पिछले तीन साल में नरेंद्र मोदी सरकार न केवल कांग्रेस
के सामाजिक आधार को ध्वस्त किया है, बल्कि उसके लोकप्रिय मुहावरों को भी छीन लिया
है। गांधी और पटेल को वह पहले ही अंगीकार कर चुकी है। मोदी के स्वच्छ भारत अभियान
का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है। गांधी के सत्याग्रह के तर्ज पर मोदी ने ‘स्वच्छाग्रह’ शब्द का इस्तेमाल किया। सरदार वल्लभ भाई
पटेल को वे पहले ही अपना चुके हैं। इस साल 9 अगस्त क्रांति दिवस ‘संकल्प दिवस’ के रूप में मनाने का आह्वान करके मोदी ने
कांग्रेस की एक और पहल को छीन लिया।
अगस्त क्रांति के 75 साल पूरे होने पर बीजेपी सरकार ने
जिस स्तर का आयोजन किया, उसकी उम्मीद कांग्रेस पार्टी ने नहीं की होगी। मोदी ने
1942 से 1947 को ही नहीं जोड़ा है, 2017 से 2022 को भी जोड़ दिया है। यानी मोदी
सरकार की योजनाएं 2019 के आगे जा रही हैं। भारत छोड़ो आंदोलन की याद में संसद में
आयोजित विशेष बैठक में मोदी ने जिन रूपकों का इस्तेमाल किया, उनसे उन्होंने
सामान्य जन-भावना को जीतने की कोशिश की। दूसरी ओर सोनिया गांधी ने उस आंदोलन को
कांग्रेस पार्टी के आंदोलन के रूप में ही रेखांकित करने की कोशिश की। साथ ही उन्होंने
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी वार किया। इससे उन्हें वांछित लाभ मिला या नहीं,
कहना मुश्किल है। बेहतर होता कि वे ऐसे मौके को राष्ट्रीय पर्व तक सीमित रहने
देतीं।
अगस्त क्रांति आंदोलन का आह्वान कांग्रेस ने किया जरूर
था, पर वह आंदोलन बहुत जल्द जनता के हाथों में चला गया था। कांग्रेस के ज्यादातर
नेता जेलों में बंद थे। छोटे-छोटे शहरों और कस्बों में जिन लोगों ने बगावत की मशाल
उठाई वे कांग्रेस के कार्यकर्ता नहीं थे। वस्तुतः उस आंदोलन ने गांधी की अहिंसा का
रास्ता भी छोड़ दिया था। बेशक कांग्रेस को उसके श्रेय से वंचित नहीं किया जा सकता,
पर उसमें जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे लोग भी थे, जो स्वतंत्र भारत
में कांग्रेस-विरोधी राजनीति में सक्रिय रहे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा और अगस्त क्रांति
को लेकर उसकी राय को लेकर कई प्रकार की धारणाएं हैं। पर इसमें दो राय नहीं कि संघ
से जुड़े लोग भी देशभक्त थे। सामान्य नागरिक को तय करने दें कि मोदी या उनकी
पार्टी देशभक्त है या नहीं। सन 2007 में सोनिया गांधी के ‘मौत का सौदागर’ बयान का विपरीत प्रभाव ही पड़ा था। जिन
समारोहों में राष्ट्रीय सर्वानुमति की जरूरत हो, वहाँ ऐसी बातें नहीं की जाएं तो
बेहतर है। अपने बयान के गुण-दोष को सोनिया गांधी बेहतर समझेंगी, पर जो संकट उनके
सामने है, वह ऐसे बयानों से खत्म होने से रहा।
नरेंद्र मोदी ने संसद में कहा कि 1942 का आंदोलन आजादी का
अंतिम सबसे बड़ा जन संघर्ष था। इस आंदोलन से देश के हर कोने का आदमी जुड़ गया था। यही
वह दौर था जब अंतिम रूप से भारत छोड़ो की बात सामने आई। गांधी ने जब 'करेंगे या मरेंगे' का नारा दिया तो ये शब्द अपने आप देश के
लिए अजूबा थे। मोदी ने रामवृक्ष बेनीपुरी को उधृत करते हुए कहा, हर व्यक्ति नेता
बन गया. हर चौराहे और कोने में 'करो या मरो' का नारा गूंजने लगा। ब्रिटिश उपनिवेशवाद
भारत से शुरू हुआ, और उसका अंत
भी यहीं हुआ, क्योंकि जब हम एक मन
से संकल्प करके लक्ष्य में जुट जाते हैं, तो देश को
गुलामी की जंजीरों से बाहर निकाल सकते हैं।
मोदी और सोनिया दोनों ने आज की चुनौतियों की और नागरिकों
का ध्यान खींचा। मोदी ने सामान्य नागरिक को अपनी जिम्मेदारियों के प्रति चेताया
है। उन्होंने कहा, यदि कोई रेड लाइट क्रॉस करके निकलता है तो उसको लगता ही नहीं है
कि वह गलत कर रहा है। जबकि सोनिया गांधी ने कहा, मुझे लगता है कि देशवासियों के मन में कई
आशंकाएं भी हैं कि अंधकार की शक्तियां फिर फैल रही हैं। जहां आजादी का माहौल था, वहां भय फैल रहा है। कई बार कानून के राज पर
भी गैरकानूनी शक्तियां हावी दिखाई देती हैं। सोनिया का इशारा सीधे-सीधे बीजेपी से
है। देखना होगा कि सामान्य नागरिक उनकी बात से सहमत है या नहीं।
अब एक नजर बाहर के हालात पर डालें। अगस्त आते-आते भारतीय
जनता पार्टी का देश की ज्यादातर सांविधानिक संस्थाओं पर प्रभुत्व स्थापित हो चुका
है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भी अब बीजेपी के हैं। यह स्थिति इससे पहले कभी
नहीं थी। राज्यसभा में भी पार्टी की स्थिति बेहतर हो चुकी है। संभावना इस बात की
है कि अगले साल पार्टी की ‘राज्यसभा-बाधा’ भी दूर हो जाएगी। उधर विपक्षी एकता की
कोशिश भँवर में फँसी है। नीतीश कुमार के बाद शरद पवार का रुख भी बदला हुआ है। यह
राजनीतिक दृष्टि है, बदल भी सकती है। सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी के इस अश्वमेध
यज्ञ को कोई रोक पाएगा? क्या कांग्रेस
पार्टी सामान्य जनता के मन को पढ़ पाने में सफल है?
कुछ समय पहले उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट किया था, अब 2019
की नहीं 2024 की तैयारी कीजिए। क्या इसका मतलब यह मान लिया जाए कि बीजेपी के सामने
2019 की लड़ाई बहुत आसान है? ऐसा कहना भी
जल्दबाजी होगी। पार्टी के सामने अभी हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान,
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनाव हैं। कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और
राजस्थान में परिणाम बीजेपी के खिलाफ भी जा सकते हैं। इन जगहों पर बीजेपी की विजय
होने के बाद ही 2019 की राह निर्बाध मानी जा सकेगी।
राजनीतिक हालात से ज्यादा महत्वपूर्ण आर्थिक हालात
होंगे। इस हफ्ते शुक्रवार को पेश मध्यावधि आर्थिक सर्वेक्षण ने अर्थ-व्यवस्था पर
पड़ रहे दबाव की और इशारा किया है। इसके अनुसार नोटबंदी और जीएसटी के तो सकारात्मक
नतीजे दिख रहे हैं, लेकिन कृषि ऋण
माफी और वेतन आयोग आदि के कारण सरकारी खजाने पर बोझ पड़ रहा है। फरवरी में समीक्षा
का पहला भाग पेश करते वक्त आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम जितने निश्चिंत नजर
आ रहे थे, इस बार उतनी
निश्चिंतता नहीं है। समीक्षा में खासतौर से किसानों की कर्ज माफी पर चिंता जताते
हुए कहा गया कि इससे कुल मांग में 1.1 लाख करोड़ रुपये यानी जीडीपी के 0.7 फीसदी
तक कमी होगी। इससे पहले से सुस्त अर्थव्यवस्था पर तगड़ी चोट होगी। इससे नए
रोजगारों पर असर पड़ेगा। सरकार को ऐसे लोक-लुभावन कार्यों से बचना चाहिए।
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