पाश की कविता है, ‘सबसे ख़तरनाक होता है/ हमारे सपनों का मर जाना।’ सपने तमाम तरह के होते हैं। भरमाने वाले,
उकसाने वाले और परेशान करने वाले। वे टूटते भी हैं। पर सपनों को होना चहिए। ऐसे
सपने जो हम सब मिलकर देखें।
अगस्त का यह महीना कुछ जबर्दस्त यादें साथ लेकर आता है।
स्वतंत्रता दिवस हमारे लिए महत्त्वपूर्ण याद है। पर यह हिरोशिमा और नगासाकी की
तबाही का महीना भी है। 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर एटम बम गिराया
गया। फिर भी जापान ने हार नहीं मानी तो 9 अगस्त को नगासाकी शहर पर बम गिराया गया।
इन दो बमों ने विश्व युद्ध रोक दिया। दुनिया में इसके पहले इतने सारे लोगों की
एकसाथ मौत पहले कभी नहीं हुई थी। मीठी हों या खौफनाक, यादें को भुलाई नहीं जातीं।
उस बमबारी को बहत्तर साल हो गए हैं। हमारी आजादी से दो
साल ज्यादा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से जापानी संविधान के अनुच्छेद 9 के तहत
व्यवस्था कर दी गई थी कि जापान भविष्य में युद्ध नहीं करेगा। पर अब जापान फिर से
इन कानूनों में बुनियादी बदलाव कर रहा है। वजह है कि वैश्विक राजनीति बदल रही है,
शक्ति संतुलन बदल रहा है। जापान को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने द्वितीय विश्व
युद्ध की पराजय और विध्वंस का सामना करते हुए पिछले बहत्तर साल में एक नए देश की
रचना कर दी। वह आज भी दुनिया की तीसरे नम्बर की अर्थव्यवस्था है। भले ही चीन उससे
बड़ी अर्थव्यवस्था है, पर तकनीकी
गुणवत्ता में चीन अभी उसके करीब नहीं हैं। हमारे पास जापान से सीखने को बहुत कुछ
है।
अगस्त क्रांति
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में अपने 'मन की बात' में सन 1942
की अगस्त क्रांति का जिक्र किया। अगस्त क्रांति या ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन हमारे इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण
पन्ना है। उस आंदोलन की खासियत यह थी कि उसे जनता ने अपने हाथ में ले लिया था।
इससे अराजकता भी फैली, पर अंग्रेजी शासन को पता लग गया कि अब इस देश को ज्यादा समय
तक अपने अधीन रख पाना संभव नहीं होगा। उस आंदोलन की यादें देश के तकरीबन हर शहर,
हर कस्बे और यहाँ तक कि हर गाँव के पास हैं। वह आंदोलन भारतीय जनता के संकल्प का
आंदोलन था।
बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी ने उस आंदोलन का उल्लेख करते
हुए देश की जनता का आह्वान किया है कि हम इसके बहाने अस्वच्छता, गरीबी, आतंकवाद, जातिवाद और
संप्रदायवाद को खत्म करने का संकल्प लें। पता नहीं देश की जनता ने इस बात की
व्यवहारिकता को स्वीकार किया, क्योंकि हम भाषणों को सुनकर हवा में उड़ाने के भी
आदी हो चुके हैं। पर हम चाहें तो उस आंदोलन को हम आज के हालात से जोड़ भी सकते हैं।
वह आंदोलन संगठित तरीके से नहीं चला, पर सन 1857 के बाद आजादी हासिल करने की सबसे
जबर्दस्त कोशिश थी।
अगस्त क्रांति जनता के संकल्प का आंदोलन था। अगस्त 1942
में आंदोलन शुरू होने के कुछ दिन बाद ही राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व सलाखों के बंद
कर दिया गया था, पर जनता आगे आ गई थी। जिस तरह पिछले साल सरकार ने नोटबंदी के
परिणामों पर ज्यादा विचार किए बगैर फैसला किया था, तकरीबन वैसा ही सन 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का फैसला था। उस आंदोलन ने देश को
फौरन आजाद नहीं कराया, पर विदेशी शासन की बुनियाद हिलाकर रख दी। बहुत जल्द वह आंदोलन
बाहरी तौर पर कमजोर भी पड़ गया। सन 1943 के बंगाल दुर्भिक्ष को देखते हुए औपचारिक
रूप से उसे वापस भी ले लिया गया, पर उसने देश में एक नई चेतना को जन्म दिया, जिसे
आज फिर से जगाने की जरूरत है। आधुनिक भारत के इतिहास में वह गंभीर विमर्श का दौर
था। दुर्भाग्य से 15 अगस्त 1947 के बाद से हमने विमर्श से नाता तोड़ लिया है।
गांधी जी ने 9 अगस्त का दिन सोच-समझकर तय किया था। अगस्त
की 9 तारीख हमें अपने इतिहास के एक और दिन की याद दिलाती है। 9 अगस्त 1925 को
क्रांतिकारियों ने लखनऊ के पास काकोरी में ट्रेन से सरकारी खजाना लूटा था। वह लूट
भारतीय प्रतिरोध की प्रतीक थी। भगत सिंह ने तबसे 9 अगस्त को ‘काकोरी काण्ड स्मृति-दिवस’ मनाना शुरू किया था। वह परम्परा चली आ रही
थी। गांधी को 9 अगस्त से जुड़ी यादों पर भरोसा था।
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ बहुत सी जगहों पर हिंसक हुआ था। वह गांधी
के पहले आंदोलन की तरह अहिंसक नहीं था। तमाम इलाकों में जनता ने अंग्रेज सरकार से
सत्ता छीन ली। बंगाल के तामलुक, महाराष्ट्र के सतारा और उत्तर प्रदेश के बलिया में
स्वतंत्र सरकारें कायम की गईं। तामलुक में दो साल तक स्वतंत्र सरकार रही और सन
1944 में जब गांधी ने अपनी रिहाई के बाद लोगों से अनुरोध किया तो उन्होंने अपना
कब्जा छोड़ा।
अगस्त क्रांति के दौरान छोटे-छोटे शहरों से ऐसे लोग नेता
बनकर उभरे जिनकी कल्पना नहीं की जा सकती। तामलुक की 73 वर्षीय वृद्धा मातंगिनी
हाजरा झंडा लेकर निकल पड़ीं। उनके पीछे करीब 6000 लोगों की भीड़ थी। तामलुक
प्रशासन को कुछ समझ में नहीं आया और उसने पुलिस गोला चलाने का आदेश दिया। पुलिस की
गोलियों से मातंगिनी हाजरा शहीद हो गईं। इस घटना के कुछ समय पहले पटना में छात्रों
का जुलूस सचिवालय पर तिरंगा फहराने के लिए एकजुट हो गया। यहाँ भी पुलिस ने गोली
चलाई। इसमें सात छात्रों की जान गई। नवें, दसवें और बारहवें दर्जे के इन छात्रों
के मन में आजादी का जबर्दस्त जज्बा था। इन छात्रों की प्रतिमा प्रख्यात मूर्तिकार देवीप्रसाद
रायचौधुरी ने बनाई थी, जो अगस्त क्रांति का प्रतिनिधि स्मारक है।
स्मृतियों का संचय
अगस्त क्रांति के समानांतर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की
आजाद हिंद फौज की कार्रवाई ने अंग्रेजों के हौसलों को परास्त किया था। नेताजी ने
अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार कार्रवाई की थी। उन्हें काफी हद तक सफलता भी
मिली, पर हिरोशिमा और नगासाकी ने कहानी बदल दी। बहरहाल ‘भारत छोड़ो’ ऐसा भारतीय आंदोलन था, जिसमें हर संप्रदाय
के लोगों कि शिरकत थी। इस पूरे दौर में देश में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। हाँ, अफसोस
इस बात का भी है कि उस क्रांति के तमाम सेनानी अनाम रह गए। हमें जल्द भूल जाने की
आदत है। कोलकाता की बीना दास का नाम लोगों को याद भी नहीं होगा। उन्होंने बहुत
छोटी उम्र में बंगाल के गवर्नर पर गोली चला दी थी। बीना दास 1947 से 1952 तक बंगाल
विधानसभा की सदस्य भी रहीं। पति की मृत्यु के बाद वे ऋषिकेश में आकर रहने लगीं थीं।
सन 1986 में लावारिस की तरह उनका
निधन हुआ।
यादों को ताजा रखना बेहद जरूरी है। अब हम इस आंदोलन का
75वां साल मना रहे हैं। जरूरत इस बात
की है कि हम उन कहानियों को फिर से सुनें। हर शहर और कस्बे के पास अगस्त क्रांति
की स्मृतियाँ हैं। उनकी याद ताजा करें। सन 1942 में देश की जनता ने निश्चय कर लिया
कि अब आजादी से कम कुछ नहीं और आजादी हासिल की। आज भी कुछ ऐसे ही निश्चयों की
जरूरत है। सवाल है कि हमने आजादी क्या करने के लिए हासिल की थी? लफंगों को सड़क पर घूमने का मौका देने के
लिए? आर्थिक अपराधियों को लूट मचाने के लिए? अपराधियों को राजनीति में खुलकर खेलने का
मौका देने के लिए?
सवाल है कि हम किस तरह से यादों को ताजा करें और अपने
राष्ट्रीय कर्तव्यों से साथ लोगों को जोड़ें? शायद सन 1979 की बात है। प्रेमचंद के
जन्मशती वर्ष की शुरूआत की जा रही थी। लखनऊ दूरदर्शन की एक परिचर्चा में मेरे एक
सह-चर्चाकार ने सुझाव दिया कि लमही और वाराणसी
में प्रेमचंद के घरों को स्मारक बना दिया जाए। सुझाव अच्छा था, पर मेरी राय थी कि प्रेमचंद के साहित्य को पढ़ना
या पढ़ाया जाना ज्यादा महत्वपूर्ण है। जो समाज अपने लेखकों को पढ़ता नहीं, वह ईंट-पत्थर के स्मारकों का क्या करेगा? स्मारकों के साथ स्मृतियों का होना
महत्वपूर्ण है।
स्मृतियाँ हर तरह की होती हैं। मीठी भी कड़वी भी। मसलन
हिरोशिमा और नगासाकी की स्मृतियाँ कड़वी हैं, पर जापान ने उन्हें भी संजोकर रखा
है। हम सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतीकों के माने कितना समझते हैं, यह अपने ऐतिहासिक स्मारकों को देखने से समझ
में आता है। अपने बहुरंगी समाज की तस्वीर और वैचारिक बहुलता को मजबूत आधार देने के
लिए हमें स्मारक चाहिए। प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के स्मारक। साथ ही लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के स्मारक।
स्मारक-चेतना
हमारे पास पाँच-छह हजार साल से लेकर सत्तर-अस्सी साल तक
पुराने स्मारक हैं। पर आज़ादी के बाद हमारी स्मारक-चेतना खुट्टल हो गई।
अजंता-एलोरा, कोणार्क, खजुराहो, महाबलीपुरम, हम्पी, सांची का स्तूप, ताज महल, फतेहपुर सीकरी, कुतुब मीनार, लाल किला, गेटवे ऑफ इंडिया और इंडिया गेट जैसी तमाम
ऐतिहासिक धरोहरें हैं। पर 1947 के बाद के सार्वजनिक स्मारकों पर नज़र डालें तो
क्या मिलता है? राजनीतिक नेताओं की
प्रतिमाएं, उनके नाम पर सड़कें और पार्क।
यह भी गलत नहीं है। लोग उन महान आधुनिक विभूतियों के नाम
से परिचित होते हैं, जिन्होंने
सामाजिक विषमता और अन्याय का प्रतिकार किया या शिक्षा का प्रसार किया। पर इसमें भी
संतुलन चाहिए। पर ये इमारतें भी सिर्फ इमारतें हैं। इनमें पुस्तकालय खुलते, शोध संस्थान खुलते, कोई वैचारिक गतिविधि होती तो बेहतर था।
हमारी सामान्य समझ सत्ता के बदलावों से जुड़ी है। दिल्ली
में कुछ प्रधानमंत्रियों की समाधियाँ हैं, जो राजनीतिक सत्ता की प्रतीक हैं। गांधी से
जुड़े कुछ स्मारक हैं। नेहरू से जुड़ा तीन-मूर्ति भवन है और इसी तरह की कुछ और
चीजें हैं। पर जिस तरह सांसदों से लेकर पार्षद तक अपने माता-पिता, दादा-दादी के नाम पर सड़कों और गलियों के
नाम रखवाते हैं वह भी दूसरे किस्म के दोष की ओर इशारा करता है। स्वतंत्रता संग्राम
में शामिल तमाम लोग आज भी अनाम हैं।
अनेक महत्वपूर्ण बातों से लोग अपरिचित हैं। 26 दिसम्बर
1916 को लखनऊ के चारबाग स्टेशन के सामने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की पहली
मुलाकात हुई थी। इस आशय का एक पत्थर चारबाग में लगा है, पर लखनऊ में ही कितने लोग इस बात को जानते
हैं। राष्ट्रीय स्मारक हमें वैचारिक आधार देते हैं। गांधी, आम्बेडकर, नेहरू और लोहिया हमारी साझा धरोहर हैं। यह
बात आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने के लिए हमें स्मारक चाहिए।
न्यूयॉर्क के मैनहटन द्वीप पर लगा स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी
सिर्फ एक प्रतिमा नहीं है। वह फ्रांसीसी राज्यक्रांति को अमेरिकी वैचारिक समर्थन
पर कृतज्ञता ज्ञापन के रूप में फ्रांसीसी जनता की भेंट है। इस प्रतिमा के लिए पैसा
एकत्र करने के वास्ते जोज़फ पुलिट्जर ने अपने अखबार के मार्फत जनता से अपील की थी।
फ्रेंच रिवॉल्यूशन की याद में ऐसा ही स्मारक है ईफेल टावर। इसी तरह का स्मारक है
पार्थेनॉन। यूनानी देवी एथेना का मंदिर और एथेंस के लोकतंत्र का प्रतीक। रूस और
चीन की क्रांतियों के तमाम प्रतीक खड़े हैं। राजनीतिक बदलाव के साथ लेनिन से लेकर
सद्दाम हुसेन तक की प्रतिमाएं ढहाई भी गईं। कोलकाता और विजयवाड़ा में लेनिन की नई
प्रतिमाएं लगाईं भी गईं। इतिहास इस तरह भी याद किया जाता है। अनेक ऐतिहासिक स्मारक
अपने ध्वंस के लिए याद किए जाते हैं जैसे बामियान की बुद्ध प्रतिमाएं और बाबरी
मस्जिद।
स्वतंत्रता के 21 साल बाद 1968 में पाकिस्तान में
मीनार-ए-पाकिस्तान का उद्घाटन किया गया। पर हमने अभी तक स्वतंत्र भारत का कोई
स्मारक नहीं बनाया। शायद हमें ज़रूरत नहीं। संसद भवन और राष्ट्रपति भवन हमें
अंग्रेजों ने बनाकर दिए थे। गांधी समाधि हमारे राष्ट्रीय स्मारक का काम करती है।
गेटवे ऑफ इंडिया जॉर्ज पंचम के स्वागत में बना और इंडिया गेट अंग्रेजी सेना की ओर
से लड़ने वाले बहादुर भारतीय फौजियों की स्मृति में हमने 1971 में वहीं अमर जवान
ज्योति जला दी।
संघर्षों के स्मारक
संकटों और संघर्षों के स्मारकों में मैंने हिरोशिमा और नगासाकी
के स्मारकों का उल्लेख किया, जो आने वाले समय में लोगों को कुछ बातों से सावधान
करेंगे। ऐसे ही स्मारक हैं दूसरे विश्वयुद्ध में यहूदियों की सामूहिक हत्या
होलोकॉस्ट की याद में बने स्मारक। हमारे यहाँ भोपाल गैस त्रासदी या दिल्ली में
उपहार अग्निकांड की याद में बने स्मारक ज़रूर बने हैं, पर उस स्तर पर नहीं हैं, जितनी बड़ी ये त्रासदियाँ थीं। सुनामी के
स्मारक भी बने होंगे, पर चर्चित
नहीं हैं। हर शहर और कस्बे के पास याद रखने के लिए कुछ न कुछ होता है। उन
स्मृतियों के संचय की स्थायी व्यवस्था होनी चाहिए।
हमारा संकट वैचारिक है। हम ज्ञान-विज्ञान से कट गए हैं।
मनोरंजन और मस्ती के नशे में डूबे हैं। यह उस देश में है, जहाँ तक्षशिला और नालंदा जैसे शिक्षा के
केन्द्र होते थे। हाल में नालंदा विश्वविद्यालय की पुनर्स्थापना के प्रयत्न शुरू
हुए हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि हम दुनिया को सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय देंगे। हमें
याद रखना चाहिए कि दुनिया जब विश्वविद्यालय शब्द से परिचित नहीं थी, हमारे यहाँ
तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय थे।
आधुनिक भारत का सपना आजादी के आंदोलन के दौरान इस देश ने
देखना शुरू कर दिया था। क्योंकि आजादी एक सपना थी। हमें ऐसे स्मारक चाहिए जो नए
भारत के प्रतीक बन सकें। आने वाले वर्षों में हमारे यहाँ सौ सवा सौ मंजिल की
इमारतें भी खड़ी हो जाएंगी। पर इमारतें स्मारक नहीं होतीं। उनके लिए स्मृतियाँ
चाहिए। इसे 'आइडिया ऑफ इंडिया' कहते हैं। सपने पूरा समाज देखता है, तभी वे पूरे होते हैं। नेता उन सपनों के सूत्रधार
बनते हैं।
नए भारत का सपना
‘नया भारत’ केवल एक नेता का सपना नहीं हो सकता। पर सपनों
को साकार करने के लिए एक नेता का इंतजार होता है। वैसे ही जैसे बीसवीं सदी के
दूसरे दशक में भारत को गांधी का इंतजार था। देश के रूपांतरण के लिए तेज बदलाव की
जरूरत है, पर उसमें निरंतरता भी
चाहिए। नए भारत का सपना, हमारा अपना
है। इसमें गांधी, नेहरू, पटेल से लेकर वाजपेयी और मोदी तक की दृष्टि
शामिल है। हजारों, लाखों भारतीय
अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, लेखकों और मनीषियों का योगदान भी इसमें है।
भारत अब दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने
के कगार पर है। बावजूद इसके सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, भोजन और पानी जैसे मामलों में हम दुनिया के
तमाम पिछड़े देशों से भी पीछे हैं। इन मानकों पर तेजी से आगे बढ़ने के लिए भी
आर्थिक विकास की गति तेज करनी होगी। यह एक नया सपना है। पर इस गति का नेतृत्व करने
वाली राजनीति जबर्दस्त अंतर्विरोधों की शिकार है। इसके तोड़ को खोजने की जरूरत भी
है। यह भी एक सपना है।
तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था बनने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, भोजन और पानी जैसे मामलों में आगे बढ़ना होगा।
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति