्रण दिया है। पार्टी को लगता है कि फैसला तेजी से करना पड़ सकता है। चुनाव प्रचार के पूरे दौर में सोनिया गांधी खामोश रहीं। पर वे विरोधी दलों के नेताओं से सम्पर्क में थीं। यकीनन वे किसी रणनीति के साथ तैयार बैठी हैं। अनुमान है कि कांग्रेस इसबार फिर कर्नाटक की रणनीति को दोहरा सकती है। यानी कि अपने हितों को पीछे रखते हुए विरोधी दलों को आगे आने का मौका देगी।
कांग्रेसी त्याग?
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने पिछले बुधवार को कहा कि हमें प्रधानमंत्री पद नहीं मिलता, तो न मिले। हमारा फोकस इस बात पर है कि बीजेपी की सरकार नहीं बननी चाहिए। आमराय कांग्रेस के पक्ष में बनी तो ठीक। हमें हर हाल में गैर-एनडीए, गैर-बीजेपी सरकार बनानी है। इस बात से जो भी निष्कर्ष निकलता हो, उन्होंने शुक्रवार को इस बात पर सफाई दी कि हम सरकार बनाना चाहते हैं, पर हमारा पहला लक्ष्य मोदी और भाजपा को रोकना है। पिछले कुछ दिन में तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव सक्रिय हुए हैं। उनकी दिलचस्पी गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस सरकार बनाने में है। इसपर डीएमके के नेता एमके स्टालिन ने कहा था कि तीसरे मोर्चे की उम्मीदें नहीं हैं, पर अब कांग्रेस संकेत दे रही है कि वह इसके लिए भी तैयार है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि सोनिया गांधी चंद्रशेखर राव और नवीन पटनायक को भी इस विमर्श में शामिल करने को उत्सुक हैं। ममता बनर्जी, अखिलेश और मायावती को भी। यानी कि जिस तीसरे मोर्चे की परिकल्पना को बढ़ाया जा रहा है, कांग्रेस शायद उसे भी मान ले। पर यह तभी होगा, जब एनडीए बहुमत से दूर रहे और कांग्रेस समेत दूसरे विरोधी दल बहुमत बना लें। नेतृत्व का सवाल उसके बाद उठेगा। उसे हल करने के बाद भी क्या यह व्यवस्था लम्बी चलेगी? क्या हम 1997-98 के दौर में वापस नहीं चले जाएंगे?
पिछले साल 15 मई को जब परिणाम आ ही रहे थे कि कांग्रेस ने घोषणा की कि हम एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने को तैयार हैं। बेंगलुरु में मौजूद गुलाम नबी आजाद और अशोक गहलोत मीडिया से बात कर रहे थे कि उधर खबर आई कि सोनिया गांधी ने देवेगौडा से फोन पर बात कर ली है। दिल्ली में कांग्रेस हाईकमान ने बेहद तेज गति से काम किया और इस तेज घटनाक्रम में बीजेपी बैकफुट पर चली गई। उसके बाद जो हुआ, उससे बीजेपी के माथे पर कलंक ही लगा। पिछले एक साल में कर्नाटक सरकार के अंतर्विरोध भी सामने आए है। चूंकि सवाल अस्तित्व का है, इसलिए दोनों पक्षों ने अपने आप को रोक रखा है। अब इन अंतर्विरोधों के खुलने की घड़ी भी है।
तीसरे मोर्चे वाले क्या करेंगे?
राजनीतिक गलियारों में खबरें हैं कि सोनिया गांधी ने कमल नाथ को बीजद के नवीन पटनायक, वाईएसआर के जगन मोहन रेड्डी और टीआरएस के चंद्रशेखर राव से सम्पर्क साधने के काम पर लगाया है। इनके साथ अनौपचारिक बातें हो रहीं हैं। पर वाईएसआर और तेदेपा के अंतर्विरोधों को वे कैसे सुलझाएंगी? दोनों क्या एक ही गाड़ी पर सवार हो सकते हैं? जगन मोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिलाना चाहते हैं। इस वक्त कांग्रेस कोई भी माँग पूरी कर देगी। अतीत में भी कांग्रेस ऐसी माँगों को मानती रही है। सन 2004 के चुनाव में उसने तेलंगाना की माँग को मानकर टीआरएस को इसी तरह अपने साथ लिया था। भले ही उसके परिणामस्वरूप वह आज न आंध्र में है और न तेलंगाना में।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि 21 या उससे भी ज्यादा राजनीतिक दल परिणाम घोषित होते ही वैकल्पिक सरकार को अपना समर्थन घोषित कर देंगे। पर वह वैकल्पिक सरकार क्या होगी, कैसी होगी और किसकी होगी? क्या राष्ट्रपति इस बात को मानेंगे? यह अटकल इस उम्मीद पर है कि जनादेश खंडित होगा। खंडित जनादेश होने के बावजूद पार्टियों का संख्याबल महत्वपूर्ण होगा। उनके आपसी रिश्ते महत्वपूर्ण होंगे। राजनीति पर विचारधारा का पानी चढ़ाना जरूर पड़ता है, पर नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ भी होते हैं। बाहर की बातों के अलावा भीतरी बातों का महत्व भी होता है।
पहेलियाँ ही पहेलियाँ
एक बात जरूर साफ है कि बीजेपी और कांग्रेस की मदद के बगैर दिल्ली में सरकार नहीं बनेगी। कांग्रेसी अवधारणा इसी समझ के इर्द-गिर्द है। यदि कांग्रेस किसी गैर-भाजपा सरकार को समर्थन देने के लिए तैयार बैठी है, तो मजबूरी में बीजेपी भी ऐसी ही किसी रणनीति पर जा सकती है। इन सारी बातों के साथ तमाम किन्तु-परन्तु जुड़े हैं, जो चुनाव परिणामों पर निर्भर हैं। सबसे बड़ी पहेली एनडीए के पराभव को लेकर है। उसका पराभव होगा भी या नहीं? क्या यह कांग्रेसी स्वप्न सच होगा या सपना ही रहेगा?
लोकसभा के साथ आंध्र, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश विधान सभाओं के चुनाव भी हो रहे हैं। इनमें आंध्र और ओडिशा के परिणामों का केन्द्र की सरकार के गठन के साथ रिश्ता है। दिल्ली में एनडीए आया, तो कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन की शक्ल भी बदल सकती है। नरेन्द्र मोदी ने बंगाल के 40 विधायकों के ‘आउटरीच’ की बात कही थी। उसकी सच्चाई भी सामने आएगी। मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस पार्टी बहुत क्षीण बहुमत के सहारे है.
भाजपा बनाम कांग्रेस : वोट प्रतिशत में बदलाव
|
||
वर्ष
|
कांग्रेस
|
भाजपा
|
1991
|
35.66
|
20.11
|
1996
|
28.8
|
20.29
|
1998
|
25.82
|
25.59
|
1999
|
28.30
|
23.75
|
2004
|
26.7
|
22.16
|
2009
|
28.55
|
18.8
|
2014
|
19.3
|
31.0
|
|
|
|
No comments:
Post a Comment