कांग्रेस अपने
इतिहास के सबसे मुश्किल दौर में प्रवेश कर गई है। अगले साल यानी 24 मार्च 2018 को सोनिया
गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बने 20 साल पूरे हो जाएंगे। एक जमाने में पार्टी अध्यक्ष एक-एक साल के लिए बनते थे। फिर एक ही
अध्यक्ष एक साल से ज्यादा वक्त तक काम करने लगा। इंदिरा गांधी 1978 से 1984 तक
रहीं तो वह लंबी अवधि थी। फिर 1992 से 1996 तक पीवी नरसिंहराव अध्यक्ष रहे।
सोनिया गांधी का
इतनी लंबी अवधि तक अध्यक्ष बने रहने से उनकी ताकत और प्रभाव का पता लगता है। साथ
ही यह भी कि उनका विकल्प तैयार नहीं है। उम्मीद थी कि इस साल अक्तूबर तक राहुल
गांधी पूरी तरह अध्यक्ष पद संभाल लेंगे, पर अब यह बात पूरी होती लग नहीं रही है।
इसका मतलब है कि 2019 का चुनाव पार्टी सोनिया जी की अध्यक्षता में ही लड़ेंगी।
क्या फर्क पड़ता है, सोनिया हों या राहुल? औपचारिक रूप से यह इस
बात का संकेतक कि पार्टी करवट ले भी रही है या नहीं। यह सवाल मई 2014 से पूछा जा
रहा है कि कांग्रेस को पुनर्जीवन कैसे मिलेगा? जवाब है कि हम ‘बाउंस-बैक’ करेंगे, पहले भी किया
है। पर कैसे? संगठन में कोई जुंबिश नहीं, बुनियादी बदलाव नहीं, नारों
और कार्यक्रमों में कोई नयापन नहीं और नेतृत्व में ठहराव।
तबसे बात हो रही है कि हमें अंतर्मंथन करना चाहिए। अंतर्मंथन की मजबूरी है
कि वह खुले मंच पर नहीं होगा। भीतर हुआ तो क्या हुआ, पता नहीं। ऐसे मौकों पर एंटनी
कमेटी बनती है, पिछली बार भी बनी। बताते हैं, पार्टी का मेक-ओवर हो रहा है। उसका मेक-ओवर
कैसे होता है? प्रवक्ताओं और ‘मीडिया पैनलिस्ट’ की सूची बदल जाती है। वरिष्ठ नेताओं
के कुछ और बाल-बच्चे इसमें शामिल हो जाते हैं। सब के सब युवा और ‘वैल कनेक्टेड’
शहरी। साथ में राहुल गांधी के करीबी।
पार्टी
का मौजूदा राजनीतिक दर्शन है सेक्युलरिज़्म, किसान, गाँव और गरीब। उसने बिहार के सन 2015 के ‘महागठबंधन’ के प्रयोग के सहारे सामाजिक शक्तियों को जोड़ने की कोशिश की है, पर
वह कोशिश बिहार में ही फेल हो रही है। न जाने जिन सामाजिक शक्तियों को वह एक करना
चाहती है। उनके भीतर जमीनी स्तर पर एकता-भाव है भी या नहीं। उनके अंतर्विरोध इस
साल उत्तर प्रदेश के चुनाव में जाहिर हो चुके हैं।
सन
2014 में बीजेपी को 31 फीसदी वोट मिले थे। क्या इसका मतलब यह है कि भाजपा के खिलाफ
‘महागठबंधन’ बना लिया जाए तो उसे 69 फीसदी वोट मिलेंगे? इतना सीधा गणित होता तो बात क्या थी। कांग्रेस सामाजिक समीकरणों के व्यामोह
में है और ‘नई राजनीति’ की खोज में नाकामयाब। इससे बेहतर था राजीव
गांधी का ‘इक्कीसवीं सदी’ का नारा। सोनिया गांधी की कांग्रेस ने इस नारे
का कत्तई इस्तेमाल नहीं किया।
यूपीए-1
के दौर में बावजूद वामपंथी सहयोगियों के सरकार सफल थी। उस वक्त वैश्विक
अर्थ-व्यवस्था भी उठान पर थी। यूपीए-2 का अनुभव अच्छा नहीं रहा। आर्थिक उदारीकरण
को सरकार ने तिलांजलि दे दी। नरेंद्र मोदी ने 2014 में उसे लपक लिया। मोदी ने ‘अपवार्ड मोबाइल जेनरेशन’
को विकास का सपना दिखाया। साथ ही कहा कि किसान का हित भी इसमें है कि वह अपने
बच्चों के भविष्य के बारे में सोचे।
इधर
नोटबंदी के बाद से बीजेपी ने भ्रष्टाचार को अपने निशाने पर लिया है। सर्जिकल
स्ट्राइक और कश्मीर के बहाने राष्ट्रवाद को अपनी राजनीति में केंद्रीय स्थान दिया।
कांग्रेस ने लामुहाला इन दोनों का विरोध किया। लगता है कि देश के मन को ठीक से पढ़
पाने में पार्टी फिर फेल हुई। हाल में नीतीश कुमार ने मुस्कराते हुए कहा, 2019 में
कौन रोक पाएगा मोदी को? राहुल गांधी रोक पाते या नहीं, यह दीगर
है। उन्होंने कभी कोशिश ही नहीं की। यह तो रोकने की यानी नकारात्मक समझ है।
कांग्रेस को कहाँ ले जाना है, इसकी तो बात भी नहीं है।
कांग्रेस
को संगठन के स्तर पर संभालने की जरूरत है। जमीनी स्तर पर उसके कार्यकर्ता खत्म हो
रहे हैं। पार्टी-कार्यकर्ता निकट या सुदूर भविष्य में अपने हितों को देखकर ही जुड़ता
है। वह वैचारिक आधार नहीं, इनाम-इकराम देखता है। उसे नजर आना चाहिए कि पार्टी की
ताकत बढ़ने वाली है। कांग्रेसी नेतृत्व ने पिछले दो साल में आक्रामकता बढ़ाई है।
यह आक्रामकता संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह है।
चुनाव
आयोग के लगातार दबाव के बावजूद कांग्रेस के आंतरिक चुनाव टलते जा रहे हैं। औपचारिक
रूप से पार्टी अध्यक्ष का चुनाव सितंबर-अक्तूबर में होगा, पर राहुल गांधी का अनिश्चय
कायम है। पार्टी कार्यसमिति ने नवंबर 2016 की बैठक में सर्वसम्मति से प्रस्ताव
पारित कर उनसे पार्टी की कमान संभालने का अनुरोध किया था। उस समय वरिष्ठ पार्टी
नेता एके एंटनी ने कहा था कि राहुल के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनने का यह सही समय
है।
संसद
में कांग्रेसी आक्रामकता के स्वाभाविक कारण हैं। पिछले तीन साल में पार्टी
हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, असम, केरल और उत्तराखंड में
चुनाव हारी है। इस साल गठबंधन के बावजूद उत्तर प्रदेश में उसे ऐतिहासिक हार मिली
है। उसे एकमात्र सफलता पंजाब में मिली है। इसका काफी श्रेय पंजाब के स्थानीय
नेतृत्व को है और अकाली दल के प्रति पैदा हुई एंटी इनकंबैंसी को। अब इस साल के अंत
में हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभाओं के चुनाव हैं।
क्या
हिमाचल में वह अपनी सरकार को बचा पाएगी? क्या गुजरात
में पहले के मुकाबले अपनी स्थिति सुधारेगी? इसके कुछ दिन कर्नाटक में चुनाव हैं। वहाँ
अभी कांग्रेस सरकार है। क्या कांग्रेस फिर से जीतकर आएगी? सन 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले 2018 में जिन राज्यों के विधानसभा
चुनाव होंगे, उन सब में कांग्रेस की परीक्षा है। कर्नाटक
के अलावा छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी और
कांग्रेस दोनों की इज्जत दाँव पर होगी।
एनडीए
का प्रभाव क्षेत्र बढ़ रहा है। सन 2014 में बीजेपी का पूर्वोत्तर पर प्रभाव नहीं
था। आज असम में उसकी सरकार है। खबरें हैं कि अन्नाद्रमुक को एनडीए में प्रवेश
मिलने वाला है। पिछले साल तक कांग्रेस की कोशिश अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन की थी।
यह कोशिश 2019 के चुनाव के मद्देनजर थी। जयललिता की बीमारी के दौरान राहुल गांधी
उनसे मिलने अस्पताल गए थे और अपने राजनीतिक सहयोगी करुणानिधि से मिलने भी नहीं गए।
आज कांग्रेस तमिलनाडु में भी असहाय है। उसकी जगह वहाँ बीजेपी प्रवेश कर रही है।
सोनिया
गांधी ‘सेक्युलर’ ताकतों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहीं हैं। जिस सांप्रदायिकता
के खिलाफ वे मोर्चा बना रहीं हैं, क्या वह वोटर की नजर में खतरा है? क्या सेक्युलरिज़्म का मतलब वोटर समझता है? बहरहाल सोनिया गांधी भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर विरोधी एकता कायम
करने में सफल हुईं। पार्टी ने जीएसटी कानून को राज्यसभा में काफी देर तक रोका, पर
अंततः उसे पास करने में मदद की।
इस
साल जुलाई से जीएसटी लागू होने के बाद से उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि इसका
समर्थन करे या विरोध। पी चिदंबरम लगातार उसका विरोध कर रहे हैं। राष्ट्रपति और
उप-राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों के चयन को लेकर पार्टी ने 17 दलों का एक गठबंधन
कायम करने में कामयाबी हासिल की है, पर इस कामयाबी के भीतर से ही गठबंधन की टूट का
पहला संकेत मिलने लगा। बिहार में नीतीश कुमार को अपने साथ रखने में कांग्रेस
कामयाब नहीं हुई।
भाजपा
को केंद्र से सन 2019 में हटाना है तो उसके पहले पार्टी को सफलता का प्रदर्शन करना
होगा। क्या वह हिमाचल और कर्नाटक में जीत सकती है? उसके पास छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में वापसी का मौका है। उसकी सबसे अच्छी
सम्भावनाएं छत्तीसगढ़ में हैं, जहाँ
पिछले विधानसभा चुनाव में वह जीतते-जीतते हार गई थी। कांग्रेस को वापसी करनी है तो
जैसे भी हो उसे 2019 के ठीक पहले के चुनावों में सफल होना होगा। संसद में उसे अपनी
छवि केवल आक्रामक ही नहीं विवेकशीलता की भी बनानी होगी। वोटर देखता है कि पार्टी हमारे लिए क्या करती है।
फिलहाल
सबसे बड़ी जरूरत है संगठन को बचाने की। काफी लड़ाई पर्सेप्शन की है। गुजरात में अहमद पटेल की हार या जीत से राज्यसभा
के शक्ति संतुलन पर कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ेगा। यह केवल राजनीति के प्रबंधकीय कौशल
की परीक्षा है। जिस खेल में कांग्रेस पटु हुआ करती थी, उसमें भी वह हार रही है। कांग्रेस
अपने 44 विधायकों को कर्नाटक के सुरक्षित रिसॉर्ट में ले जाने में तो कामयाब हो गई
है, पर चुनाव आयोग ने ‘नोटा’ वोट के बाबत 2014 की एक अधिसूचना को फिर से जारी
करके परेशानी पैदा कर दी है। कांग्रेस इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट गई, पर वहाँ से उसे
राहत नहीं मिला। यानी अब पूरे वोट मिल जाने के बाद भी ‘नोटा’ का खतरा पैदा हो गया
है।
अहमद पटेल का चुनाव
कांग्रेस की प्रतिष्ठा का चुनाव है। उनकी हार या जीत कार्यकर्ता के मनोबल को
प्रभावित करेगी। इतना साफ है कि कांग्रेस बेचैन, व्यथित और व्याकुल है। उसका
सर्वस्व दाँव पर है। चुनाव के ठीक पहले गुजरात में शंकर सिंह वाघेला का कांग्रेस
छोड़कर जाना अच्छा संकेत नहीं है। गुजरात ही नहीं कई राज्यों में नाराज कार्यकर्ता
बैठे हैं। भानुमती का पिटारा खुला तो खुलता ही चला जाएगा।
राष्ट्रीय सहारा हस्तेक्षेप में प्रकाशित
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