Wednesday, August 16, 2017

सत्तर साल का आजाद भारत: कितने कदम चले हम?

करीब डेढ़ दशक पहले कहावत प्रसिद्ध हुई थी, ‘सौ में नब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान।’ यह बात ट्रकों के पीछे लिखी नजर आती थी। यह एक प्रकार का सामाजिक अंतर्मंथन था। कि हम अपना मजाक उड़ाना भी जानते हैं। यह एक सचाई की स्वीकृति भी थी।  
घटनाओं को एकसाथ मिलाकर पढ़ें तो विचित्र बड़े रोचक अनुभव होते हैं। हाल में उपराष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में 771 वोट पड़े। इनमें से 11 वोट अवैध घोषित हुए। उपराष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सदस्य वोट डालते हैं। वोट डालने में यह गलती सांसदों ने की है। इसे बड़ी गलती न मानें, पर यह बात किस तरफ इशारा करती है? यही कि हमारे लोकतंत्र ने संस्थाओं की रचना तो की, पर उनकी गुणवत्ता को सुनिश्चित नहीं किया।




राष्ट्रीय पर्व ऐसे अवसर होते हैं जब लाउड स्पीकर पर देशभक्ति के गीत बजते हैं। क्या वास्तव में हम देशभक्त हैं? क्या हम जानते हैं कि देशभक्त माने होता क्या है? ऐसे ही सवालों से जुड़ा सवाल यह है कि आजाद होने के बाद पिछले सत्तर साल में हमने हासिल क्या किया है? कहीं हम पीछे तो नहीं चले गए हैं?

सवाल पूछने वालों से भी सवाल पूछे जाने चाहिए। निराशा के इस गंदे गटर को बहाने में आपकी भूमिका क्या रही है? बहरहाल ऐसे सवाल हमें कुछ देर के लिए विचलित कर देते हैं। यह भावनात्मक मामला है। भारत जैसे देश को बदलने और एक नई व्यवस्था को कायम करने के लिए सत्तर साल काफी नहीं होते। खासतौर से तब जब हमें ऐसा देश मिला हो, जो औपनिवेशिक दौर में बहुत कुछ खो चुका था।

पिछले सत्तर साल में हमारे पास निराशा के सैकड़ों कारण हैं तो उम्मीदों की भी कुछ किरणें हैं। हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए कि पिछले सत्तर साल में क्या हम सात कदम भी आगे नहीं बढ़े हैं। पिछले हफ्ते की बात है। गुजरात में राज्यसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल को लेकर काफी गहमागहमी रही। दो विधायकों के वोट देने के तरीके को लेकर कांग्रेस ने आपत्ति व्यक्त की। मामला चुनाव आयोग तक गया। अंदेशा था कि आयोग केंद्र सरकार के दबाव में आ जाएगा। ऐसा हुआ नहीं। अंदेशे गलत साबित हुए। एक प्रकार के आश्वस्ति-भाव ने उसकी जगह ली। सिर्फ दो दशक में हमारे चुनाव आयोग की इज्जत बढ़ी है। कह सकते हैं कि हमारी चुनाव प्रणाली बदल रही है। बेशक उसमें सुधार की तमाम संभावनाएं अब भी बची हैं।

हम सब चोर हैं?

आजादी के सत्तर साल में हम न जाने हम कितनी बार अंदेशों से घिरे हैं और हर बार बाहर निकल कर आए हैं। ट्रेन के सफर में आपने भी कभी उन चर्चाओं में हिस्सा लिया होगा, जो सहयात्रियों के बीच अचानक शुरू हो जाती हैं। ट्रेन के लेट चलने से लेकर बात शुरू होती है और घूम-फिरकर विदेश नीति तक जाती है। और बात का लब्बो-लुबाव निकलता है कि सब चोर हैं, मिलकर लूट रहे हैं, हम कुछ नहीं कर सकते वगैरह।

देखते ही देखते हम निराशा के सागर में डूब जाते हैं। ऐसी वार्ताओं में कभी कोई ऐसा बंदा भी निकलता है, जो बताता है कि हमारी ट्रेन का नेटवर्क दुनिया के सबसे बड़े नेटवर्क में से एक है। यहाँ दुनिया का सबसे सस्ता किराया है। जिस पटरी पर सत्तर साल पहले पाँच गाड़ियाँ चलती थीं, उसपर आज सौ गाड़ियाँ चलती हैं। हम धक्के खा रहे हैं, पर बदलाव भी हो रहा है। सब कुछ चल रहा है, तो इसके पीछे भी कुछ लोग हैं। वे काम कर रहे हैं, तभी देश चल रहा है। बातचीत दूसरी पटरी पर चली जाती है।

भारत विरोधाभासों का देश है। एक तरफ देश का मन आशावादी और महत्वाकांक्षी है, वहीं बौद्धिक विमर्श नकारात्मक, नाउम्मीद और कड़वाहट से भरपूर है। विकास हुआ, संपदा बढ़ी, मोबाइल कनेक्शनों की धूम है, मोटरगाड़ियों के मालिकों की तादाद बढ़ी, हाउसिंग लोन बढ़े और आधार जैसे कार्यक्रम को सफलता मिली। फिर भी हमारा मन निराश और हताश है। जैसे कि अब तक न तो कुछ अच्छा हुआ और न कुछ होगा। यह गुस्सा, खीझ और बेचैनी सब बेवजह नहीं है। सन 2011 में देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ। वह आंदोलन हमारी खामियों और उन्हें दूर करने की कोशिशों का अच्छा उदाहरण है। सन 2013 के दिसंबर में दिल्ली विधानसभा के चुनाव का संदेश था कि लोगों के मन में बदलाव की जबर्दस्त चाहते हैं।

वह बदलाव कितना हुआ, किसके मार्फत हुआ, यह अलग चर्चा का विषय है। महत्वपूर्ण बात यह रेखांकित हुई कि हम बदलाव चाहते हैं। दुष्यंत कुमार की चार लाइनें हैं:-

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी/ शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए/हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में/हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए/सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं/सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

बुनियाद को हिलाने और सूरत को बदलने की चाहत आज के भारत का मंतव्य है। दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए बलात्कार कांड के विरोध में जिस तरह से लोग निकलकर बाहर आए थे, वह इशारा करता था कि हम हालात से संतुष्ट नहीं हैं। इंडिया गेट पर लगातार लगी रही उस भारी भीड़ में सबसे बड़ी संख्या नौजवानों की थी, खासतौर से लड़कियों की। यह नई पीढ़ी ही बदलाव का संदेश लेकर आ रही है।

सब पॉलिटिक्स ने बिगाड़ा है

सारा दोष राजनीति का है। पॉलिटिक्स हमारे यहाँ गाली बन चुकी है। पर हमें राजनीति चाहिए, क्योंकि बदलाव का सबसे बड़ा जरिया राजनीति है। उससे हम बच नहीं सकते। सुधार होना है तो सबसे पहले राजनीति में होने चाहिए। वोट की राजनीति और बदलाव की राजनीति दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़ी है। सामाजिक टकरावों का सबसे बड़ा कारण वोट की राजनीति है। यह तबतक रहेगी, जबतक सामान्य वोटर की समझ अपने हितों को परिभाषित करने लायक नहीं होती। यह भी वक्त लेने वाली प्रक्रिया है।

राजनीति को कितनी भी गाली दें, पिछले सत्तर साल की उपलब्धियों की सूची बनाएंगे तो लोकतंत्र का नाम सबसे ऊपर होगा। लोकतंत्र के साथ उसकी संस्थाएं और व्यवस्थाएं दूसरी बड़ी उपलब्धि है। तीसरी बड़ी उपलब्धि है राष्ट्रीय एकीकरण। इतने बड़े देश और उसकी विविधता को बनाए रखना आसान नहीं है। चौथी उपलब्धि है सामाजिक न्याय की परिकल्पना। पिछले कई हजार साल में भारतीय समाज कई प्रकार के दोषों का शिकार हुआ है। उन्हें दूर करने के लिए हमने लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर से ऐसे औजारों को विकसित किया हो, जो कारगर हों। इसे सफल होने में एक-दो पीढ़ियाँ तो लगेंगी। पाँचवीं उपलब्धि है आर्थिक सुधार। छठी है शिक्षा-व्यवस्था। और सातवीं, तकनीकी और वैज्ञानिक विकास। हम मंगलग्रह तक पहुँच चुके हैं। इस सूची को बढ़ाया जा सकता है। इनके साथ तमाम किंतु-परंतु भी जुड़े हैं, पर इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने भारत की आजादी के पहले संदेह प्रकट किया था। उन्होंने कहा था, ‘धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरे हाथों में सत्ता चली जाएगी। सभी भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्त्वहीन व्यक्ति होंगे। वे जबान से मीठे और दिल से नासमझ होंगे। सत्ता के लिए वे आपस में ही लड़ मरेंगे और भारत राजनैतिक तू-तू-मैं-मैं में खो जाएगा।’ चर्चिल का यह भी कहना था कि भारत सिर्फ एक भौगोलिक पहचान है। वह कोई एक देश नहीं है, जैसे भूमध्य रेखा कोई देश नहीं है।

चर्चिल को ही नहीं सन 1947 में काफी लोगों को अंदेशा था कि इस देश की व्यवस्था दस साल से ज्यादा चलने वाली नहीं है। टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा। आधुनिक भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि है, चर्चिल को गलत साबित करना। देश के राजनेताओं के बारे में उनकी बातें अभी सच लगतीं हैं, पर वे एक दशक बाद उतनी सच नहीं रहेंगी। पर आज का भारत केवल एक भौगोलिक पहचान भर नहीं है। राष्ट्रीय एकीकरण बड़ी उपलब्धि है, गोकि यह प्रक्रिया अभी जारी है।

लोकतंत्र हमारी बड़ी उपलब्धि है और चुनाव उसका सबसे महत्वपूर्ण जरिया है।  सन 2014 में भारतीय चुनाव-संचालन की सफलता के इर्द-गिर्द एक सवाल ब्रिटिश पत्रिका ‘इकोनॉमिस्ट’ ने उठाया था। उसका सवाल था कि भारत चुनाव-संचालन में इतना सफल क्यों है? इसके साथ जुड़ा उसका एक और सवाल था। जब इतनी सफलता के साथ वह चुनाव संचालित करता है, तब उसके बाकी काम इतनी सफलता से क्यों नहीं होते? मसलन उसके स्कूल, स्वास्थ्य व्यवस्था, पुलिस वगैरह से लोगों को शिकायत क्यों है?

पत्रिका ने एक सरल जवाब दिया कि जो काम छोटी अवधि के लिए होते हैं, उनमें भारत के लोग पूरी शिद्दत से जुट जाते हैं। वही सरकारी कर्मचारी अपने रोजमर्रा कार्यों में इतने अनुशासन से काम नहीं करते। भारतीय जनगणना दुनिया की सबसे बड़ी प्रशासनिक गतिविधि है, जो सफलता के साथ हो रही है। हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में लंबे अरसे से यह काम नहीं हो पाया है। अब यह काम सेना की मदद से किया जा रहा है।

जब चाहते हैं तब सब ठीक भी करते हैं

जनगणना के अलावा भारत ने पहचान पत्र आधार बनाने का काम सफलता के साथ किया है। पर वह काम सरकारी कर्मचारियों ने नहीं बाहरी लोगों ने किया। हमने साठ के दशक में हरित क्रांति की। नब्बे के दशक में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर में सफलता के झंडे गाड़े। हालांकि हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली बहुत अच्छी नहीं है, पर हमारे चिकित्सकों का दुनिया भर में सम्मान है। धीरे-धीरे भारत विकासशील देशों में चिकित्सा और स्वास्थ्य का हब बनता जा रहा है।

इकोनॉमिस्ट का निष्कर्ष है कि उस विभाग के सरकारी कर्मचारी बेहतर काम करते हैं, जिसपर जनता की निगाहें होती हैं। चुनाव आयोग का अपना कोई स्टाफ नहीं होता। चुनाव का कार्य वही प्रशासनिक मशीनरी करती है, जो सामान्य दिनों में दूसरे काम करती है। सच यह है कि सरकारी कर्मचारी बेहतर काम करें तो उन्हें बढ़ावा देने की व्यवस्था नहीं है। निजी क्षेत्र में यह सम्भव है।

इसका मतलब यह हुआ कि यदि काम करने वालों को उचित प्रोत्साहन दिया जाए तो वे बेहतर परिणाम दे सकते हैं। एक औसत छोटा दुकानदार जितनी मेहनत से रोजाना काम करता है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि उद्यमिता में भी हम पीछे नहीं हैं। देश में पूरी खेती निजी क्षेत्र में है। किसान की मेहनत और ईमानदारी पर कोई शक नहीं, जबकि उसे मदद देने वाली सरकारी एजेंसियाँ उसे हतोत्साहित करने में कसर नहीं छोड़तीं। हमें सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों है?

बहरहाल राजनीति ने हमें जोड़ा है और तोड़ा भी है। हमारे सबसे समझदार लोग राजनीति में हैं और सबसे बड़े अपराधी भी। आदर्श और पाखंड दोनों हमें एकसाथ राजनीति में दिखाई पड़ते हैं। नवम्बर 2015 में संसद के शीत सत्र के पहले दो दिन की विशेष चर्चा ‘संविधान दिवस’ के संदर्भ में हुई। डॉ भीमराव आम्बेडकर की स्मृति में हुई इस विशेष चर्चा में संविधान की सर्वोच्चता और भारतीय समाज की बहुलता पर बड़ी अच्छी बातें कही गईं। संसद में जब ऐसे विषयों पर चर्चा होती है, तो समूची राजनीति आदर्शों से प्रेरित नजर आती है और जैसे ही इस विषय पर चर्चा खत्म होती है और अगले दिन संसद की बैठक शुरू होती है, तो एक दिन पहले वाले सौम्य चेहरे बदल जाते हैं।

इस राजनीति में अनेक दोष हैं, पर उसकी कुछ विशेषताएं तमाम देशों की राजनीति से उसे अलग करती हैं। यह फर्क राष्ट्रीय आंदोलन की देन है। इस आंदोलन के साथ-साथ हिंदू और मुस्लिम राष्ट्रवाद, दलित चेतना और क्षेत्रीय मनोकामनाओं के आंदोलन भी चले। इनमें कुछ अलगाववादी भी थे। पर एक वृहत भारत की संकल्पना कमजोर नहीं हुई। सन 1947 में भारत का एकीकरण इसलिए ज्यादा दिक्कत तलब नहीं हुआ। छोटे देशी रजवाड़ों की इच्छा अकेले चलने की रही भी हो, पर जनता एक समूचे भारत के पक्ष में थी। यह एक नई राजनीति थी, जिसकी धुरी था लोकतंत्र।

स्वतंत्र भारत ने अपने नागरिकों को तीन महत्वपूर्ण लक्ष्य पूरे करने का मौका दिया। ये लक्ष्य हैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक न्याय और गरीबी का उन्मूलन। इन लक्ष्यों को पूरा करने का साजो-सामान हमारी राजनीति में है। भारत की कोई राजनीति इन लक्ष्यों से मुँह नहीं फेर सकती। इनपर हमारी आमराय है। आमराय का बनना हमारे लोकतंत्र का विशेष गुण है। धीरे-धीरे यही बात हमें रास्ते पर लेकर जाएगी।

वैश्विक लोकतंत्र की धुरी

दुनिया के अनेक देशों में आज भी यह धारणा है कि लोकतंत्र उनके आर्थिक विकास में बाधा बनता है। अपने आसपास के देशों में देखें तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान, मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार और नेपाल में लोकतांत्रिक पर खतरा बना रहता है। इन देशों में आंशिक रूप से लोकतंत्र कायम भी है तो इसका एक बड़ा कारण भारतीय लोकतंत्र का धुरी के रूप में बने रहना है। यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि पश्चिमी लोकतंत्र के बरक्स भारतीय लोकतंत्र विकासशील देशों का प्रेरणा स्रोत है।

इतने बड़े देश के रूप में हमारे पास संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के उदाहरण हैं। अमेरिका को कई राष्ट्रीयताओं ने मिलकर बनाया। हमने कई राष्ट्रीयताओं को टूटकर अलग होने से बचाया। रूस का सोवियत अनुभव सफल नहीं रहा। सोवियत संघ टूटने के बाद भी विघटन अभी चल ही रहा है। पहले जॉर्जिया और अब यूक्रेन के रूप में यूरोप की स्थानीय मनोकामनाएं सामने आ रहीं है। मध्य एशिया की राष्ट्रीयताओं पर रूसी दबाव है। चीन के पश्चिमी इलाकों में राष्ट्रीय आंदोलन जोर मार रहे हैं। चूंकि वह लोकतंत्र की डोर से बँधा देश नहीं है, इसलिए वे खुलकर सामने नहीं आ पाते हैं। हान और मंडारिन संस्कृति के बीच का भेद भी चीन में है।

राष्ट्रीय दृष्टि या विज़न

सांस्कृतिक भेद हमारे बीच भी हैं, पर हमारे लोकतंत्र ने उसे सुंदर तरीके से जोड़कर रखा है। दिल्ली में पूर्वोत्तर के छात्रों के साथ भेद-भाव की खबरें सुनाई पड़ीं तो स्थानीय मीडिया और जागरूक नागरिकों ने पूर्वोत्तर के निवासियों के पक्ष में आवाज उठाई। यह भी सच है कि हम पूर्वोत्तर के राज्यों की राजनीति और क्रिया-कलापों को लेकर जागरूक नहीं हैं, पर शिक्षा और रोजगार ने नागरिकों को एक-दूसरे से परिचित होने का मौका दिया है।

गठबंधन की राजनीति ने इस लोकतांत्रिक एकीकरण को बेहतर शक्ल दी है। एक समय तक देश के शासन पर केवल कांग्रेस का वर्चस्व था। उस वक्त भी दक्षिण भारत से के कामराज जैसे ताकतवर नेता थे, पर हम दक्षिण के नेताओं और राजनीति पर ध्यान देने की कोशिश नहीं करते थे। पर गठबंधन की राजनीति दक्षिण के नेताओं को उत्तर से परिचित कराने में कामयाब रही। इसके कारण ही एचडी देवेगौडा देश के प्रधानमंत्री बने या पूर्णो संगमा को लोकसभा अध्यक्ष के रूप में हमने देखा।

देश के लोकतांत्रिक लक्ष्यों के कारण ही हम प्रादेशिक असंतुलन को दूर करने के बारे में सोचते हैं। इस राजनीति के कारण ही यह बात सामने आ रही है कि विकास का लाभ हर इलाके तक नहीं पहुँचाया जाएगा तो बागी ‘लाल गलियारे’ तैयार हो जाएंगे। यही राजनीति उन इलाकों की बात को देश की संसद तक लेकर आएगी। वोट ने टकराव के आधार तैयार किए हैं। पर उसने समूचे भारत की उम्मीदों को पंख भी दिए हैं। 

नेहरू का हो अटल का या मोदी का ‘विज़न’ या दृष्टि की जरूरत हमें तब भी थी और आज भी है। आर्थिक दृष्टि से सन 1991 में भारत ने जो रास्ता पकड़ा वह नेहरू के रास्ते से अलग था। बावजूद इसके कि पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह दोनों नेहरू की विरासत वाली पार्टी के नेता थे। इस दृष्टि को राष्ट्रीय सहमति की दरकार है।
हिन्दी ट्रिब्यून में प्रकाशित

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