अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के हटने के साथ ही तालिबान हिंसा के सहारे फिर से अपने पैर पसार रहा है। करीब बीस साल से सत्ता से बाहर रह चुके इस समूह की ताकत क्या है, उसे हथियार कौन दे रहा है और उसका इरादा क्या है, और अफगानिस्तान क्या एकबार फिर से गृहयुद्ध की आग में झुलसने जा रहा है? क्या अफगानिस्तान में फिर से कट्टरपंथी तालिबानी-व्यवस्था की वापसी होगी, जिसमें नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकार शून्य थे? स्त्रियों के बाहर निकलने पर रोक और उनकी पढ़ाई पर पाबंदी थी। उन्हें कोड़े मारे जाते थे। पिछले बीस वर्षों में वहाँ व्यवस्था सुधरी है। कम से कम शहरों में लड़कियाँ पढ़ने जाती हैं। काम पर भी जाती हैं। उनके पहनावे को लेकर भी पाबंदियाँ नहीं हैं।
हम
क्या करें?
ऐसे तमाम सवाल हैं,
जिनके जवाब पाने की हमें कोशिश करनी चाहिए, पर फिलहाल हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल है
कि इस घटनाक्रम से भारत के ऊपर क्या प्रभाव पड़ने वाला है और हमें करना क्या चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान
बुनियादी तौर पर पाकिस्तान की देन हैं। अस्सी के दशक में पाकिस्तानी मदरसों ने
इन्हें तैयार किया था और उसके पीछे अफगानिस्तान को पाकिस्तान का उपनिवेश बनाकर
रखने का विचार है। पिछले बीस वर्षों में अफगानिस्तान सरकार ने अपने देश को
पाकिस्तान की भारत-विरोधी गतिविधियों का केंद्र बनने से रोका है। भारत ने इस दौरान
करीब तीन अरब डॉलर की धनराशि से वहाँ के इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए प्रयास
किए हैं। भारत ने वहाँ बाँध, पुल, सड़कें, रेल लाइन, पुस्तकालय और यहाँ तक कि देश
का नया संसद भवन भी बनाकर दिया है। अफ़ग़ानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में भारत की
400 से अधिक परियोजनाएं चल रही हैं।
इन सबकी तुलना में
ईरान के चाबहार के रास्ते मध्य एशिया तक जाने वाले उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर की
आधार-शिला भी भारत ने डाली है। यह कॉरिडोर चीन और पाकिस्तान के सी-पैक के समानांतर
होगा और यह अंततः हमें यूरोप से सीधा जोड़ेगा। चूंकि पाकिस्तान ने सड़क के रास्ते
अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों से भारत को जोड़ने की योजनाओं में अड़ंगा डाल
रखा है, इसलिए यह एक वैकल्पिक-व्यवस्था थी। दुर्भाग्य से अमेरिका और ईरान के
बिगड़ते रिश्तों के कारण इस कार्यक्रम को आघात लगा है। पाकिस्तान की कोशिश लगातार
भारतीय हितों को चोट पहुँचाने की रही है और अब भी वह येन-केन प्रकारेण चोट
पहुँचाने का प्रयास कर रहा है।
रूस
और चीन की भूमिका
अफगानिस्तान में इस
समय वैश्विक स्तर पर दो धाराएं सक्रिय हैं। एक है अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी
देशों की और दूसरी रूस और चीन के नेतृत्व में मध्य एशिया के देशों की। पाकिस्तान
चाहता है कि अफगानिस्तान में चीन अब ज्यादा बड़ी भूमिका निभाए। उसकी आड़ में उसे
अपनी गतिविधियाँ चलाने का मौका मिलेगा। चीन चाहता है कि उसके शिनजियांग प्रांत में
सक्रिय वीगुर उग्रवादी अफगानिस्तान में सक्रिय न होने पाएं। पाकिस्तान ने पिछले दो
वर्षों में चीन और तालिबान के बीच तार बैठाए हैं। चीन ने अफगानिस्तान में पूँजी
निवेश का आश्वासन भी दिया है।
चीन ने रूस में भी पूँजी
निवेश किया है और वह रूसी पेट्रोलियम भी खरीद रहा है, जिसके कारण रूस का झुकाव चीन
की तरफ है। अमेरिका के साथ रूसी रिश्ते भी बिगड़े हैं, जिस कारण से ये दोनों देश
करीब हैं। इसके अलावा रूस इस बात को भूल नहीं सकता कि अस्सी के दशक में अमेरिका ने
अफगानिस्तान में रूसी कब्जे के खिलाफ लड़ाई में मुजाहिदीन का साथ दिया था। उधर
अमेरिकी शक्ति क्षीण हो रही है। वह अफगानिस्तान से हटना चाहता है। पिछले दो साल से
वह तालिबान के साथ बातचीत चला रहा था। इस बातचीत के निहितार्थ को समझते हुए रूस और
चीन ने भी तालिबान के साथ सम्पर्क स्थापित किया था। इसका ज्यादा स्पष्ट रूप अब
हमें देखने को मिल रहा है।
अस्सी के दशक में भारत और रूस के रिश्ते बेहतर थे, अब हम अमेरिका के करीब हैं। इस साल 18 मार्च को मॉस्को में अफगानिस्तान को लेकर एक बातचीत हुई, जिसमें रूस, चीन, अमेरिका की तिकड़ी के अलावा पाकिस्तान, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें भारत को नहीं बुलाया गया, जबकि फरवरी 2019 में हुई मॉस्को-वार्ता में भारत भी शामिल हुआ था। बहरहाल कई कारणों से रूस अब भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता। पर भारत को हाशिए पर रखने की पाकिस्तानी कोशिशें लगातार जारी हैं।