इस
साल हम अपना सत्तरवाँ गणतंत्र दिवस मनाएंगे. सत्तर साल कुछ भी नहीं होते. पश्चिमी
देशों में आधुनिक लोकतंत्र के प्रयोग पिछले ढाई सौ साल से ज्यादा समय से हो रहे
हैं, फिर भी जनता संतुष्ट नहीं है. पिछले नवम्बर से फ्रांस में ‘पीली कुर्ती आंदोलन’चल रहा है. फ्रांस में ही नहीं इटली, बेल्जियम
और यूरोप के दूसरे देशों में जनता बेचैन है. हम जो कुछ भी करते हैं, वह दुनिया की सबसे बड़ी गतिविधि होती है. हमारे
चुनाव दुनिया के सबसे बड़े चुनाव होते हैं, पर चुनाव हमारी समस्या है और समाधान
भी.
ब्रिटिश
प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को भारत की आजादी को लेकर संदेह था. उन्होंने कहा था, ‘धूर्त, बदमाश, एवं लुटेरे हाथों में सत्ता चली जाएगी. सभी
भारतीय नेता सामर्थ्य में कमजोर और महत्त्वहीन व्यक्ति होंगे. वे जबान से मीठे और
दिल से नासमझ होंगे. सत्ता के लिए वे आपस में ही लड़ मरेंगे और भारत राजनैतिक
तू-तू-मैं-मैं में खो जाएगा.’
चर्चिल
को ही नहीं सन 1947 में काफी लोगों को अंदेशा था कि इस देश की व्यवस्था दस साल से
ज्यादा चलने वाली नहीं है. टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा. ऐसा नहीं हुआ, पर सपनों का वैसा संसार भी नहीं बसा जैसा
गांधी-नेहरू ने कहा था. हम विफल नहीं हैं, पर सफल भी नहीं हैं. इस सफलता या विफलता
का श्रेय काफी श्रेय हमारी राजनीति को जाता है और राजनीति की सफलता या विफलता में
हमारा भी हाथ है.