शिंज़ो आबे की हत्या की खबर से भारत स्तब्ध है। भारतीय जनता के मन में जो सम्मान जापान के प्रति है, वह किसी दूसरे देश के लिए नहीं है। हाल के वर्षों में शिंज़ो आबे के कारण यह सम्मान और ज्यादा बढ़ा है। ऐसे दोस्त को खोकर भारत दुखी है। इस हत्या के राजनीतिक परिणाम भी होंगे। खासतौर से सुदूर पूर्व और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चल रहे घटनाक्रम पर इसका असर जरूर होगा। अभी यह कहना मुश्किल है हत्यारे का उद्देश्य क्या रहा है, पर इसके पीछे किसी बड़ी और सम्भव है कि कोई अंतरराष्ट्रीय-साजिश हो। इन सम्भावनाओं को खारिज भी नहीं किया जा सकता है।
राष्ट्रीय-शोक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके सम्मान में
एक दिन के राष्ट्रीय-शोक की घोषणा की है। आज शनिवार 9 जुलाई को देशभर में शोक मनाया
जा रहा है। मोदी ने उनकी याद में एक विशेष लेख भी लिखा है ‘माय
फ्रेंड आबे सान या मेरे मित्र आबे सान’, जो देश के
कई राष्ट्रीय अखबारों में प्रकाशित हुआ है। प्रधानमंत्री ने अपने शोक-संदेश में लिखा
है, मैं अपने सबसे प्यारे दोस्तों में से एक शिंज़ो
आबे के दुखद निधन से स्तब्ध और दुखी हूं। वह एक महान वैश्विक राजनेता, एक शानदार नेता और एक उल्लेखनीय प्रशासक थे। उन्होंने जापान और दुनिया
को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।
नरेंद्र मोदी की तरह शिंज़ो आबे भी राष्ट्रवादी
नेता थे, जो अपने देश के सम्मान और गरिमा को स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। निश्चित
रूप से इस समय वे दुनिया के सबसे ऊँचे कद के नेताओं में से एक थे। हैरत है कि एक
पूर्व प्रधानमंत्री सड़क के किनारे जनता के बीच खड़ा था और धोखा देकर उसे गोली मार
दी गई। उस देश में जहाँ हत्याएं आम नहीं हैं। जहाँ पुलिस वालों के हाथों में भी
बंदूकें नहीं होतीं।
भारत-जापान मैत्री
जापानियों को हम भारतीय उनकी कर्म-निष्ठा के कारण
पहचानते हैं। उसे लेकर भारतीय जन-मन बेहद भावुक है। दूसरे विश्व युद्ध में बुरी
तरह ध्वस्त हो चुके देश ने जिस तरह से डेढ़ दशक के भीतर फिर से पैरों पर खड़ा होकर
दिखाया, उसे देखते हुए भी हमारा यह सम्मान है। सांस्कृतिक
दृष्टि से भी हमारा मन जापान से मिलता है। जापान में बौद्ध धर्म चीन और कोरिया के
रास्ते गया था। पर सन 723 में बौद्ध भिक्षु बोधिसेन का
जापान-प्रवास भारत-जापान रिश्तों में मील का पत्थर है। बोधिसेन आजीवन जापान में
रहे। बोधिसेन को जापान के सम्राट शोमु ने निमंत्रित किया था। वे अपने साथ संस्कृत
का ज्ञान लेकर गए थे और माना जाता है कि बौद्ध भिक्षु कोबो दाइशी ने 47 अक्षरों वाली जापानी अक्षरमाला को संस्कृत की पद्धति पर तैयार किया
था। जापान के परम्परागत संगीत पर नृत्य पर भारतीय प्रभाव है। आर्थिक प्रगति और
पश्चिमी प्रभाव के बाद भी दोनों देशों में परम्परागत मूल्य बचे हैं। दोनों देश देव
और असुर को इन्हीं नामों से पहचानते हैं।