एबीपी न्यूज़ पर रात
में एक कार्यक्रम आ रहा था कि भारत और चीन के बीच लड़ाई छिड़ी तो कौन सा देश किसके
साथ होगा। कार्यक्रम-प्रस्तोता ने अपने मन से और कुछ सामान्य समझ से दोनों देशों
के समर्थकों के नाम तय किए और सूची बनाकर पेश कर दी। इसी तरह जी न्यूज पर एक
कार्यक्रम चल रहा था, जिससे लगता था कि भारत और चीन के युद्ध की उलटी गिनती शुरू हो
गई है। क्या हिंदी या अंग्रेजी के ज्यादातर चैनलों की टीआरपी लड़ाई का नाम लेने से
बढ़ती है? क्या वजह है कि शाम को ज्यादातर चैनलों की सभाओं में
भारत और पाकिस्तान के तथाकथित विशेषज्ञ बैठकर एक-दूसरे को गाली देते रहते हैं? चैनल जान-बूझकर इसे
बढ़ावा देते हैं? सवाल है कि क्या दर्शक यही चाहता है?
चैनलों के इस जुनूनी व्यवहार के मुकाबले भारत सरकार का रुख काफी शांत और संयत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण में चीन और पाकिस्तान का नाम तक नहीं था। केवल कश्मीर के बारे में कुछ बातें थीं और एक जगह भारत की शक्ति के संदर्भ में सर्जिकल स्ट्राइक का जिक्र था। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात सुषमा स्वराज ने हाल में राज्यसभा में कही। उन्होंने सपा नेता रामगोपाल यादव के युद्ध की तैयारी के बयान पर कहा कि युद्ध से समाधान नहीं निकलता। सेना को तैयार रखना होता है। धैर्य और भाषा-संयम और राजनयिक रास्तों से हल निकालने की कोशिश की जा रही है। आज सामरिक क्षमता बढ़ाने से ज्यादा अहम है आर्थिक क्षमता को बढ़ाना।
वास्तव में इस विषय में चीन का सरकारी मीडिया लगातार उत्तेजक व्यवहार कर रहा है। इससे क्या जाहिर हुआ? यही कि चीन अब दबाव में है। भारत ने अपने आस-पास के देशों के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की दिशा में जरूरी कदम उठाए हैं। ताजा खबर है कि भारत ने वियतनाम को ब्रह्मोस मिसाइलें देकर चीन को संदेश भी दिया है कि तनाव बढ़ाना उसे महंगा पड़ेगा। संभावना है कि श्रीलंका के मत्ताला राजपक्षा अंतरराष्ट्रीय विमान पत्तन का विकास करने के काम भारत को मिल जाए।
चैनलों के इस जुनूनी व्यवहार के मुकाबले भारत सरकार का रुख काफी शांत और संयत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 15 अगस्त के भाषण में चीन और पाकिस्तान का नाम तक नहीं था। केवल कश्मीर के बारे में कुछ बातें थीं और एक जगह भारत की शक्ति के संदर्भ में सर्जिकल स्ट्राइक का जिक्र था। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात सुषमा स्वराज ने हाल में राज्यसभा में कही। उन्होंने सपा नेता रामगोपाल यादव के युद्ध की तैयारी के बयान पर कहा कि युद्ध से समाधान नहीं निकलता। सेना को तैयार रखना होता है। धैर्य और भाषा-संयम और राजनयिक रास्तों से हल निकालने की कोशिश की जा रही है। आज सामरिक क्षमता बढ़ाने से ज्यादा अहम है आर्थिक क्षमता को बढ़ाना।
वास्तव में इस विषय में चीन का सरकारी मीडिया लगातार उत्तेजक व्यवहार कर रहा है। इससे क्या जाहिर हुआ? यही कि चीन अब दबाव में है। भारत ने अपने आस-पास के देशों के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की दिशा में जरूरी कदम उठाए हैं। ताजा खबर है कि भारत ने वियतनाम को ब्रह्मोस मिसाइलें देकर चीन को संदेश भी दिया है कि तनाव बढ़ाना उसे महंगा पड़ेगा। संभावना है कि श्रीलंका के मत्ताला राजपक्षा अंतरराष्ट्रीय विमान पत्तन का विकास करने के काम भारत को मिल जाए।
इस संयमित डिप्लोमेसी के कारण चीन ने अपने हाथ पीछे खींचने शुरू कर दिए हैं। पहले खबरें आईं कि उसके
सैनिक 100 मीटर पीछे हटने को तैयार हैं। चीन सरकार के आंतरिक सूत्र बता रहे हैं कि
इस मामले में भारत नहीं, चीन फँस गया है। चीन को लगता था कि भारत धमकियों से डरकर अपने
सैनिकों को हटा लेगा। ऐसा हो नहीं पाया। अब चीन नाक बचाने के लिए रास्ते तलाश रहा
है। देखना चाहिए कि ऐसा कैसे संभव हुआ।
डोकलाम मामले में
भारत की ओर से युद्ध की धमकी एकबार भी नहीं दी गई। सारी धमकियाँ चीन की तरफ से आईं।
इस दौरान चीनी सेना ने तिब्बत में युद्धाभ्यास भी किया। यह भी परोक्ष धमकी थी। चीन
सिर्फ इतना चाहता है कि भारत एकबार को अपनी सेना हटाने को तैयार हो जाए। इधर भूटान
ने दूसरी बार कहा है कि चीन जिस जमीन की बात कर रहा है, वह हमारी है। एक बात से
चीन के सारे तर्क धुल जाते हैं। यदि यह जमीन चीन की है, तो वह लंबे अरसे से इसके
स्वामित्व को लेकर भूटान के साथ बातचीत क्यों कर रहा है?
वैश्विक मीडिया की रिपोर्ट हैं कि तमाम घुड़कियों के बावजूद चीनी सीमा पर सैनिकों की संख्या में किसी किस्म
की वृद्धि नहीं हुई है। केवल ल्हासा में 12-14 सुखोई विमान खड़े हैं। एक संवाददाता
ने शिगात्से एयरबेस के पास से गुजरते हुए तीन सुखोई और सात जे-10 विमानों को गिना।
ल्हासा से शिगात्से के बीच किसी प्रकार की सैनिक गतिविधि नहीं है। केवल
ल्हासा-बीजिंग रेलवे लाइन के पास परेड के लिए लाई गई कुछ बख्तरबंद गाड़ियाँ खड़ी
नजर आती हैं। इसका मतलब है कि चीन की सैनिक गतिविधि ज्यादा से ज्यादा डोकलाम में
भारतीय सेना के सामने निःशस्त्र सैनिकों की कतार बनाने तक सीमित रहेगी। चीनी
अधिकारियों का मानना है कि दोनों देश अपनी गतिविधियों को यहीं तक सीमित रखेंगे,
बढ़ाएंगे नहीं, क्योंकि दोनों नाभिकीय शक्तियाँ हैं।
चीन पहले से ही
दक्षिण चीन सागर में तनाव के कारण वैश्विक दबाव में था। अब डोकलाम के विवाद ने
उसकी छवि लड़ाकू और हमलावर देश की बना दी है। हाल में आसियान विदेश मंत्री सम्मेलन
में उसे नीचा देखना पड़ा। वह पाकिस्तान के साथ खड़ा नजर आ रहा है, जिसकी छवि पहले
से खराब है। बहरहाल भारत के विदेश मंत्रालय और पीएमओ ने किसी भी स्तर पर संयम नहीं
खोया।
भारतीय विदेश
मंत्रालय का इशारा है कि बातें मीडिया के मार्फत नहीं, राजनयिक संपर्क से होनी
चाहिए। देश के रक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने चीन जाकर बातचीत भी की। जी-20 में
नरेंद्र मोदी और शी चिनफिंग की बात हुई और अब सितंबर में चीन में होने वाले ब्रिक्स
शिखर सम्मेलन में फिर होगी। भारत भी चीन से रिश्ते बिगाड़ना नहीं चाहता। हमें
एनएसजी की सदस्यता और सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट के लिए चीनी मदद चाहिए। दोनों
देशों के बीच किसी न किसी स्तर पर संवाद चल ही रहा है।
सबसे महत्वपूर्ण बात
यह है कि पाकिस्तान के मुकाबले चीन के साथ हमारा संवाद बेहतर है। हाल के वर्षों
में ऐसा कोई मौका नहीं आया जब दोनों देशों के बीच गोलाबारी हुई हो। हमारे चीन के
साथ मतभेद सीमा से ज्यादा इस बात को लेकर हैं कि दोनों के बीच व्यापार संतुलन चीन
के पक्ष में झुका हुआ है। भारत के मीडिया को इस बात के बारीक पहलुओं को अपने
दर्शकों के सामने रखना चाहिए। युद्ध के नगाड़े बजाने की कोई जरूरत नहीं है। संयमित
डिप्लोमेसी की तरह मीडिया भी संतुलित रहे तो कोई हर्ज है क्या? बंद कीजिए हर वक्त पेड़ पर चढ़कर ‘दुश्मन आया, दुश्मन आया’ की पुकार लगाना।
हरिभूमि में प्रकाशित
Sandra article sir
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