Tuesday, June 20, 2017

रामनाथ कोविंद का चयन बीजेपी का सोचा-समझा पलटवार है

कोविंद को लेकर यह बेकार की बहस है कि वह प्रतिभा पाटिल जैसे ‘अनजाने और अप्रत्याशित’ प्रत्याशी हैंPramod Joshi | Published On: Jun 20, 2017 09:21 AM IST | Updated On: Jun 20, 2017 09:21 AM IST

रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी घोषित करने के बाद से एक निरर्थक बहस इस बात को लेकर शुरू हो गई है कि वे क्या प्रतिभा पाटिल जैसे ‘अनजाने और अप्रत्याशित’ प्रत्याशी हैं? उनकी काबिलियत क्या है और इसके पीछे की राजनीति क्या है वगैरह.

भारतीय जनता पार्टी ने अपने प्रत्याशी का नाम अपने दूरगामी राजनीतिक उद्देश्यों के विचार से ही तय किया है, पर इसमें गलत क्या है? राष्ट्रपति का पद अपेक्षाकृत सजावटी है और उसकी सक्रिय राजनीति में कोई भूमिका नहीं है, पर राजेंद्र प्रसाद से लेकर प्रणब मुखर्जी तक सत्तारूढ़ दल के प्रत्याशी राजनीतिक कारणों से ही चुने गए.



सन 1969 का चुनाव तो कांग्रेस पार्टी की आंतरिक राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसके बाद कांग्रेस एक नई पार्टी कांग्रेस (इंदिरा) के रूप में सामने आई और आज तक वह 1969 में जन्मी कांग्रेस है, भले ही उसने प्रकारांतर में 1885 की कांग्रेसी विरासत को समाहित करने का दावा किया. इस दावे को कौन चुनौती दे सकता है?


प्रतिभा पाटिल से तुलना जायज?

बहरहाल कुछ लोगों को रामनाथ कोविंद का नाम सुनने के फौरन बाद यह ‘प्रतिभा पाटिल क्षण (मोमेंट)’ लगा. न्यूजरूम गूगल पर चटके पर चटका लगाने लगे, जो उनके ज्ञान का अंतिम देवता है. विशेषज्ञों ने रात की सभा में शोर मचाने की तैयारी में अपने सहायकों को रिसर्च करने के निर्देश जारी कर दिए थे. पर वे ज्यादा कुछ निकाल नहीं पाए.

किसी व्यक्ति की पात्रता, ज्ञान और गुण का हमारा मापदंड क्या है? मीडिया में प्रसिद्धि, भद्रलोक (इलीट) के बीच उसका विचरण और कुर्सियां जिन पर उसे बैठने का मौका मिला हो. इस लिहाज से भी रामनाथ कोविंद का सीवी प्रभावहीन नहीं लगता. हां, उन्हें ‘लो-की, लो-प्रोफाइल’ माना जा सकता है, जो प्रतिभा पाटिल थीं, पर प्रतिभा पाटिल का भी यह अवगुण नहीं था.


प्रतिभा पाटिल की योग्यता या (अयोग्यता) का सबसे बड़ा प्रमाणपत्र उनकी ‘व्यक्तिगत वफादारी’ थी. उन्हें सोनिया गांधी ने प्रत्याशी बनाया था. वे चाहतीं तो एपीजे अब्दुल कलाम का नाम दूसरी बार राष्ट्रपति बनने वालों की सूची में दर्ज हो सकता था. सन 2002 के चुनाव में उन्होंने उनका समर्थन किया था. सन 2007 में सर्वानुमति की एक नई परंपरा स्थापित हो सकती थी, जो नहीं हुई.


बेशक उस चुनाव ने देश को पहली महिला राष्ट्रपति दी, पर उनसे बेहतर महिला प्रत्याशी भी उस वक्त उपलब्ध थीं. एपीजे ऐसे राष्ट्रपति थे, जो कार्य-मुक्त होने के बाद सिर्फ अपने सामान का एक बक्सा साथ में ले गए थे, जबकि प्रतिभा पाटिल पर राष्ट्रपति भवन के तोशाखाने से कुछ उपहार साथ ले जाने का आरोप लगा था.


संघ से जुड़े होना अयोग्यता नहीं

मीडिया पर रात की सभाओं में रामनाथ कोविंद पर एक और आरोप यह था कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता हैं. राष्ट्रपति देश के संविधान का रक्षक है और तीनों सेनाओं का कमांडर. यह राजनीतिक तर्क है. आरएसएस गैरकानूनी संगठन नहीं है. वह भारतीय संविधान को स्वीकार करता है, इसलिए संगठन के रूप में वह धार्मिक स्वतंत्रता, समानता और धर्मनिरपेक्षता को भी स्वीकार करता है.

संघ से जुड़ा होना किसी पद के लिए अयोग्यता नहीं हो सकती. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने और भैरों सिंह शेखावत उप-राष्ट्रपति. रामनाथ कोविंद ने कई तरह के सांविधानिक पदों पर काम किया है और उनपर कोई आरोप अभी तक नहीं है. बिहार के राज्यपाल के रूप में उनकी प्रशंसा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने की है. इससे बेहतर प्रमाणपत्र क्या हो सकता है?


बेशक वे ‘अनजाने और अप्रत्याशित’ प्रत्याशी हैं. ‘लो-की और लो-प्रोफाइल’ भी, पर ये अवगुण नहीं हैं. राष्ट्रपति बन जाने के बाद उनकी पहचान बढ़ जाएगी. उम्मीद है कि वे अपने पद का निर्वहन अच्छी तरह करेंगे.


अभी तक उनके बारे में जो जानकारी है, उसके अनुसार वे विवादास्पद नहीं हैं, उनकी छवि साफ-सुथरी है. उनके राजनीतिक विचार स्पष्ट हैं, जिनके कारण उनकी प्रतिस्पर्धी राजनीति को आपत्ति जरूर होगी, पर राष्ट्रपति पद का चुनाव राजनीति से परे नहीं है.


अगले चुनाव की तैयारी है यह चयन

सन 1950 में नेहरू जी डॉ राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति नहीं बनाना चाहते थे, सरदार वल्लभ भाई पटेल चाहते थे. हालात ऐसे बने कि नेहरू को उनके नाम का प्रस्ताव करना पड़ा. कांग्रेस पार्टी के पदाधिकारी नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति बनाना चाहती थी, इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं. हालात ऐसे बने कि वीवी गिरि राष्ट्रपति बन गए. प्रणब मुखर्जी के पक्ष में भी हालात इसी तरह बने.

भारतीय जनता पार्टी ने अपना प्रत्याशी देश के राजनीतिक हालात को देखते हुए चुना है. इस फैसले के कारण विपक्षी एकता में दरार पड़ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा. यह एक राजनीतिक फैसला है. ‘प्रतीकों और पनीले रूपकों’ से सजी-धजी राजनीति में यह अप्रत्याशित लग सकता है, आश्चर्यजनक नहीं.

सच यह है कि बीजेपी ने विपक्ष के अंतर्विरोधों और विसंगतियों का बेहतर अध्ययन कर लिया है. इन ‘महा-एकताओं’ का तोड़ इस पनीली-राजनीति के भीतर ही छिपा बैठा है. इतना समझ लीजिए कि यह 2019 के चुनाव अभियान का प्रस्थान बिंदु है.

फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित

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