प्रणब
मुखर्जी बड़े विकट समय में राष्ट्रपति रहे। यूपीए सरकार के अंतिम दो साल राजनीतिक
संकट से भरे थे। सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे, अर्थ-व्यवस्था अचानक ढलान
पर उतर गई थी और सत्तारूढ़ दल अचानक नेतृत्व विहीन नजर आने लगा था। यूपी सरकार के
जाने के बाद एक ताकतवर राजनेता प्रधानमंत्री के रूप में दिल्ली आया तो राजनीति में
जबर्दस्त बदलाव की लहरें उठने लगीं। ऐसे में राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी
ने जिस संयम और धैर्य के साथ काम किया, वह कम महत्वपूर्ण नहीं है।
प्रणब
मुखर्जी कांग्रेस के वरिष्ठतम राजनेताओं में से एक हैं। उनके सामने पिछले दो साल
में ऐसे अनेक मौके आए होंगे, जब उनके निर्णयों को लेकर राजनीतिक निहितार्थ निकाले
जा सकते थे। ऐसा हुआ नहीं। उनके पहले दो साल के कार्यकाल में इस बात की संभावना
नहीं थी, पर अंतिम तीन साल में थी। पर वे अत्यंत संतुलित, सुलझे हुए राष्ट्रपति
साबित हुए। संसदीय व्यवस्था के सुदीर्घ अनुभव का पूरा इस्तेमाल करते हुए उन्होंने
हर मौके पर वही किया, जिसकी एक राजपुरुष यानी स्टेट्समैन से अपेक्षा की जाती है।
संविधान में लिखे अक्षरों और उनके पीछे की भावना का पूरा सम्मान और अपने विवेक का
इस्तेमाल। उनकी सेवानिवृत्ति के बाद एक सवाल आया है कि क्या वे वापस जाकर कांग्रेस
की सेवा करेंगे?
भारत में
राष्ट्रपति पद से निवृत्ति के बाद राजनीति में वापस जाने की परंपरा नहीं है।
उम्मीद है कि प्रणब मुखर्जी भविष्य में जो बोलेंगे या लिखेंगे, वह देश के नेता के
रूप में होगा, पार्टी के नेता के रूप में नहीं। मणि शंकर अय्यर अपने एक लेख में
कहा है, घर वापसी पर आपका स्वागत है प्रणबदा। और यह भी कि उन्हें अब कांग्रेस के
सलाहकार के रूप में काम करना चाहिए। बेशक कांग्रेस आज संकट में है। उसे रास्ता
दिखाए जाने की जरूरत है, पर क्या प्रणब मुखर्जी की इच्छा उसे रास्ता दिखाने की है?
सलाहकार ही बनना है तो पूरे देश के बनें, केवल कांग्रेस
के ही क्यों? राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी का
दर्जा क्या पार्टी पॉलिटिक्स के ऊपर नहीं हो गया है? सवाल दोनों से हैं। प्रणबदा
की इच्छा क्या है और कांग्रेस क्या चाहेगी? क्या वह समझना चाहेगी
कि उससे कहाँ गलती हो रही है? प्रणबदा के पास राजनीतिक ज्ञान, अनुभव और विवेक का वह भंडार है, जिसके
आधार पर वे देश के प्रधानमंत्री बनते, पर ऐसा नहीं हुआ। वे राष्ट्रपति बने, और उस
पद की गरिमा का उन्होंने पूरी तरह पालन किया।
भारत में
राष्ट्रपति को ‘रबर स्टांप’ माना जाता है। इस पद की
अपनी गरिमा है और कुछ मौकों पर राष्ट्रपति के विवेक की परख भी होती है। मसलन यदि
मई 2014 के लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला होता, तो
राष्ट्रपति के विवेक की परीक्षा भी होती। संयोग से ऐसा नहीं हुआ, पर बीजेपी की सरकार
बनने के बाद इस बात का अंदेशा तो हमेशा ही था कि कांग्रेसी राष्ट्रपति और बीजेपी
के प्रधानमंत्री की कैसे बनेगी?
हाल में राष्ट्रपति भवन में एक पुस्तक के विमोचन समारोह में नरेंद्र मोदी ने प्रणब
मुखर्जी की जिस अंदाज में तारीफ की वह असामान्य थी। मोदी ने उस भाषण में प्रणब
मुखर्जी को पिता तुल्य बताया। उन्होंने कहा, ‘जब मैं दिल्ली आया, तो मुझे
गाइड करने के लिए मेरे पास प्रणब दा मौजूद थे। मेरे जीवन का बहुत बड़ा सौभाग्य रहा
कि मुझे प्रणब दा की उँगली पकड़ कर दिल्ली की जिंदगी में खुद को स्थापित करने का
मौका मिला।’
प्रणब
मुखर्जी के कार्यकाल को लेकर हाल में जो टिप्पणियाँ आईं हैं, उनमें ‘कांग्रेस-मुखी’
विश्लेषकों के लेखन में प्रणब मुखर्जी की मोदी के प्रति नरमी को लेकर खलिश व्यक्त
होती है। उन्हें लगता है कि प्रणब मुखर्जी को मोदी की फज़ीहत करनी चाहिए थी। उनके
भीतर के कांग्रेसी को जागना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने केवल संविधान की
भावना को निर्देशक सिद्धांत माना। नरेंद्र मोदी के वक्तव्य से यह भी पता लगता है
कि प्रणब मुखर्जी ने अपने अनुभव के आधार पर उन्हें रास्ता भी दिखाया। यह उनका
अनुभव ही था कि जब प्रणब मुखर्जी इजरायल की यात्रा पर गए तो उन्होंने सरकार को
सुझाव दिया कि इस यात्रा में फलस्तीन को भी जोड़ना चाहिए। यह राजनीतिक सलाह नहीं
थी, राष्ट्रपति के रूप में देश के हित में थी। ऐसे तमाम प्रसंग आए होंगे।
आलोचक मानते
हैं कि प्रणब मुखर्जी ने जोखिम नहीं उठाया और सरकार से सहयोग किया। उत्तराखंड में
राज्यपाल की संस्तुति की परीक्षा किए बगैर राष्ट्रपति शासन लागू करना ठीक नहीं था।
अरुणाचल में राज्यपाल की भूमिका पर सवाल किए बगैर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया।
भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश बार-बार जारी हुआ। राज्यपालों को हटाने और नियुक्त
करने की प्रक्रिया चली। प्रणब मुखर्जी ने वही किया जो सरकार ने कहा। ऐसी सूचनाएं
भी हैं कि उन्होंने हर बार सरकार से पूरी जानकारियाँ हासिल कीं। बार-बार अध्यादेश
जारी करने की उन्होंने खुली आलोचना भी की।
कांग्रेसी
तौर-तरीकों की आलोचना में भी वे पीछे नहीं रहे। मसलन ‘पुरस्कार वापसी’ के दौर में
उन्होंने कहा, ‘राष्ट्रीय
पुरस्कारों का सम्मान किया जाना चाहिए और उन्हें संरक्षण देना चाहिए।’ संसद में
शोर मचाने का भी उन्होंने समर्थन नहीं किया। उन्होंने कहा, लोकतंत्र
की हमारी संस्थाएं दबाव में हैं. संसद परिचर्चा के बजाय टकराव के अखाड़े में बदल
चुकी है। वे चाहते तो कांग्रेस के प्रति अपने झुकाव को व्यक्त करते। उन्होंने ऐसा नहीं
किया।
इसमें दो
राय नहीं कि वैचारिक रूप से वे कांग्रेसी मूल्यों और सिद्धांतों से जुड़े हैं।
उन्होंने कांग्रेस पार्टी के इतिहास का संकलन किया है। बेशक वे मानते हैं कि
भारतीय समाज को एक साथ रखने वाली छतरी कांग्रेस के पास ही है। पर क्या पार्टी में
अभी उनकी कोई भूमिका है? क्या वे खुद इस दिशा में उत्सुक हैं? देखें और इंतजार
करें।
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