Sunday, August 7, 2022

ताइवान-प्रसंग और भारत


अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की स्पीकर नैंसी पेलोसी का ताइवान दौरा सकुशल संपन्न हो गया है, पर उससे कुछ सवाल पैदा हुए हैं। ये सवाल अमेरिका और चीन के बिगड़ते रिश्तों से जुड़े हैं। वहीं भारतीय विदेश-नीति से जुड़े कुछ सवालों ने भी इस दौरान जन्म लिया है। भारत की ओर से इस विषय पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। विदेशमंत्री एस जयशंकर की इस दौरान अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन से भी मुलाक़ात हुई है, पर चीन को लेकर कोई बयान नहीं आया है। बहरहाल ज्यादा बड़ा सवाल है कि अब क्या होगा? यूक्रेन पर रूसी हमले के कारण वैश्विक-संकट पैदा हो गया है, अब ताइवान में भी तो कहीं वैसा ही संकट पैदा नहीं होगा? हालांकि चीन काफी आग-बबूला है, पर वह सैनिक-कार्रवाई करने की स्थिति में नहीं है। ऐसी किसी भी कार्रवाई का मतलब है अमेरिका को सीधे ललकारना। दूसरे ताइवान पर चीन इतना ज्यादा आश्रित है कि लड़ाई से उसकी अर्थव्यवस्था भी संकट में आ जाएगी।

चीनी धमकी

नैंसी पेलोसी के ताइपेह पहुंचने के कुछ ही देर बाद चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा, ‘जो लोग आग से खेल रहे हैं, वे भस्म हो जाएंगे। इसे हम अपनी 'संप्रभुता का गंभीर उल्लंघन' और 'वन चायना पॉलिसी' को चुनौती के रूप में देखते हैं। चीन की यह बयानबाज़ी पेलोसी के आगमन के पहले ही शुरू हो गई थी।  हालांकि नैंसी पेलोसी 24 घंटे से भी कम समय तक वहाँ रहीं, पर इस छोटी सी प्रतीक-यात्रा ने माहौल बिगाड़ दिया है। जनवरी 2019 में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने कहा था कि ताइवान शांतिपूर्ण तरीके से चीन में वापस आने को तैयार नहीं हुआ, तो हम सैनिक-कार्रवाई भी कर सकते हैं। सवाल है कि चीन ने हमला किया, तो क्या होगा? मई में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा था कि ताइवान की रक्षा के लिए हम 'प्रतिबद्ध' हैं। पर इसे स्पष्ट कभी नहीं किया। प्रतिबद्धता का मतलब क्या है? क्या वैसा ही जैसा अफगानिस्तान में हुआ और अब यूक्रेन में हो रहा है?

यात्रा क्यों?

अमेरिका में पूछा जा रहा है कि ऐसे मौके पर जब रूस के यूक्रेन अभियान के कारण दुनिया में परेशानी की लहर है, चीन को छेड़ने की जरूरत क्या थी? यह भी कहा जा रहा है कि चीन की मुश्कें कसना जरूरी है। नैंसी पेलोसी के पहले 1997 में एक और स्पीकर न्यूट जिंजरिच ने भी ताइवान की यात्रा की थी। इसमें नई बात क्या है? चीन में भी बहस चल रही है। शी चिनफिंग पार्टी को फिर से वापस कट्टर कम्युनिज्म की ओर ले जाना चाहते हैं, वहीं खुलेपन की प्रवृत्तियाँ भी अंगड़ाई ले रही हैं। इस साल शी चिनफिंग के कार्यकाल को तीसरी बार बढ़ाया जा रहा है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ हैं। ऐसे में चोट करना सही है। बहरहाल अमेरिका ने जोखिम मोल ले ही लिया है, तो देखें कि अब होता क्या है।

Tuesday, August 2, 2022

कौन था अल-ज़वाहिरी, क्या चाहता था?

ओसामा बिन लादेन के साथ अल-ज़वाहिरी की पुरानी तस्वीर

अमेरिका ने अल-क़ायदा के नेता अयमान अल-ज़वाहिरी को अफ़ग़ानिस्तान में एक ड्रोन हमले में मार दिया है। ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद से अल-ज़वाहिरी ही इस संगठन को चला रहा था और उसकी मौत के बाद यह भी स्पष्ट है कि उसे अफगानिस्तान में शरण मिली हुई थी। ज़ाहिर है कि अल-क़ायदा का अस्तित्व बना हुआ है, और वह अपनी गतिविधियों को चला भी रहा है। भारत की दृष्टि से अल-ज़वाहिरी की मौत महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसके दो वीडियो ऐसे हैं, जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि उसके संगठन की भारत में भले ही बड़ी उपस्थिति नहीं हो, पर उसकी दिलचस्पी भारत में थी।  

भारत पर निगाहें

एक वीडियो में उसने भारत में अल-कायदा की शाखा स्थापित करने की घोषणा की थी और दूसरे में कर्नाटक के हिजाब विवाद पर अपनी टिप्पणी की थी। यों 2001 के बाद भारत को लेकर उनकी टिप्पणियों की चर्चा कई बार हुई। उसने अफगानिस्तान, कश्मीर, बोस्निया-हर्जगोविना और चेचन्या में इस्लामिक-युद्ध का कई बार उल्लेख किया। यों बिन लादेन ने भी 1996 में ताजिकिस्तान, बर्मा, कश्मीर, असम, फिलीपाइंस, ओगाडेन, सोमालिया, इरीट्रिया और बोस्निया-हर्जगोविना में मुसलमानों की कथित हत्याओं को लेकर अपना गुस्सा व्यक्त किया था।  

इस बात को लेकर कयास हैं कि तालिबान को क्या पता था कि अल-ज़वाहिरी उनके देश में है? अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि काबुल के जिस घर में अल-ज़वाहिरी को ड्रोन स्ट्राइक में मारा गया, उसमें बाद में तालिबान के अधिकारी गए और यह छिपाने की कोशिश की कि यहाँ कोई मौजूद नहीं था।

सीआईए का ऑपरेशन

बीबीसी के अनुसार रविवार को अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी यानी सीआईए ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में ऑपरेशन चलाया, जिसमें अल-ज़वाहिरी मारा गया। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है,"ज़वाहिरी के हाथ अमेरिकी नागरिकों के ख़िलाफ़ हत्या और हिंसा के ख़ून से रंगे थे। अब लोगों को इंसाफ़ मिल गया है और यह आतंकवादी नेता अब जीवित नहीं है।"

राष्ट्रपति बाइडेन ने ज़वाहिरी को साल 2000 में अदन में अमेरिकी जंगी पोत यूएसस कोल पर आत्मघाती हमले के लिए भी ज़िम्मेदार बताया। इसमें 17 नौसैनिकों की मौत हुई थी। उन्होंने कहा, ''यह मायने नहीं रखता कि उसके सफाए में इतना लंबा समय लगा। यह भी मायने नहीं रखता कि कोई कहाँ छिपा है। अगर आप हमारे नागरिकों के लिए ख़तरा हैं तो अमेरिका छोड़ेगा नहीं। हम अपने राष्ट्र और नागरिकों की सुरक्षा में कभी कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।''

Sunday, July 31, 2022

‘रेवड़ीवाद’ और ‘कल्याणवाद’ का फर्क


देश की राजनीति में अचानक 'रेवड़ी-संस्कृति' के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। इस विषय को लेकर राजनीतिक बहस के समांतर देश के उच्चतम न्यायालय में भी सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मुद्दा बताया है और सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस मामले की अगली सुनवाई अब 3 अगस्त को होगी। यह मामला केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि इससे राजनीति में 'मुफ्त की रेवड़ियाँ' बाँटने की संस्कृति जन्म ले रही है। बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे राज-व्यवस्था के चरमराने का खतरा पैदा हो गया है।

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट

सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों से इतर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में इस खतरे के प्रति आगाह किया गया है। आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रहीं हैं, जिससे वे कर्ज के जाल में फँसती जा रही हैं। 'स्टेट फाइनेंसेस: अ रिस्क एनालिसिसशीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल कर्ज के दलदल में धँसते जा रहे हैं। पर मीडिया मे चर्चा सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई या रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के आधार पर नहीं हुई है, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी के बाद शुरू हुई है। उन्होंने गत 16 जुलाई को बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे  का उद्घाटन करते हुए 'रेवड़ी कल्चर' का जिक्र किया और जनता को सलाह दी कि इस मुफ्तखोरी का राजनीति से बचें। हालांकि प्रधानमंत्री ने किसी का नाम नहीं लिया, लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस टिप्पणी को अपने ऊपर ले लिया और उसी शाम जवाब दिया कि उनका ‘दिल्ली-मॉडल’ वोट जुटाने के लिए मुफ्त पेशकश करने से दूर कमजोर आय वाले लोगों को निशुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी सुनिश्चित करके ‘देश की अर्थव्यवस्था की बुनियाद’ को मजबूत बनाने की कोशिश कर रहा है।

कौन सा मॉडल?

प्रधानमंत्री की टिप्पणी और दिल्ली के मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया ने देश का ध्यान लोकलुभावनवाद और सामाजिक-कल्याणवाद की ओर खींचा है। इसमें दो राय नहीं कि सामाजिक-कल्याणवाद के मॉडल ने बीजेपी को भी चुनावी सफलताएं दिलाने में मदद की है। अलबत्ता इसमें एक बुनियादी फर्क है। बीजेपी ने मुफ्त बिजली-पानी, साइकिल, लैपटॉप, मिक्सर ग्राइंडर, मंगलसूत्र, टीवी, गाय, बकरी की पेशकश करके मध्यवर्ग को आकर्षित करने का कार्यक्रम नहीं चलाया है। बल्कि अपेक्षाकृत गरीब तबकों पर ध्यान केंद्रित किया है। उसका लक्ष्य सार्वजनिक सफाई, शौचालय, ग्रामीण सड़कें, पक्के मकान, नल से जल, घरेलू गैस, घरेलू बिजली, बैंकिंग, आवास, स्वास्थ्य बीमा और मातृत्व सुरक्षा रहा है। दूसरे इनमें से कोई भी चीज पूरी तरह मुफ्त नहीं है, जैसे कि घरेलू-गैस। यूपीए का मनरेगा, खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम और भूमि-सुधार कानून भी कल्याणकारी था। मोदी और केजरीवाल के बयानों के पीछे की राजनीति को भी देखना चाहिए। प्रधानमंत्री ने अपनी बात गुजरात के चुनाव के संदर्भ में भी कही होगी, जहाँ आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की कोशिश कर रही है।

मुफ्त अनाज

आप पूछ सकते हैं कि पिछले दो वर्षों में देश के करीब 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज का जो कार्यक्रम चलाया गया है, क्या वह मुफ्त की रेवड़ी नहीं है? बेशक वह मुफ्त है, पर उसे भी ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहना उचित नहीं होगा, बल्कि मुसीबत में फँसे लोगों के लिए यह योजना सबसे बड़ी मददगार साबित हुई है। यह राज्य की जिम्मेदारी है। बेशक इसकी भारी कीमत देश ने दी है। यों भी सरकारी कार्यक्रमों पर भारी सब्सिडी दी जाती है। मुफ्त अनाज के अलावा खाद्य-सुरक्षा कार्यक्रम के तहत गरीबों को सस्ता अनाज भी दिया जाता है। देश में इस बात पर आम सहमति भी है। बल्कि माँग यह की जा रही है कि शहरी गरीबों के लिए भी कल्याणकारी कार्यक्रम चलाए जाएं। ऐसे कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र के सन 2030 तक संधारणीय लक्ष्यों की प्राप्ति के अनुरूप भी हैं। दुनिया से गरीबी मिटाने के जो सुझाव अर्थशास्त्रियों ने दिए हैं, उनसे ये योजनाएं मेल खाती हैं। इसे सार्वजनिक-संसाधनों का पुनर्वितरण माना जाता है। यह भी सच है कि सब्सिडी बेशक रेवड़ी नहीं हैं लेकिन चुनाव नतीजों पर उनका असर तो होता ही है। इससे सरकार की प्रशासनिक सूझ-बूझ का पता भी लगता है।

Saturday, July 30, 2022

हमें क्या चाहिए, मुफ्त की रेवड़ियाँ या सामाजिक-कल्याण?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में एक सभा में कहा कि देश में लोक-लुभावन राजनीति के नाम पर मुफ्त की रेवड़ियाँ बाँटने की संस्कृति पर रोक लगनी चाहिए। वे यह बात गुजरात के चुनाव के संदर्भ में कह रहे थे, जहाँ आम आदमी पार्टी भी प्रवेश पाने की कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री के इशारे को आम आदमी पार्टी ने अपने ऊपर हमला माना और उसके सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि मुफ्त बिजली, पानी, स्वास्थ्य-सेवाएं, विश्वस्तरीय-शिक्षा और महिलाओं का मुफ्त परिवहन राज्य की जिम्मेदारी है। उनके कार्यकर्ताओं ने गुजरात में जगह-जगह मोदी के ‘रेवड़ी संस्कृति’ बयान के विरोध में प्रदर्शन भी किया। इसके जवाब बीजेपी के गुजरात-प्रमुख सीआर पाटिल ने कहा कि ‘रेवड़ी संस्कृति’ से राज्य और भारत के सामने वैसी ही परिस्थिति पैदा हो सकती है जैसी श्रीलंका में बन गई है।

इस रेवड़ी-चर्चा ने कुछ समय के लिए जोर भी पकड़ा, पर इस विषय पर गंभीरता से विमर्श कभी नहीं हुआ। चुनाव-चर्चा से आगे यह बात कभी नहीं गई। मोदी और केजरीवाल में से कौन सही है? श्रीलंका में हालात क्या ‘रेवड़ी संस्कृति’ के कारण बिगड़े? आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में मुफ्त पानी-बिजली के सहारे बड़ी सफलता प्राप्त की। इसे उन्होंने पंजाब में भी दोहराया। और अब हिमाचल और गुजरात भी दोहराना चाहते हैं।

इस विषय को लेकर राजनीतिक बहस के समांतर देश के उच्चतम न्यायालय में भी सुनवाई चल रही है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर मुद्दा बताया है और सरकार तथा चुनाव आयोग से कहा है कि वे इसे रोकने के लिए जरूरी समाधान खोजें। इस मामले की अगली सुनवाई अब 3 अगस्त को होगी।

Sunday, July 24, 2022

इतिहास का सुनहरा अध्याय द्रौपदी मुर्मू


देश के 15वें राष्ट्रपति के रूप में श्रीमती द्रौपदी मुर्मू का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक है। जनजातीय समाज से वे देश की पहली राष्ट्रपति बनने जा रही हैं। इसके अलावा वे देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति होंगी। उनकी विजय भारतीय राजनीति और समाज की भावी दिशा की ओर इशारा कर रही है। हमारा लोकतंत्र वंचित और हाशिए के समाज को बढ़ावा दे रहा है। और यह भी कि सामाजिक रूप से पिछड़े और गरीब तबकों के बीच प्रतिभाशाली राजनेता, विचारक, अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार और खिलाड़ी मौजूद हैं, जो देश का नाम ऊँचा करेंगे। उन्हें बढ़ने का मौका दीजिए।

जबर्दस्त समर्थन

यह चुनाव राजनीतिक-स्पर्धा भी थी। जिस तरह से उन्हें विरोधी सांसदों और विधायकों के वोट मिले हैं, उससे भी देश की भावना स्पष्ट होती है। उनकी उम्मीदवारी का 44 छोटी-बड़ी पार्टियों ने समर्थन किया था, पर ज्यादा महत्वपूर्ण है, विरोधी दलों की कतार तोड़कर अनेक सांसदों और विधायकों का उनके पक्ष में मतदान करना। भारतीय राज-व्यवस्था में यह अलग किस्म की बयार है। तमाम मुश्किलों और मुसीबतों का सामना करते हुए देश के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचने वाली इस महिला को देश ने जो सम्मान दिया है, वह अतुलनीय है।

मास्टर-स्ट्रोक

राजनीतिक दृष्टि से यह चुनाव बीजेपी का मास्टर-स्ट्रोक साबित हुआ है। जैसे ही द्रौपदी मुर्मू का नाम सामने आया, पूरे देश ने उनके नाम का स्वागत किया। इसका प्रमाण और इस चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है क्रॉस वोटिंग। सबसे अधिक क्रॉस वोटिंग असम में हुई। असम में 22 और मध्य प्रदेश में 19 क्रॉस वोट पड़े। 126 सदस्यीय असम विधानसभा से उन्हें 104 वोट मिले। असम विधानसभा में एनडीए के 79 सदस्य हैं। मतदान के दौरान विधानसभा के दो सदस्य अनुपस्थित भी थे। राजनीतिक दृष्टि से यह भारतीय जनता पार्टी को मिली भारी सफलता और विरोधी दलों की रणनीति की भारी पराजय है। बावजूद इस सफलता के, उन्हें मिले एकतरफा समर्थन की यह राजनीतिक-तस्वीर पूरे देश की नहीं है। चार राज्यों में उन्हें कुल वोटों की तुलना में 12.5 फीसदी या उससे भी कम वोट मिले। सबसे कम केरल में उन्हें 0.7 फीसदी मत मिले, जहां एकमात्र विधायक ने उनके पक्ष में वोट डाला। तेलंगाना में उन्हें केवल 2.6 फीसदी वोट मिले। पंजाब में 7.3 फीसदी और दिल्ली में 12.5 फीसदी। अलबत्ता तमिलनाडु में 31 फीसदी वोट मिले, जिसकी वजह अद्रमुक का समर्थन है।

विरोधी बिखराव

यह परिणाम देश की पहली महिला आदिवासी के राष्ट्रपति बनने की कहानी तो है ही, साथ ही विरोधी दलों के आपसी मतभेद और अलगाव को भी दिखाता है। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर ने श्रीमती मुर्मू का समर्थन करके उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के गठबंधन की एकजुटता के लिए चुनौती पेश कर दी है। उधर तृणमूल कांग्रेस द्वारा उप राष्ट्रपति पद के चुनाव में मार्गरेट अल्वा का समर्थन न करने की घोषणा के बाद विरोधी दलों का यह बिखराव और ज्यादा खुलकर सामने आ गया है। प्रकारांतर से ममता बनर्जी श्रीमती मुर्मू का विरोध नहीं कर पाईं। उन्होंने कहा था,  हमें बीजेपी की उम्मीदवार के बारे में पहले सुझाव मिला होता, तो इस पर सर्वदलीय बैठक में चर्चा कर सकते थे। द्रौपदी मुर्मू संथाल-समुदाय से आती हैं। पश्चिम बंगाल के 70 फ़ीसदी आदिवासी संथाल हैं। उन्हें पश्चिम बंगाल के अपने आदिवासी मतदाता को यह समझाना होगा कि उन्होंने मुर्मू का समर्थन क्यों नहीं किया।