Sunday, August 6, 2017

किधर जा रही है कांग्रेस?

हाल में सोशल मीडिया में एक चुटकुला लोकप्रिय हो रहा था कि अमित शाह को मौका लगे तो बीजिंग में भी बीजेपी की सरकार बनवा दें। यह मजाक की बात है, पर सच यह है कि बीजेपी के पार्टी अध्यक्ष ने सन 2019 के चुनाव के सिलसिले में राज्यों के दौरे शुरू कर दिए हैं। सवाल है कि कांग्रेस क्या कर रही है? हाल में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव के पहले सोनिया गांधी ने 17 दलों को एकसाथ लाने का दावा किया था। चुनाव के दिन तक ये 16 ही रह गए। दूसरी ओर बीजेपी के प्रत्याशी का 40 पार्टियों ने समर्थन किया।

बेशक इन 40 दलों का लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ गठबंधन होगा, ऐसा मान लेना उचित नहीं है, पर सच यह है कि पार्टी लगातार अपनी पहुँच का दायरा बढ़ा रही है। अब खबरें हैं कि बीजेपी ने अद्रमुक को भी अपने साथ जोड़ लिया है। दो दिन बाद गुजरात में राज्यसभा के चुनाव हैं। वहाँ अहमद पटेल को जिताने लायक विधायक कांग्रेस के पास थे, पर अचानक शंकर सिंह वाघेला की बगावत से कहानी बदल गई है। 

अहमद पटेल जीतें या हारें, कांग्रेस संकट में फँसती जा रही है। यह संकट गुजरात में नहीं पूरे देश में है। सन 2019 के लिए कांग्रेस के रोडमैप में अभी तक सिर्फ एक काम है, लालू यादव और अखिलेश यादव के साथ महागठबंधन। संभव है कि इसमें मायावती की बसपा भी शामिल हो जाए। दूसरी ओर ऐसे दल जो कांग्रेस से टूटकर बने हैं, वे कांग्रेस के साथ नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे तीन महत्वपूर्ण दल हैं ममता की तृणमूल कांग्रेस, जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस।

कांग्रेस के तीन पक्षों पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला संगठनात्मक, दूसरा नेतृत्व और तीसरा कार्यक्रम। 19 मार्च 2017 को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने कोलकाता में कहा कि कांग्रेस का संगठनात्मक ढाँचा बीजेपी-संघ के मुकाबले कमजोर है। वे अपने पक्ष में वोट लाने में कहीं ज्यादा समर्थ हैं। सवाल है कि पार्टी इसे दुरुस्त करने के लिए कर क्या रही है? जमीनी स्तर पर उसके कार्यकर्ता खत्म हो रहे हैं। सूबों में उसके पास कद्दावर नेता नहीं हैं। गुजरात में चुनाव होने वाले हैं और वहाँ पार्टी का नेतृत्व बदहाल है। अगले साल के शुरू में कर्नाटक में चुनाव हैं। सिद्धरमैया अपेक्षाकृत मजबूत जमीन पर हैं और बीजेपी का नेतृत्व कर्नाटक में बँटा हुआ लगता है, बावजूद इसके कांग्रेस की जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता।

जीत या हार से वोटर का ही नहीं पार्टी-कार्यकर्ता का मनोबल बनता या बिगड़ता है। वह निकट या सुदूर भविष्य में अपने हितों को देखकर ही पार्टी से जुड़ता है। वह वैचारिक आधार नहीं, इनाम-इकराम देखता है। उसे नजर आना चाहिए कि पार्टी की ताकत बढ़ने वाली है। कांग्रेसी नेतृत्व ने पिछले दो साल में आक्रामकता बढ़ाई है। यह आक्रामकता संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह है, पर यह मीडिया-केंद्रित आक्रामकता है। यह जमीन पर नहीं है। छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में पार्टी की उपस्थिति कम हो चुकी है।

चुनाव आयोग के लगातार दबाव के बावजूद कांग्रेस के आंतरिक चुनाव टलते जा रहे हैं। औपचारिक रूप से पार्टी अध्यक्ष का चुनाव सितंबर-अक्तूबर में होगा, पर राहुल गांधी का अनिश्चय कायम है। राहुल पहेली बन चुके हैं। सब मानते हैं कि वे चुनाव नहीं जिता सकते। पर उन्हें छोड़ा भी नहीं जा सकता। राम जाने पार्टी के भीतर कोई इस बात को शिद्दत के साथ कहता है कि नहीं। पार्टी कार्यसमिति ने नवंबर 2016 की बैठक में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर उनसे पार्टी की कमान संभालने का अनुरोध किया था। उस समय वरिष्ठ पार्टी नेता एके एंटनी ने कहा था कि राहुल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनने का यह सही समय है।

अगले साल 24 मार्च 2018 को सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बने 20 साल पूरे हो जाएंगे। एक जमाने में पार्टी अध्यक्ष एक-एक साल के लिए बनते थे। फिर एक ही अध्यक्ष एक साल से ज्यादा वक्त तक काम करने लगा। इंदिरा गांधी 1978 से 1984 तक रहीं तो वह लंबी अवधि थी। फिर 1992 से 1996 तक पीवी नरसिंहराव अध्यक्ष रहे। सोनिया गांधी का इतनी लंबी अवधि तक अध्यक्ष बने रहने से उनकी ताकत और प्रभाव का पता लगता है। साथ ही यह भी कि उनका विकल्प तैयार नहीं है। पहले उम्मीद थी कि इस साल अक्तूबर तक राहुल गांधी पूरी तरह अध्यक्ष पद संभाल लेंगे, पर अब यह भी नहीं लगता। यानी 2019 का चुनाव पार्टी सोनिया जी की अध्यक्षता में ही लड़ेगी।

इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि सोनिया हों या राहुल। इससे केवल इतना पता लगता है कि पार्टी करवट ले रही है। यह सवाल मई 2014 से पूछा जा रहा है कि कांग्रेस को पुनर्जीवन कैसे मिलेगा? जवाब है कि हम बाउंस-बैक करेंगे, पहले भी किया है। पर कैसे? संगठन में कोई जुंबिश नहीं, बुनियादी बदलाव नहीं, नारों और कार्यक्रमों में कोई नयापन नहीं और नेतृत्व में ठहराव है।

पार्टी का मौजूदा राजनीतिक दर्शन है सेक्युलरिज़्म, किसान, गाँव और गरीब। उसने बिहार के सन 2015 के महागठबंधन के प्रयोग के सहारे सामाजिक शक्तियों को जोड़ने की कोशिश की है, पर वह कोशिश बिहार में ही फेल हो रही है। कांग्रेस दूसरों के सहारे सामाजिक शक्तियों को एक करना चाहती है। वह सामाजिक समीकरणों के व्यामोह में है और नई राजनीति की खोज में नाकामयाब। इससे बेहतर था राजीव गांधी का इक्कीसवीं सदी का नारा।

पिछले तीन साल में पार्टी हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, असम, केरल और उत्तराखंड में चुनाव हारी है। इस साल गठबंधन के बावजूद उत्तर प्रदेश में उसे ऐतिहासिक हार मिली है। उसे एकमात्र सफलता पंजाब में मिली है। इसका काफी श्रेय पंजाब के स्थानीय नेतृत्व को है और अकाली दल के प्रति पैदा हुई एंटी इनकंबैंसी को।

पार्टी जहाँ खड़ी है वहाँ से या तो ऊपर जा सकती है या नीचे। वहीं पर रुके रहने का कोई विकल्प नहीं है। साल के अंत में हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभाओं के चुनाव हैं। क्या हिमाचल में उसकी सरकार बचेगी? क्या गुजरात में दशा सुधरेगी? क्या कर्नाटक में जीतेगी? 2018 में जिन राज्यों के विधानसभा चुनाव होंगे, उन सब में कांग्रेस की परीक्षा है। अस्तित्व को बचाने का आखिरी मौका। 
हरिभूमि में प्रकाशित

1 comment:

  1. बहुत ही बेहतरीन article लिखा है आपने। Share करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। :) :)

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