व्यक्ति की निजता पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को हम ज्यादा
से ज्यादा ‘आधार कार्ड’ से जोड़कर देख पाते हैं. बहुत बड़ी तादाद
ऐसे लोगों की है, जो समझ नहीं पा रहे हैं कि हमारी जिंदगी में इस फैसले का क्या असर
होगा. इस फैसले का मतलब यह है कि अब हमारे जीवन में सरकार का निरंकुश हस्तक्षेप
नहीं हो पाएगा. सिद्धांत रूप में यह अच्छी बात है, पर इसका व्यावहारिक रूप तभी
सामने आएगा, जब जनता का व्यावहारिक सशक्तिकरण होगा.
यदि दो वयस्क व्यक्ति एक-दूसरे से विवाह करने को तैयार हैं, तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है. व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा (फ्री विल) क्या है? इन दिनों ब्लू ह्वेल के नाम से एक इंटरनेट खेल चल रहा है. इसके चक्कर में फँस कर बच्चे आत्महत्या तक कर रहे हैं. क्या उन्हें स्वेच्छा से आत्महत्या करने देना चाहिए? इस अधिकार के व्यापक अर्थ का आकाश अब खुलेगा. अलबत्ता यह देखना चाहिए कि प्राइवेसी का सवाल उठा क्यों.
मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में एक छोटी बेंच ‘आधार’ मामले की सुनवाई कर रही थी. सरकारी वकीलों की तरफ़ से तर्क दिया गया कि निजता का अधिकार सशर्त है. इसपर जस्टिस खेहर ने इस मामले को नौ जजों की बेंच के सिपुर्द कर दिया. नौ जजों की बेंच इसलिए बनानी पड़ी, क्योंकि इसके पहले सन 1954 में एमपी शर्मा वाले मामले में फैसला आठ जजों की बेंच ने किया था. सन 1962 में खड़क सिंह केस में छह जजों की बेंच का फैसला था. दोनों फैसलों में कहा गया था कि प्राइवेसी भारतीय संविधान में मौलिक या गारंटीड अधिकार नहीं है.
अब छोटी बेंच में ‘आधार’ पर आगे सुनवाई होगी. अभी तमाम पहलुओं पर बातें होंगी. निजी सूचनाएं व्यावसायिक कंपनियों के हाथ में पड़ने के खतरे क्या हैं, इनपर भी विचार होगा. सरकार को अपनी रणनीति बदल कर नए सुरक्षा कदमों की जानकारी भी देनी होगी. उसे बताना होगा कि डेटा की रक्षा कैसे होगी. सरकार डेटा संरक्षण कानून लाने की योजना भी बना रही है. इस फैसले के दूरगामी परिणाम क्या होंगे, यह अभी कहना मुश्किल है.
भारतीय संविधान में भले ही व्यक्ति की निजता के अधिकार का जिक्र नहीं था, पर न्यायविदों का कहना था कि अनुच्छेद 21 व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है. व्यक्ति की निजता भी इसका ही हिस्सा है. दुनिया के 150 से ज्यादा देशों के संविधानों में इसकी व्यवस्था है. सन 1948 की संयुक्त राष्ट्र संघ की सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा के अनुच्छेद 12 में स्पष्ट रूप से कहा गया है, किसी भी व्यक्ति के जीवन, परिवार, घर या उसके पत्राचार में निरंकुश हस्तक्षेप नहीं किया जा सकेगा. प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे हस्तक्षेप के खिलाफ कानूनी संरक्षण प्राप्त होगा.
इस अधिकार को लेकर हाल के वर्षों में चेतना बढ़ी है. खासतौर से जब अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई को लेकर अलग-अलग देशों की खुफिया एजेंसियों ने सर्विलांस बढ़ाई. इंटरनेट और सायबर सर्विलांस के उपकरणों की सहायता से लोगों के जीवन में सरकारों का हस्तक्षेप बढ़ा, तो निजता के सवाल भी खड़े हुए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब सवाल होगा कि भारतीय संदर्भों में कहाँ-कहाँ इस अधिकार के उल्लंघन की संभावना है और उसकी रक्षा किस प्रकार होगी.
सवाल यह भी होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक हित और व्यक्तिगत जीवन में जब टकराव की स्थितियाँ होंगी, तब रास्ता क्या होगा? यह भी सही है कि हमारे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन संभव नहीं है, पर कुछ ऐसे अधिकार हैं, जिनपर विवेक सम्मत पाबंदियाँ हैं. मसलन अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, पर 19(2) के तहत विवेक सम्मत पाबंदियाँ भी लगाई गईं हैं. ऐसे ही सन 1971 में 25 वें संविधान संशोधन के मार्फत अनुच्छेद 31सी जोड़कर संपत्ति के अधिकार को सीमित कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक जीवन में सद्भाव बनाए रखने और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को संचालित करने जैसे मामलों में इस अधिकार पर विवेकपूर्ण-न्यायसम्मत पाबंदियाँ भी लगाई जा सकती हैं.
सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती हैं. निजता के अधिकार की जरूरत सुप्रीम कोर्ट को पचास या साठ के दशक में महसूस नहीं होती थी. आज जो जरूरत महसूस की जा रही है, उसका कारण वह तकनीकी विकास है, जिसके कारण व्यक्ति के जीवन में झाँकने के उपकरण बढ़ते जा रहे हैं.
व्यक्ति की निजता को अभी तक हम पश्चिमी देशों के जीवन के संदर्भ में ही देखते-समझते थे. ज्यादा से ज्यादा फिल्मी सितारों के निजी जीवन में ताक-झाँक के मीडिया प्रयासों के कारण हमारे यहाँ इसपर चर्चा होती थी. मोटे तौर पर इसे एलिटिस्ट या बड़े लोगों का अधिकार माना जाता था. पर हम इसे आम आदमी के अधिकार के रूप में देखना चाहते हैं. इसके लिए उसका ज्ञानवर्धन भी होना चाहिए. जिस देश में पुलिस वाला हो या गुंडा किसी के भी घर में बेधड़क घुस जाता हो, वहाँ बुनियाद तक यह अधिकार कब और कैसे पहुँचेगा, इसे देखना होगा. सिद्धांततः दूसरे अधिकारों की तरह यह भी एबसल्यूट अधिकार नहीं होगा. देखना यह भी होगा कि सरकार के हस्तक्षेप की लक्ष्मण रेखा क्या होगी वगैरह-वगैरह. inext में प्रकाशित
यह मामला केवल व्यक्तिगत जानकारियाँ हासिल करने तक सीमित
नहीं है. इसका आशय है कि व्यक्ति को खाने, पीने, पहनने, घूमने, रहने, प्रेम करने, शादी करने या
जीवन शैली अपनाने जैसी और बहुत सी बातों में अपने फैसले अपनी मर्जी से करने का
अधिकार है. यह जीवन के किन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण साबित होगा, इसका पता भविष्य
में लगेगा, इसलिए इसे भविष्य का अधिकार कहना भी गलत नहीं होगा.
यह मसला ‘आधार कार्ड’ के इस्तेमाल को लेकर शुरू हुआ था. पर सुप्रीम
कोर्ट का यह फैसला ‘आधार कार्ड’ पर नहीं है. व्यक्ति के पहचान पत्र की
जरूरत इसलिए महसूस की गई थी, क्योंकि सामाजिक कल्याण की योजनाओं का लाभ पहुँचाने
के लिए जरूरी था कि लाभ उसे मिले जो हकदार है. पिछले कई दशकों का अनुभव है कि
सरकार की ओर से दिए गए लाभ दूसरे लोग हड़प लेते हैं. इस खराबी को दूर करने के लिए ‘आधार’ का इस्तेमाल शुरू हुआ.
निजता के अधिकार की दरकार ‘आधार’ या ‘डेटा प्रोटेक्शन’ तक सीमित नहीं है. इसका अर्थ यह भी नहीं है
कि व्यक्ति को राज्य से कुछ छिपाने का अधिकार मिल गया है. हाल में केरल में लव
जेहाद को लेकर एक मामला सुप्रीम कोर्ट में आया है. राष्ट्रीय जाँच एजेंसी ऐसे कुछ
मामलों की जाँच कर रही है, जिसमें अंतर-धर्म विवाह हुए हैं. केरल पुलिस को इसके
पीछे साजिश का अंदेशा है.
यदि दो वयस्क व्यक्ति एक-दूसरे से विवाह करने को तैयार हैं, तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है. व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा (फ्री विल) क्या है? इन दिनों ब्लू ह्वेल के नाम से एक इंटरनेट खेल चल रहा है. इसके चक्कर में फँस कर बच्चे आत्महत्या तक कर रहे हैं. क्या उन्हें स्वेच्छा से आत्महत्या करने देना चाहिए? इस अधिकार के व्यापक अर्थ का आकाश अब खुलेगा. अलबत्ता यह देखना चाहिए कि प्राइवेसी का सवाल उठा क्यों.
मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में एक छोटी बेंच ‘आधार’ मामले की सुनवाई कर रही थी. सरकारी वकीलों की तरफ़ से तर्क दिया गया कि निजता का अधिकार सशर्त है. इसपर जस्टिस खेहर ने इस मामले को नौ जजों की बेंच के सिपुर्द कर दिया. नौ जजों की बेंच इसलिए बनानी पड़ी, क्योंकि इसके पहले सन 1954 में एमपी शर्मा वाले मामले में फैसला आठ जजों की बेंच ने किया था. सन 1962 में खड़क सिंह केस में छह जजों की बेंच का फैसला था. दोनों फैसलों में कहा गया था कि प्राइवेसी भारतीय संविधान में मौलिक या गारंटीड अधिकार नहीं है.
अब छोटी बेंच में ‘आधार’ पर आगे सुनवाई होगी. अभी तमाम पहलुओं पर बातें होंगी. निजी सूचनाएं व्यावसायिक कंपनियों के हाथ में पड़ने के खतरे क्या हैं, इनपर भी विचार होगा. सरकार को अपनी रणनीति बदल कर नए सुरक्षा कदमों की जानकारी भी देनी होगी. उसे बताना होगा कि डेटा की रक्षा कैसे होगी. सरकार डेटा संरक्षण कानून लाने की योजना भी बना रही है. इस फैसले के दूरगामी परिणाम क्या होंगे, यह अभी कहना मुश्किल है.
भारतीय संविधान में भले ही व्यक्ति की निजता के अधिकार का जिक्र नहीं था, पर न्यायविदों का कहना था कि अनुच्छेद 21 व्यक्ति को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है. व्यक्ति की निजता भी इसका ही हिस्सा है. दुनिया के 150 से ज्यादा देशों के संविधानों में इसकी व्यवस्था है. सन 1948 की संयुक्त राष्ट्र संघ की सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणा के अनुच्छेद 12 में स्पष्ट रूप से कहा गया है, किसी भी व्यक्ति के जीवन, परिवार, घर या उसके पत्राचार में निरंकुश हस्तक्षेप नहीं किया जा सकेगा. प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे हस्तक्षेप के खिलाफ कानूनी संरक्षण प्राप्त होगा.
इस अधिकार को लेकर हाल के वर्षों में चेतना बढ़ी है. खासतौर से जब अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई को लेकर अलग-अलग देशों की खुफिया एजेंसियों ने सर्विलांस बढ़ाई. इंटरनेट और सायबर सर्विलांस के उपकरणों की सहायता से लोगों के जीवन में सरकारों का हस्तक्षेप बढ़ा, तो निजता के सवाल भी खड़े हुए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब सवाल होगा कि भारतीय संदर्भों में कहाँ-कहाँ इस अधिकार के उल्लंघन की संभावना है और उसकी रक्षा किस प्रकार होगी.
सवाल यह भी होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक हित और व्यक्तिगत जीवन में जब टकराव की स्थितियाँ होंगी, तब रास्ता क्या होगा? यह भी सही है कि हमारे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन संभव नहीं है, पर कुछ ऐसे अधिकार हैं, जिनपर विवेक सम्मत पाबंदियाँ हैं. मसलन अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, पर 19(2) के तहत विवेक सम्मत पाबंदियाँ भी लगाई गईं हैं. ऐसे ही सन 1971 में 25 वें संविधान संशोधन के मार्फत अनुच्छेद 31सी जोड़कर संपत्ति के अधिकार को सीमित कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक जीवन में सद्भाव बनाए रखने और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों को संचालित करने जैसे मामलों में इस अधिकार पर विवेकपूर्ण-न्यायसम्मत पाबंदियाँ भी लगाई जा सकती हैं.
सामाजिक परिस्थितियाँ बदलती हैं. निजता के अधिकार की जरूरत सुप्रीम कोर्ट को पचास या साठ के दशक में महसूस नहीं होती थी. आज जो जरूरत महसूस की जा रही है, उसका कारण वह तकनीकी विकास है, जिसके कारण व्यक्ति के जीवन में झाँकने के उपकरण बढ़ते जा रहे हैं.
व्यक्ति की निजता को अभी तक हम पश्चिमी देशों के जीवन के संदर्भ में ही देखते-समझते थे. ज्यादा से ज्यादा फिल्मी सितारों के निजी जीवन में ताक-झाँक के मीडिया प्रयासों के कारण हमारे यहाँ इसपर चर्चा होती थी. मोटे तौर पर इसे एलिटिस्ट या बड़े लोगों का अधिकार माना जाता था. पर हम इसे आम आदमी के अधिकार के रूप में देखना चाहते हैं. इसके लिए उसका ज्ञानवर्धन भी होना चाहिए. जिस देश में पुलिस वाला हो या गुंडा किसी के भी घर में बेधड़क घुस जाता हो, वहाँ बुनियाद तक यह अधिकार कब और कैसे पहुँचेगा, इसे देखना होगा. सिद्धांततः दूसरे अधिकारों की तरह यह भी एबसल्यूट अधिकार नहीं होगा. देखना यह भी होगा कि सरकार के हस्तक्षेप की लक्ष्मण रेखा क्या होगी वगैरह-वगैरह. inext में प्रकाशित
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’गणेश चतुर्थी और ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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