Saturday, June 24, 2017

प्रणब मुखर्जी: विकट दौर के सहज राष्ट्रपति


भारतीय संविधान के अनुसार देश का राष्ट्रपति भारत सरकार का प्रशासनिक प्रमुख है, पर व्यवहार में वह अपने ज्यादातर काम सत्तारूढ़ सरकार की सलाह पर करता है। बहुत कम काम ऐसे होते हैं, जिन्हें उनका व्यक्तिगत निर्णय कहा जाए। हर साल संसद के बजट सत्र की शुरुआत में उनका भाषण एक तरह से सत्तारूढ़ दल की सरकार लिखती है। सरकारी काम-काज के बाहर की सभाओं, गोष्ठियों में कई बार राष्ट्रपति अपने निजी विचार व्यक्त करते हैं, जिन्हें बड़े गौर से सुना जाता है। ऐसी टिप्पणियों से, अध्यादेशों को पुनर्विचार के लिए सरकार के पास वापस भेजने और कैदियों की सज़ा-माफी और कुछ नियुक्तियों के फैसलों से ही राष्ट्रपतियों के व्यक्तित्व के फर्क का पता लगता है।

डॉ राजेन्द्र प्रसाद, डॉ राधाकृष्णन, डॉ ज़ाकिर हुसेन, ज्ञानी जैल सिंह, केआर नारायण, एपीजे अब्दुल कलाम, प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी तक सभी राष्ट्रपतियों की कुछ न कुछ खास बातें याद की जाती हैं, खासतौर से तब जब वे विदा होते हैं। 24 जुलाई को प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल के पाँच साल पूरे हो रहे हैं। ऐसे में यह समझना बेहतर होगा कि ऐसी कौन सी बातें हैं, जिनके लिए उन्हें विशेष रूप से याद किया जाए।

परिपक्व राजपुरुष

जैसा कि अंदेशा था, सन 2014 में त्रिशंकु संसद होती तब शायद प्रणब मुखर्जी की समझदारी की परीक्षा होती। उन्होंने इसके लिए पहले से विशेषज्ञों से राय भी ले रखी थी। पर ऐसा मौका आया नहीं। पर इतना जरूर है कि पिछले तीन साल में उन्होंने कोई ऐसा फैसला नहीं किया, जिससे उन्हें विवादास्पद कहा जाए। जब भी उन्हें मौका मिला उन्होंने अपनी राय गोष्ठियों और सभाओं में जाहिर कीं। यह एक परिपक्व राजपुरुष (स्टेट्समैन) का गुण है।


यह उनका अनुभव ही था कि जब वे इजरायल की यात्रा पर गए तो उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि हमें इसके साथ फलस्तीन को भी जोड़ना चाहिए, क्योंकि हमारी विदेश नीति दोनों के साथ रिश्ते बनाकर रखने की है। ऐसी बारीक बातों को समझने के लिए हमें उनके व्यवहार की बारीकी से जाँच करनी होगी। जनवरी 2015 में जब भूमि अधिग्रहण संशोधन को लेकर अध्यादेश जारी किया तो प्रणब मुखर्जी ने उसपर सरकार से स्पष्टीकरण माँगा। मामले को स्पष्ट करने में सरकार के तीन मंत्री लगे, तब जाकर अध्यादेश जारी हुआ।

पिछले साल दिसम्बर में जब शत्रु सम्पत्ति (संशोधन) अध्यादेश पाँचवीं बार जारी हो रहा था तब भी उन्होंने एक सख्त नोट लिखा कि यह मामला देश के लिए महत्वपूर्ण है, इसलिए इसे स्वीकार कर ले रहे हैं, पर इसे परम्परा नहीं बनाना चाहिए। इसके बाद संसद ने उस विधेयक को पास किया और बार-बार अध्यादेश के बवाल से मुक्ति मिली।

विसंगतियों से मेल बैठाना

विसंगतियों से मेल बैठाना व्यवहारिक राजनीति है। प्रणब मुखर्जी को इस बात का श्रेय मिलना ही चाहिए कि वे राजनीतिक दृष्टि में सबसे विकट वक्त के राष्ट्रपति बने। वे बुनियादी तौर पर कांग्रेसी हैं। पर कांग्रेस की कठोरतम प्रतिस्पर्धी बीजेपी की मोदी सरकार के साथ उन्होंने काम किया और टकराव की नौबत नहीं आने दी। कुछ लोग मानते हैं कि उन्होंने अपने रिश्ते नहीं बिगाड़े। यह छोटी समझ है। सच यह है कि उन्हें जब भी मौका मिला सरकार को फटकारा। जब दादरी की घटना हुई, प्रणब मुखर्जी बोले। उन्होंने असहिष्णुता को लेकर केंद्र की आलोचना की। पर विपक्ष की अविवेकपूर्ण बातों को भी स्वीकार नहीं किया।

जब पुरस्कारों को वापस करने की होड़ लगी तो उन्होंने कहा, राष्ट्रीय पुरस्कारों का सम्मान किया जाना चाहिए और उन्हें संरक्षण देना चाहिए। इसी तरह संसद में शोर मचाने वाले विपक्ष की भी खबर ली। उन्होंने कहा, लोकतंत्र की हमारी संस्थाएं दबाव में हैं। संसद परिचर्चा के बजाय टकराव के अखाड़े में बदल चुकी है।

सामंती परम्परा की समाप्ति

प्रणब मुखर्जी ने 25 जुलाई 2012 को काम संभालने के बाद अक्तूबर में एक निर्देश दिया कि औपनिवेशिक काल के ‘हिज एक्सेलेंसी’ या महामहिम जैसे आदर-सूचक शब्दों को प्रोटोकॉल से हटाया जाए। नए प्रोटोकॉल के अनुसार ‘राष्ट्रपति महोदय’ शब्द का इस्तेमाल किया जाएगा। राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए ‘माननीय’ शब्द का इस्तेमाल किया जाएगा। नाम से पहले ‘श्री’ या ‘श्रीमती’ लगाने की भारतीय परंपरा को अपनाया जाना चाहिए। ‘उन्होंने अधिकारियों को यह निर्देश भी दिया कि उनके लिए सरकारी समारोहों का आयोजन यथासंभव राष्ट्रपति भवन परिसर में ही किया जाए ताकि पुलिस तथा अन्य एजेंसियों पर कम बोझ पड़े और जनता को भी असुविधा नहीं हो।

प्रणब मुखर्जी कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेता रहे हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया जा रहा था, तब उन्होंने अपने दावे को दर्ज कराया और एक छोटे से दौर में पार्टी छोड़कर अलग भी हुए। कहा जा सकता है कि जब वे राष्ट्रपति बनाए गए तब कांग्रेस में उनके स्तर का दूसरा कोई राजनीतिक नेता नहीं था। उनके कार्यकाल के दो साल भी नहीं बीते थे कि केंद्र में सरकार बदल गई। मोदी सरकार के आते वक्त अंदेशा था कि राष्ट्रपति भवन और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच रिश्ते बिगड़ भी सकते हैं। ऐसा हुआ नहीं।

संविधान का पालन किया

कुछ लोग मानते हैं कि प्रणब मुखर्जी ने जोखिम नहीं उठाया और सरकार से सहयोग करते हुए काम किया। वे मानते हैं कि पिछले साल उत्तराखंड में राज्यपाल की संस्तुति की परीक्षा किए बगैर राष्ट्रपति शासन लागू करना ठीक नहीं था। इसके पहले अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल की भूमिका पर सवाल किए बगैर राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश को बार-बार जारी किया गया। मोदी सरकार के आते ही राज्यपालों को हटाने और नियुक्त करने की प्रक्रिया चली। इसमें प्रणब मुखर्जी ने वही किया जो सरकार ने कहा। अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया।

वस्तुतः यह राजनीतिक आरोप है। राष्ट्रपति की भूमिका टकराव की नहीं है। सन 1951 में हिन्दू कोड बिल को लेकर डॉ राजेन्द्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू के बीच पत्राचार हुआ था। वह पहला मौका था, जब राष्ट्रपति के अधिकारों को लेकर सवाल उठाया गया था। अंततः सहमति इस बात पर हुई कि राष्ट्रपति और सरकार के बीच अंतर दिखाई नहीं पड़ना चाहिए। प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के बीच सन 1985 में इतनी कटुता पैदा हो गई थी कि ज्ञानी जी सरकार को बर्खास्त करने पर विचार करने लगे थे। पर यह भारतीय संविधान की मंशा नहीं है।

अध्यादेशों पर पुनर्विचार

अतीत में राष्ट्रपति अध्यादेश वापस करते रहे हैं। सन 2002 में जब चुनाव आयोग ने हलफनामे की व्यवस्था शुरू की तो सरकार ने उसे वापस लेने के लिए अगस्त 2002 में अध्यादेश जारी करने की पेशकश की। एपीजे अब्दुल कलाम तभी राष्ट्रपति बने थे। उन्होंने अध्यादेश पर दुबारा विचार करने की सलाह दी। सरकार नहीं मानी। अंततः सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से यह व्यवस्था लागू हो पाई।

अध्यादेश की व्यवस्था को लेकर देश में लम्बे अरसे से बहस चली आ रही है। जवाहर लाल नेहरू ने कुछ नहीं तो दो सौ के आसपास बार इसका इस्तेमाल किया। तकरीबन इतना ही इंदिरा गांधी ने। अनुच्छेद 123 और 213 में राष्ट्रपति और राज्यपाल के ‘समाधान’ या संतोष शब्द को लेकर भी सवाल उठाए गए हैं। यह मंत्रिपरिषद या सरकार की संतुष्टि है। अलबत्ता राष्ट्रपति चाहें तो स्पष्टीकरण मांग सकते हैं जैसा कि पिछले साल भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर प्रणब मुखर्जी ने किया।

सन 2013 में भी उन्होंने दोष-सिद्ध जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता को बरकरार रखने वाले अध्यादेश का औचित्य पूछा था। उस अध्यादेश को लेकर सरकार की अच्छी खासी फज़ीहत हुई। राहुल गांधी ने उसे फाड़कर फेंक देने की सलाह दी और आखिरकार अध्यादेश को वापस लिया गया।  
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित










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